BYजगदीश बाली


बच्चे भगवान का रूप होते हैं क्योंकि वे मन के सच्चे होते हैं, भोले होते हैं, मासूम व निष्पाप होते हैं। वे मौज-मस्ती पसंद करते हैं और छल-कपट नहीं जानते और न ही छल कपट को समझ पाते हैं।

उनकी ये मनोवृत्ति मानव हृदय को आकर्षित करती है, वहीं कई बार ये मानव दरिंदों का शिकार भी हो जाते हैं। बच्चा हो या बच्ची उसे बहला-फ़ुसला कर अपने वश में
कर लेना आसान होता है। बस इसी को हथियार बना कर कई ज़ालिम, संवेदनहीन व करुणाविहीन मानव दरिंदे उन्हें अपनी दरिंदगी का शिकार बना लेते हैं।

नतीजा होता है नबालिग बच्चों का अपहरण, बालात्कार व हत्या। अभी हम 2014 में हुई शिमला के चार वर्षीय युग के अपहरण व हत्या की दिल दहला देने वाली घटना को भूल भी नहीं पाए हैं कि इसी तरह की एक और घटना ने पूरे प्रदेश को दहला कर रख दिया है।

सोलन के एक स्कूल कोठो में छठी कक्षा में पढ़ रहा शामती गांव में रहने वाला 11 वर्षीय नागेश भी मानव दरिंदगी का शिकार बन गया। जहां युग को चॉकलेट के
बहाने अगवा कर लिया गया था, वहीं नागेश को 19 वर्षीय नेपाली पटाखों का झांसा देकर अपने साथ ले गया और फिर उसके पिता से फिरौती की मांग की।

जब बच्चे ने खुद को आज़ाद करने की कोशिश की, तो उस दरिंदे ने बेरहमी से गला दबा कर मासूम का कत्ल कर दिया। महसूस कीजिए उस 11 वर्ष के बालक की तड़प को। हालांकि युग के हत्यारों को न्यायलय ने फ़ांसी की
सज़ा सुनाई है, पर सोचिए उस चार वर्षीय मासूम की निशब्द करती वेदना के बारे में जिसे भूखे रखा गया, शराब पिलाई गई और फिर पानी की टंकी में डुबो दिया गया।

कल्पना कीजिए कोटखाई के हलाइला की गुड़िया की दर्द भरी चीखों की जिसे बालात्कार के बाद विभत्स तरीके से
मार दिया गया। अभी पिछले महीने ही मंडी के गोहर में एक युवक ने सातवीं कक्षा के एक छात्र के साथ जंगल में कुकर्म किया। नवंबर 2017 में सिरमौर के राजगढ़ में नबालिग छात्रा से बालात्कार का मामला सामने आया। इसी वर्ष मुंबई में पांच वर्षीय अंजली का अपहरण कर हत्या कर दी गई। इसी वर्ष पानीपत में 11-वर्षीय नाबालिग से बालात्कार हुआ, फ़िर हत्या और हत्या
के बाद मृत शरीर से भी बालात्कार किया गया।

ये मानव विकृति, निर्दयता व दरिंदगी की वो तस्वीर है जो किसी मानव कल्पना से भी परे है। कठुआ में आठ साल की बच्ची से बालात्कार, ज़िंद में 15 वर्षीय बच्ची से बालात्कार, सूरत में 11-वर्षीय बालिका का अपहरण, बालात्कार और फ़िर हत्या।

न स्कूल, न मंदिर, न मस्ज़िद, न ही चर्च पूरी तरह महफ़ूज़ हैं। मालूम नहीं रिश्तेदार, दोस्त, गुरु, पुजारी, पादरी, मौलवी में पता नहीं कौनसा दरिंदा आड़ लगाए बैठा हो। ये वे घटनाएं हैं जो मानव समाज के उस काले चेहरे को उजागर करती हैं जो ये सवाल खड़ा करता है कि हमारे बच्चे कितने महफ़ूज़ हैं।

इन घटनाओं को जानकर मां-बाप चुप चाप पूछते हैं – मेरे
खुदा! हमारे बच्चों के लिए कौनसी जगह महफ़ूज़ हैं।
दरअसल हमारे देश में बच्चों के अपहरण, हत्या और बालात्कार की विभीषिका एक पुरानी बहुचर्चित व लोमहर्षक दास्तान से शुरू होता है।

