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गोरखपुर: अभिव्यक्ति ‘साहित्यिक-सांस्कृतिक’ संस्था की दूसरी विचारगोष्ठी एवं काव्यगोष्ठी का आयोजन संस्था के मुख्यालय प्रतापनगर,

टीचर्स कालोनी, रुस्तमपुर, गोरखपुर के ‘नायक एकेडमी’ स्कूल के सभागार में सम्पन्न हुई. गोष्ठी की शुरुवात प्रो रामदरश राय तथा संचालन शशि बिन्दु नारायण मिश्र ने किया.

कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि वरिष्ठ पत्रकार राघवेन्द्र दूबे भाऊ जी रहे. “अच्छी बात है कि इस शहर, महानगर में छोटी-बड़ी पचासों संस्थाएँ,

पुरानी संथाएँ, कुछ जो मृतप्राय सी हैं, स्थगित सी हैं. तमाम नयी संस्थाएँ, हम नाम नहीं लेंगे, उसमें जो आप सब अभिव्यक्ति के माध्यम से प्रयास कर रहे हैं, वह अच्छा प्रयास माना जायेगा.

सबमें कुछ न कुछ विविधता रहेगी, उसे नहीं रोका जा सकता, महत्त्वपूर्ण चीज़ यह है कि हम क्या चीज़ आगे लेकर बढ़ रहे हैं. 

पुराने का तिरस्कार नहीं, लेकिन नये के साथ भी चलना होगा, नये स्पंदन को, उसकी आहट को भी देखना होगा, पकड़ना होगा, तब जाकर ‘अभिव्यक्ति’ की सर्वोत्तम जगह बनेगी और ‘अभिव्यक्ति’ इस ओर कदम बढ़ा चुकी है.”

जबकि पत्रकार राघवेन्द्र दूबे भाऊ ने बताया कि गोष्ठी में आधी आबादी की अधिक से अधिक उपस्थिति भी जरूरी है, संस्था को इसके लिए प्रयास करना चाहिए.

गोष्ठी के प्रथम चरण में रवीन्द्र मोहन त्रिपाठी ने गोरखपुर जैसे शहर‌ में ‘अभिव्यक्ति’ को बेहद जरूरी बताया. अभिव्यक्ति की तीसरी गोष्ठी को लेकर भी समय निर्धारित करके इसे

आगामी जून के प्रथम रविवार को वागीश्वरी मिश्र ‘वागीश’ की रचनाओं पर प्रोफ़ेसर रामदरश राय और वीरेंद्र मिश्र दीपक अपना समीक्षात्मक आलेख पढ़ेंगे, यह तय किया गया है.

काव्य-गोष्ठी का प्रारम्भ श्वेता सिंह द्वारा सस्वर सरस्वती वंदना से हुआ. उसके बाद कवि सत्यशील राम त्रिपाठी ने नेताओं के फरेबी चरित्र पर कविता पढ़ी-

“जिन्होंने फूल तोड़े, पेड़ काटे, डालियाँ बेचीं, वही संसद भवन में कर रहे बागान के चर्चे.” डॉ फूलचंद प्रसाद गुप्त ने पढ़ा-“ऊपर से ख़ूब सटल बा, भीतरै भीतर बहुत कटल बा”

विनोद निर्भय ने बहुत गम्भीर कविता पढ़ी-“किसी को जिंदगी कुछ भी यहाँ यू ही नहीं देती, जिसे जो भी मिला, समझो कभी कीमत चुकाई है.”

सृजन गोरखपुरी ने “सोने की लंका हो चाहे मिथिला हो, हिरनी को हर हाल में कसाई से लड़ना है” शेर पढ़कर गोष्ठी को अलग दिशा दिया. 

अरुण ब्रह्मचारी की इन पंक्तियों की खूब काफी सराहना हुई-“पासे वफ़ा का दोस्त मेरे कुछ ख्याल कर, पत्थर न फेंक मेरी तरफ़ यूँ उछाल कर.”

राम सुधार सिंह सैंथवार ने गाँव के प्रति सबकी उदासीनता का यथार्थ चित्रण किया-“दुअरा पर टहरे सियार, भइल घरवा बेगोसयाँ उजाड़.”

वीरेन्द्र मिश्र दीपक ने सामाजिक यथार्थता का चित्रण करते हुए कहा-“आपस में अपनों से कटे हुए हम, कीचड़ में पत्तों से अँटे हुए हम”

वरिष्ठ कवि वागीश्वरी मिश्र वागीश ने पारिवारिक जीवन में उथल-पुथल का यथार्थ वर्णन किया-“फेंकि दीहली थरिया, परोसि के दुआरी। बुढ़वा ससुर के सुनावे लगली गारी”

कुमार अभिनीत ने शोषण पर प्रहार करते हुए कविता पढ़ी- “मनी के मारि के बनवलव जो कोठी, अटकी गटइया में खइबव जो रोटी”

रामसमुझ ‘साँवरा’ ने अपने भोजपुरी गीत में पर्यावरण की महत्ता पर गीत पढ़ा- “पेड़वा कटाता, गाँवे गाँव, मोहाल होता निबिया के छाँव.”

 

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