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महाराष्ट्र में जिस तरह अच्छे खासे स्थिति में चलती हुई सरकार गिरा कर नई सरकार का गठन कर लिया गया, ठीक वैसे ही बिहार में भी बड़ा राजनीतिक उलटफेर देखने को मिला है.

जी हां, महागठबंधन के तहत नीतीश कुमार दुबारा बिहार के मुख्यमंत्री बन गए हैं तथा साथ में उप मुख्यमंत्री के नाम का भी ऐलान हो चुका है.

किंतु सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि आखिर नीतीश कुमार ने भाजपा से गठबंधन क्यों तोड़ दिया है.?

क्या उन्हें बीजेपी से कोई डर लग रहा था या कोई अन्य पहलू है जिसकी तस्वीर बाहर नहीं आ पा रही है.

पड़ताल से पता चला है कि वर्ष 2020 में जब जेडीयू और भाजपा के बीच गठबंधन से सरकार बनी तो भाजपा नेताओं की बयानबाजी से नीतीश कुमार स्वयं को असहज महसूस करने लगे.

नीतीश कुमार को ऐसा लगने लगा कि भाजपा और उनकी पार्टी को समाप्त करने पर तुली हुई है. यानी कि जदयू के विधायकों,

सांसदों और नेताओं को तोड़कर भाजपा अकेले दम पर सरकार बना सकती है. ऐसे में उन्होंने अपनी ही पार्टी की निगरानी शुरू कर दी.

नीतीश यह जानने के लिए उत्सुक थे कि उनकी पार्टी के किन-किन नेताओं के रिश्ते भाजपा से मजबूत हो रहे हैं.

इस क्रम में जेडीयू के प्रवक्ता आलोक, पार्टी के प्रदेश महासचिव अनिल कुमार यादव, समाज सुधार सेनानी प्रकोष्ठ के अध्यक्ष जितेंद्र नीरज आदि उनके निशाने पर आ गए.

इसी क्रम में आरसीपी सिंह का भी नाम आया जो जेडीयू कोटे से मंत्री थे. जैसे ही आरसीपी की राज्यसभा सदस्य और उन्हें मंत्री पद से इस्तीफा दिया, उन पर कार्रवाई शुरू कर दी गई. पार्टी ने उनके ऊपर भ्रष्टाचार का आरोप लगा दिया.

इन सबके बीच भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के बयान ने भी नीतीश कुमार के शक को मजबूत कर दिया.

तभी से नीतीश कुमार भाजपा से गठबंधन तोड़ने का फैसला कर लिया जिसका परिणाम आज हमें देखने को मिल रहा है.

भाजपा से गठबंधन तोड़ते हुए उन्होंने कहा कि हम कभी भी बीजेपी के साथ नहीं जाएंगे. फिलहाल यह तो सब राजनीतिक उठापटक है किंतु इस संपूर्ण घटनाक्रम में भोलाभाला मतदाता खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है.

हम जानते हैं कि लोकतांत्रिक पद्धति में ‘जनता’ को केंद्र में रखकर राजनीति की जाती है तथा हर राजनीतिक दल अंतर जनहित में ही अपनी नीतियां और घोषणाएं करता है.

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