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(बादल सरोज)

21 मार्च को 16 राजनीतिक दलों की साझी प्रेस कांफ्रेंस में जो बोला और कहा गया, उससे कहीं ज्यादा इस पत्रकार वार्ता की तस्वीरों ने बयान किया.

पत्रकारों के सामने पंक्तिबद्ध खड़े विपक्षी नेताओं की तकरीबन अर्ध-गोलबंद इमेजेज से दो संदेश मुखर होकर सामने आये-

एक; सत्तापक्ष की करनी अब अति से भी आगे जाकर अत्यधिक हो चुकी है कि अब पानी लोकतंत्र के गले से भी ऊपर आ चुका है, कि अब यदि थोड़ी-सी भी देर हुई, तो बहुत ज्यादा देर हो जाएगी.

दो; चूंकि दांव पर लोकतंत्र-सिर्फ संसदीय लोकतंत्र ही नहीं समूचा राजनीतिक, सामाजिक, व्यावहारिक लोकतंत्र-है, पलीता संविधान में भी लगाया जा रहा है.

इसलिए बाकी ज्यादातर बातों को भूलकर अपरिहार्य हो जाता है कि वे सब, जो इस सब में निहित खतरों को समझते हैं, वे फ़ौरन से पेश्तर एकजुट हों.

कैमरों के सामने अर्ध-लामबंद नहीं, जनता के सामने पूर्ण लामबंद हों. लोकतंत्र और संविधान बचाने के लिए इकट्ठा होकर मोर्चा खोलें.

बिना देर किये संभावनाएं तलाशी जाये, रास्ते ढूंढे जायें, समन्वय और साझेदारी के नए और चलने योग्य रूप-स्वरुप तलाशे जाएँ.

यह एकता चुनावी होगी कि नहीं, चुनावी होगी तो उसका विन्यास कैसा होगा, यह अब कुछ बाद की बात लगती है. फिलहाल तो देश और उसकी जनता,

राजनीतिक विपक्ष और सिविल सोसायटी इस आशंका से जूझ रही है कि अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद चुनाव भी जिस तरह से होते आये हैं, अब उस तरह से होंगे कि नहीं.

संसदीय लोकतंत्र बचेगा या नहीं- यह चिंता सिर्फ विपक्ष की नहीं है, सारे समाज की है. हर तरह की असहमति को भी संसद की तरह म्यूट किया जा रहा है.

लोकतांत्रिक विरोध और प्रतिरोध को खामोश किया जा रहा है जो पिछले सप्ताह संसद में हुआ, उसे इस देश के जन आंदोलन, बुद्धिजीवी और समाज के अन्य विचारवान तबके मोदी राज के बाद से लगातार देख और भुगत रहे हैं.

सत्तासीनों-उसमे भी ख़ास गद्दीनशीनों-का रवैया जितना गजब है, उतना ही निर्लज्ज भी है. बात फैज़ साहब की पंक्ति “चली ये रस्म कि कोई न सर उठाके चले”

से खूब आगे निकल कर दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल के शेर “मत कहो आकाश में कोहरा घना है / ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है” तक जा पहुँची है.

अब राग दरबारी के अलावा और किसी सुर में आवाज यदि निकलेगी, तो घोंट दी जाएगी. सरकार की किसी भी तरह की आलोचना, भले वह कितनी भी तथ्यपूर्ण और प्रमाणित क्यों न हो, बर्दाश्त नहीं की जाएगी.

इस सबको अब व्यक्तिगत आलोचना माना जाएगा और चूंकि अब व्यक्ति ही देश है, मोदी ही भारत है, अडानी ही इंडिया है, इसलिए उनके बारे में कोई भी टीका-टिप्पणी राष्ट्रद्रोह करार दी जायेगी और तत्काल पुलिस भेज दी जायेगी.

इसके लिए जरूरी नहीं कि IPS/CRPC या किसी भी विधि विधान को माना जाये. कश्मीर में उठाये गए सवाल के लिए दिल्ली की

पुलिस और दिल्ली में कही गयी बात के लिए असम की पुलिस कहीं भी, कभी भी धावा बोल सकती है और किसी की भी धरपकड़ कर सकती है.