26 अगस्त 1978 को रंगा और बिला नामक दो कुख्यात बदमाशों ने 14 वर्षीय संजय चोपड़ा व उसकी 16-वर्षीय बहिन गीता चोपड़ा का फ़िरौति के लिए अपहरण कर लिया और बाद में दोनों का कत्ल कर दिया। बदमाशों ने
कथित तौर पर लड़की के साथ बालात्कार भी किया।

उनका अपहरण उस समय किया गया जब वे ऑल इंडिया रेडियो पर ’युव वाणी’ कार्यक्रम में हिस्सा लेने जा रहे थे। उसके बाद अपहरण, खास तौर पर नबालिगों के अपहरण, हत्या व बालात्कार के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (ऎन.सी.आर.बी) की रिपोर्ट के अनुसार 2016 में देश में 54,723 बच्चों का अपहरण किया गया जबकि सजा केवल 22.7% मामलो में ही पाई। 2015 में 41,893 बाल अपहरण के मामले रिकॉर्ड किए गए जबकि 2014 में ये आंकड़ा 37,854
था।

2016 में बाल अपहरण दर 119 प्रति दस लाख बच्चे थी जो 2012 के मुकाबले दुगुने से भी ज़्यादा है। 2006 में देश में कुल अपहरण के मामलों में 23% बाल अपहरण के थे। ये मामले बढ़कर 2012 में 40% और 2016 में 60% हो गए।

उल्लेखनीय है कि 2012 -2016 में 16 वर्ष से कम आयु के बच्चों के अपहरण के मामलों में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। कुल अपराधों में से 18% मामले नबालिग से बालात्कार के हैं।

जहां एक ओर ये घटनाएँ मनुष्य की दरिंदगी की प्रकाष्ठा की तस्वीर पेश करती हैं, वही इस बात को भी उजागर करती हैं कि जुर्म करने वालों को न तो इंसानियत से कुछ सरोकार है, न कानून के रखवाले पुलिस का डर है और न ही न्यायालय व कानून की कोई परवाह।

हालांकि युग हत्या मामले में दोषियों को मौत की सज़ा सुनाई जा चुकी है, परन्तु अधिकतर मामलों में
सज़ा नहीं हो पाती। चाहे सैकड़ों गुनहगार छूट जाए, परन्तु एक बेगुनाह को सज़ा नहीं होनी चाहिए – ज्युरिसडैंस के इस सिद्धांत की आड़ में कई अपराधी हमारी न्याय प्रणाली को ठेंगे पर रखते हैं और कानून का मज़ाक बनाते हुए दिखते हैं।

अकसर फ़ैसला आते-आते कई जोड़ी जूते
घिस जाते हैं। और जब फ़ैसला आता है, तो कई बार निराशा और कुंठा के सिवाय कुछ भी हाँथ नहीं लगता। कानून और न्याय व्यवस्था का फ़ायदा उठा कर अपराधियों के हौंसल्रे बुलंद होते जाते हैं और कई औरों के हौसले भी बुलंद कर जाते हैं।

राहत इंदौरी साहब लिखते हैं- ‘नई हवाओं
की सौहवत विगाड़ देती है, कबूतरों को खुली छत बिगाड़ देती है। जो जुर्म करते हैं इतने बुरे नहीं होते, सजा न देके अदालत बिगाड़ देती है।

बच्चों का अपहरण, बालात्कार और हत्या की घटनाओं से सवाल ये भी उठता है कि आखिर हम और आप अपने बच्चों को कितना महफ़ूज रख सकते हैं। हो सकता है आज आप अपने घरों में सुरक्षित मान रहे हों, परन्तु इन जघन्य अपराधों की चिंगारियां आपके घरों तक
भी पहुँच सकती हैं।

इससे पहले कि रंगा-बिला जैसे दरिंदे आपके युग या नागेश को अपना शिकार बना लें, खुद भी सचेत रहें और अपने बच्चों और बच्चियों को भी सचेत करें। ज़ुर्म और जुर्म करने वालों के विरुद्ध आवाज़ उठा कर कानून का साथ लें और कानून का साथ दें।


लेखक स्वतंत्र विचारक हैं तथा हिमाचल प्रदेश में रहते हैं।

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