BY- रवि भटनागर


हमारी नज़रों के सामने ही देश के हालात बद से बदतर होते दिख रहे हैं। सरकार के वायदों , कोशिशों और दावों में कोई भी तारतम्य बैठता दिखाई नहीं देता। ऐसा विगत साढ़े चार वर्षों से चल रहा है। वर्तमान सरकार, स्वयं के बुने हुये जाल में ही उलझती जा रही है।

तात्कालिक, ‘ सीएजी ‘ के सवालिया और कुतर्क पूर्ण खुलासों और भ्रष्ट हुई सुविधाओं से पैदा हुए अन्ना आंदोलन में जो भ्रष्टाचार के खिलाफ देशव्यापी आवाज़ उठी उससे पिछली सरकार का हारना निश्चित ही था।

हर महकमे में पल रहे भ्रष्टाचार से सारी जनता पहले से ही त्रस्त थी। पर इस भ्रष्टाचार का ज़िम्मेदार कोई एक दल ही रहा हो यह भी मान लेना जायज़ नहीं है। इसका  विस्तार हर नई योजना और बदलती सरकार के साथ होता ही चला गया। वर्तमान सरकार में यह  कम हुआ हो ऐसा भी नहीं लगता।

अगर गहन विचार करें तो यही पायेंगे कि राज्य सरकारों के अधीन भ्रष्टाचार तेज़ी से पनपा है। अनेक राज्यों में विभिन्न दलों की सरकारें सत्ता संहालती रही हैं।

झारखंड, मध्यप्रदेश, बिहार छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश जैसे ही अन्य प्रदेशों में भ्रष्टाचार के प्रमाण और परिणाम किसी से छुपे नहीं हैं। आज के परिपेक्ष्य में यह मान लेना अनुचित नहीं होगा कि सरकारों के कार्यक्रम नीतियां और नियत तथा सरकारी महकमों में चल रहा व्यापक भ्रष्टाचार दो अलग मुद्दे हो चुके हैं। भ्रष्टाचार को किसी भी एक दल विशेष से जोड़ देना बेमानी है।

आज से पाँच वर्ष पूर्व जैसी भी परिस्थितियाँ बनी थीं उसके चलते बीजेपी अच्छी संख्या बल के साथ जीतकर सरकार बनाने मेंं सफल हो गई। उस समय जो भी माहौल बना, जो वायदे किये गये और जिस विकास के स्वप्न दिखाये गये, वे आज ज़मीनी स्तर पर दिखाई नहीं देते। अच्छे दिनों की कल्पना तो शुरू के दो वर्षों में ही छू मंतर हो ही चुकी थी।

पिछले कुछ समय में उत्पन्न हुई अन्य विकट परिस्थितियों ने आम आदमी की मानसिकता को भी चपेट में लिया है। शिक्षा का गिरता स्तर, बेरोज़गारी, मज़दूर, किसान की दुर्दशा, कानून व्यवस्था जैसे सभी मुद्दों पर सरकार असहाय सी हो चुकी है और कुछ ठोस कर पाने की भी हालत में नहीं लगती। सरकार की अपनी ओढ़ी हुई प्राथमिकतायें तक भी उसके ऊपर बोझ बन कर हाँफने लगी हैं।

ऐसे में कुछ बेहतर विकल्पों की खोज करने के बजाय शहरों स्टेशनों के नाम बदल देना, धर्म और आस्थाओं के प्रश्न सरकार की विभिन्न सहयोगी सस्थाओं द्वारा उठाया जाना महज जनता का ध्यान भटकाने की कोशिशों से अधिक कुछ नहीं है।

प्रश्न सही या ग़लत का नहीं है, प्रश्न यह है कि इस देश की वर्तमान हालातों में, प्राथमिकतायें क्या हैं? नाम बदलने का मन था तो अगले पाँच साल में घोषणा पत्र ज़ारी कर सभी कुछ बदल लेते। पर ऐसा नहीं है। केवल नामों को बदलकर भगवान के नाम पर भावनाओं, धर्म और आस्था के सहारे आम जनता का ध्रुवीकरण कर सत्ता प्राप्त करना ही एकमात्र ध्येय है?

ऐसी परिस्थितियाँ में सरकार ही अपनी सोच और कार्यविधि बदले और सामाजिक हित के कार्यो के ठोस प्रमाण और परिणाम दिखाये।

अगर ऐसा नहीं हो सकता तो सबको मिलकर
बहुत जल्दी ही कुछ ठोस और कारगर करना समय की माँग है। बदलाव की चाहत के साथ, कुछ विचित्र करने का साहस जुटाकर एक जुट होना और गतिशील हो जाना ही इस देश की नियति बदल सकेगा।

लेखक स्वतंत्र विचारक हैं तथा गुरुग्राम में रहते हैं।

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