BY- THE FIRE TEAM
दिमाग़ है, तो चलेगा भी, और चलता रहना भी चाहिए। पर, यहाँ मेरा भाव, सिर्फ सोचने भर से ही नहीं है।
ख़ुराफाती नियत से सोच कर उसे सोशल मीडिया के ज़रिये पूरे देश में प्रसाद की तरह बाँट कर, तमाशबीन बन जाने से है।
अब अगर उसमें घोर असामाजिक या असंस्कारी, ग़ैर जिम्मेदारी भी लिपट जाये, तो भली करेगा भी कौन ?
पहले, सुविधाएं कम थीं, खबरें, बस खबरें ही होती थीं, दिमाग़ की खुराफातें, हँसी मज़ाक़ तक सीमित थीं ,या कभी कभी हलकी बेहूदगी में भी इस्तेमाल हो जाती थीं।
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में तो, दिमाग़, ने ग़ज़ब की रफ्तार पकड़ ली। अब दिमाग़ की फितरत “की बोर्ड” पर रिमोट सी बनी, हर तरह के मसलों में गर्दन फंसा लेती है।
हमारे धर्म निरपेक्ष देश में प्रचलित, सात धर्मों में से चार पर, विवाद होते भी हों तो पता नहीं चल पाते। बाक़ी बचे तीन में से एक पर कभी कभी कुछ, सुनने में आ जाता है। और बचे दो धर्मों पर विवाद कभी थमते ही नहीं। बस एक हादसे की दरकार होती है जिसके क़िरदार मुसलमान और हिंदु हों, काफी है। हादसे में बहशीपन के माने ही बदल जाते हैं।
कुछ लोगों के दिमाग़ी फितूर, सोशल मीडिया की उड़ान भर कर सैकड़ों मील दूर तक लाखों के दिमाग़ की ख़ुराक बन जाते हैं। नफरतों की सारी हदें पार हो जाती हैं। विकास की ही तर्ज़ पर विनाश की सोच शुरू हो जाती है।
पीड़ित भी सिर्फ पीड़ित न हो कर, मोहरे बन जाते हैं। पुलिस, कोर्ट कचहरी, जाँच, एस आई टी, दान, अनुदान, सरकारी बयान, सब लगभग वैसे ही रहते हैं, पर नफरत में ही हर बार थोड़ा सा और इज़ाफा हो जाता है।
सवर्णों, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछडें वर्गों के बीच भी खाई बना कर, विवादों को अलग हवा दी जाती है। आरक्षण के नाम पर तर्क और कुतर्क, सोशल मीडिया के ज़रिये, समाज में ज़हर घोल चुके हैं। जातियाँ आरक्षण के दावों के भरोसे राजनीति कर रही हैं। और यह सब तब है, जब कि रोज़गार अपने निम्नतम स्तर पर है।
धर्माधिकारियों के विचार क्या क्या हो सकते हैं, यह तो सभी जानते हैं। बहुत सी भिन्नतायें भी मिलेगी उनमें। पर इस देश के लाखों पढ़े लिखे युवाओं का एक वर्ग, अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा आँक नहीं रहा है, या पूर्वाग्रहों से ग्रसित है।
सोशल मीडिया पर हर घटना को अनर्थ बनाने में उसका योगदान बहुत ही विध्वंसक होता जा रहा है। और सबसे आसान है एसी सूचनाओं को फारवर्ड करना। इसमें अक्सर हमारे कुछ पूर्वाग्रहित वरिष्ट नागरिकों को भी काफी आनंद आता है।
राजनेताओं को भी यह समझना ज़रूरी है, कि प्रगति का एकमात्र रास्ता, बिना शर्त सामूहिक विकास ही है। जब तक यह नहीं होगा, तब तक धर्मांधंता और जातिगत द्वेषों से अभिशप्त देश के निवासी अपने सामान्य अधिकारों और सुखों से वंचित ही रहेंगे।
सरकार और देश के सारे प्रबुद्ध लोग देश की आर्थिक और सामाजिक प्राथमिकताओं का हल जल्दी निकालें। इसके लिये, आवश्यक हो तो कई योजनाओं को मात्र दो वर्षों तक के लिये टाला भी जा सकता है।
सोशल मीडिया में चलते दिमाग़ और सोच, मात्र पचास प्रतिशत ही सकारात्मक और प्रगतिशील हो जाये तो देश के हालात और बिगड़ा माहौल बहुत जल्दी ही बेहतर हो सकता है।
रवि भटनागर, गुड़गांव
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