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असद और गुलाम के एनकाउंटर पर रिहाई मंच महासचिव राजीव यादव ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि जाति-धर्म की राजनीति के चलते यूपी में हो रहे एनकाउंटर की कड़ी में अतीक अहमद के बेटे असद का एनकाउंटर हुआ.

जिस तरह से सीसीटीवी फुटेज का हवाला देते हुए एनकाउंटर के नाम पर हुई हत्या को सही ठहराया जा रहा है, ऐसे में लखीमपुर खीरी में गृहराज्य मंत्री अजय मिश्रा,

टेनी के बेटे आशीष मिश्रा द्वारा किसानों को थार गाड़ी से रौदने के वीडियो के सामने आने के बाद तब तो उसका भी एनकाउंटर कर देना चाहिए था?

पर ऐसा नहीं हुआ क्योंकि वह भाजपा के मंत्री का बेटा था और जाति से उच्च जाति का. एनकाउंटर या बुलडोजर समस्या का हल नहीं खुद एक समस्या है.

इतना ही नहीं अमित शाह लखनऊ आते हैं और कहते हैं कि दूर-दूर तक माफिया नजर नहीं आ रहे. माफिया जब बगल में बैठा होगा तो दूरबीन से कहां दिखेगा.?

अतीक अहमद उसी माफिया राजनीति का हिस्सा है जिस तरह से तमाम माफिया विभिन्न राजनीतिक दलों में हैं. मायावती जब मुख्यमंत्री थीं तब उन्होंने अतीक अहमद और रघुराज प्रताप सिंह पर कार्रवाई की.

योगी सरकार में सवाल है कि अतीक और मुख्तार जैसों पर माफिया के नाम पर कार्रवाई हो रही है कि मुसलमान के नाम पर.

उन्नाव की बलात्कार पीड़िता के पूरे परिवार को जिस तरह से कुलदीप सिंह सेंगर ने खत्म करने की कोशिश की तो क्या एनकाउंटर हुआ? क्या बुलडोजर चला?

बलिया में छात्रनेता हेमंत यादव की दिन दहाड़े शिप्रांत सिंह गौतम और उसके साथियों ने पीट-पीट कर हत्या कर दी तो क्या शिप्रांत और उसके साथियों का एनकाउंटर हुआ? क्या बुलडोजर चला? जवाब है नहीं!

फैसला ऑन द स्पॉट कहकर एनकाउंटर को सही ठहराने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि कानून का राज जिसे वह कह रहे, वह बदले की कार्रवाई है.

मिट्टी में मिला देना, राम नाम सत्य, ठोक देना अपराधीकरण को बढ़ावा देगा. व्यक्ति की जगह अगर राज्य का चरित्र आपराधिक हो जाएगा तो वह नागरिक समाज के खिलाफ होगा.

योगी आदित्यनाथ ने बोला कि समाजवादी पार्टी माफियाओं का संरक्षण करती है तो ऐसे में यह सवाल उन पर भी है क्योंकि पिछले दिनों अखिलेश यादव ने कहा कि

“योगी आदित्यनाथ के खिलाफ कार्रवाई के लिए जो फाइलें आई उसको उन्होंने नजरंदाज कर दिया, इसका आशय क्या लगाया जाए कि

अखिलेश यादव ने योगी की आपराधिक गतिविधियों का संरक्षण किया?” यूपी के एनकाउंटर को लेकर सुप्रीम कोर्ट में पीयूसीएल की तरफ से

संजय पारिख और प्रशांत भूषण की तरफ से याचिकाएं लंबित हैं जिन पर कोरोना काल के बाद निरंतर सुनवाई नहीं हुई.

इन याचिकाओं में राज्य सरकार पर एनकाउंटर के नाम पर हत्या के गंभीर आरोप लगाए गए हैं. अतीक मामले में जिस तरह से उनके वकील तक

को गिरफ्तार किया गया वो अगर ट्रेंड बन रहा है तो खतरनाक है, इससे न्यायिक प्रक्रिया भी प्रभावित होगी. मीडिया में यूपी में एनकाउंटर के जो आंकड़े सामने आए वह भयानक हैं.

10,933 मुठभेड़ में 183 मारे गए, 5,046 घायल जिसमें अधिकांश के पैर के घुटने में गोली मारी गई है. 23,348 पकड़े गए, 13 पुलिस कर्मी मारे गए, 1443 पुलिसकर्मी घायल हुए.

मेरठ जोन में सर्वाधिक 3,205 मुठभेड़ में 64 मारे गए या आजमगढ़ में जो मुठभेड़ हुई उनमें ज्यादातर दलित, पिछड़े, मुस्लिम समुदाय के रहे हैं.

अतीक मामले में जिस तरह से पिछले 47 दिनों से मीडिया में अतीक से जुड़ी खबरें चाहे वह कोर्ट रूम हो या फिर पुलिस पूछताछ की, वह जिस तरह से मीडिया में आ रही हैं,

वो साफ तौर पर मीडिया ट्रायल है. आखिर किसके कहने पर जो तथ्य जांच के हैं उनको प्रसारित किया जा रहा. दरअसल जांच नहीं राजनीति हो रही हैं.

योगी आदित्यनाथ से जुड़े एक मामले में जब अदालत की कार्रवाई की खबर मीडिया में आती थी तो उस पर सरकार के वकील ने आपत्ति की. आखिर अतीक मामले में ये आपत्ति क्यों नहीं?

क्योंकि वह सत्ता पर काबिज राजनीतिक दल के हित में है. मेरा एक व्यक्तिगत अनुभव है, जब किसान आंदोलन में वाराणसी से लौट रहा था

तो एक सफेद टाटा सूमो सवार कुछ लोगों ने सरेराह उठा लिया और घंटों प्रताड़ना के बाद जन दबाव के चलते छोड़ा.

साथियों ने पुलिस में शिकायत की तो कहा गया कि आजमगढ़ एसटीएफ क्राइम ब्रांच ने उठाया है. जिस तरह से उठाने वाले पुलिस दस्ते के लोग मुझसे पिस्टल कहां है, पूछते हुए धमका रहे थे,

उसमें यही लगा कि ये मुझे मारकर एनकाउंटर दिखा देंगे. अगर हम एनकाउंटर के नाम पर हत्याओं को सही ठहराएंगे तो हम पुलिस स्टेट की तरफ बढ़ रहे हैं, जो लोकतंत्र के लिए खतरनाक है.

विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद असद और गुलाम के मारे जाने के बाद की तस्वीर पर बात का कोई मतलब नहीं और वो भी

जब एक महीने पहले रामगोपाल यादव ने अतीक के बेटों के एनकाउंटर की बात कह चुके हैं. एक ही फोटो फ्रेम में बाइक के दोनों ओर दोनों की लाशें!

पुलिस पर हमलावर दोनों कहीं जान बचाकर भागे नहीं और चप्पल तक पैरों में पड़ी रह गई! यानी कहीं न कहीं रामगोपाल यादव की बातें सच थी, कि वे पुलिस की गिरफ्त में थे.

{DISCLAIMER-राजीव यादव, महासचिव, रिहाई मंच के निजी विचार हैं. AGAZ BHARAT NEWS का इससे कोई सरोकार नहीं हैं} 

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