गरज यह है कि संसद से सड़क तक या तो केवल जय-जयकार होगी या सिर्फ सन्नाटा. इन पंक्तियों के लिखे जाने के वक़्त ही खबर आ रही है कि

मोदी सरकार हटाओ-देश बचाओ का बैनर टांगने पर ही 15 लोगों के खिलाफ मुकदमा कायम कर दिया गया है-ताज्जुब नहीं कि इनके छपने तक उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाये

और स्टेन स्वामी, वरवर राव, गौतम नवलखा और आनन्द तेलतुम्बड़े बना दिया जाए. यह अतिरंजना नहीं है, कन्नड के फिल्म अभिनेता चेतन कुमार की गिरफ्तारी हो ही चुकी है.

2024 के लोकसभा चुनावों में विपक्ष के बीच एकजुटता का विन्यास क्या होगा, यह कैसे और कब बनेगी, से पहले की बात यह है कि

इसे जितना जल्द हो, उतना मैदानी एकता के रूप में दिखना और कार्यवाही की एकता-यूनिटी फॉर एक्शन-तो बनना ही होगा.

कैसे? यह भले दिखने में कुछ कठिन सा प्रश्न हो, मगर ऐसी पहेली नहीं है, जिसे सुलझाया ही न जा सके. भारत के राजनीतिक इतिहास में इससे कठिन,

अबूझ और असाध्य दिखने वाली गुत्थियों को सुलझाया गया है और इस तरह से उस दौर की चुनौतियों से जूझा गया है, लोकतंत्र को बचाया गया है.

वर्ष 1975-77 के आपातकाल के बाद 1977 में देश ने इसी तरह के साहसी प्रयोग की सफलता साकार होते हुए देखी, वर्ष 1989 का भी सबक इसी तरह का था.

इसके बाद बदली हुयी चुनौतियों की पृष्ठभूमि में आये 2004 में भी इसी तरह के हल तलाशे गए, उनकी बड़ी भूमिका भी रही.

इन सभी मामलों में वामपंथ ने सिर्फ उत्प्रेरक की ही नहीं, शिल्पकार-आर्कीटेक्ट-की भूमिका निबाही थी. ऐसा स्वाभाविक भी था क्योंकि 1959 में ईएमएस सरकार की बर्खास्तगी,

बंगाल में दो-दो सरकारों की बर्खास्तगी से होते हुए 1972 से 77 तक वहां चले अर्ध-फासिस्ट आतंक और पहले तथा आज त्रिपुरा में इसी तरह के

अर्ध फासिस्टी आतंक सहित वाम ने जितनी अलोकतांत्रिकताएं और तानाशाहियां भुगती हैं, उतनी किसी और राजनीतिक दल या समूह के हिस्से में नहीं आई.

लिहाजा इस बार भी वाम को ही लोकतांत्रिक शक्तियों के समन्वय में आगे बढ़कर भूमिका निभानी होगी. वाम की प्राथमिकताओं में यह है,

इसे हाल के दौर में एक तरफ जनमुद्दों पर अधिकतम संभव संगठनो को संघर्षों के लिए एकजुट मंच पर लाने और बड़े-बड़े संघर्षों का इतिहास रचने और दूसरी तरफ

केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन और तामिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन की साझी पहलों से समझा जा सकता है. कहने की आवश्यकता नहीं कि आने वाले दिनों में यह प्रयत्न और तेज होंगे, और ठोस आकार लेंगे।

क्या इसमें समूचा विपक्ष एक साथ हो सकता है? जो विपक्ष है, वह तो हो ही सकता है; अलबत्ता जो शेर की खाल पहने भेड़ें हैं, उन्हें मक़्तल में जाना है, तो वे जाएंगी ही.

कारपोरेट नियंत्रित और हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिकता से अभिमंत्रित मीडिया इन सब सकारात्मक पहलुओं की बजाय इनको तवज्जोह देगा ही.

TMC सुप्रीमो ममता बनर्जी की विघटनकारी बतकहियों और बीएसपी सुप्रीमो मायावती की डरी-सहमी चुप्पियों को ही तरजीह और प्रमुखता देने के पीछे की कहानी यही है.

उनका काम ही यही बचा है, मगर इस तरह के बतकहाव और खामोश लोगों के बारे में दुष्यंत कुमार कह तो गए हैं कि; “हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था / शौक से डूबे, जिसे भी डूबना है.”

जिन्हें डूबना है, उनके डूबने की परवाह किये बिना विपक्ष आगे बढ़ेगा. यह बात दीवार पर सुर्ख इबारतों में लिखा हुआ है. मोदी जी का कुनबा इसी से भयभीत है-यही भय है जो बौखलाहट से होते हुए बदहवासी तक आ पहुंचा है.

{(DISCLAIMER: A B NEWS का इससे कोई सरोकार नहीं है) लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं}

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