BY–रवि भटनागर
अभी कुछ दिनों पहले ही उच्च न्यायालय ने 1984 दंगों के अभियुक्त सज्जन कुमार व अन्य को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई। पूरे 34 वर्षो के बाद आम जनता को लगता है कि वास्तव में कुछ पीड़ित परिवारों को न्याय मिल गया, भले ही बहुत देर के बाद।
सच्चाई तो यह है कि ऐसे उन्मादों के तहत हुये अत्याचारों, हत्याओं व अन्य राष्ट्रीय संपत्तियों के नुकसान की न तो भरपाई हो सकती है और ना ही दोषियों को सज़ा दे देना न्याय ही माना जा सकता है। जिन निर्दोष लोगों को बहशी, राक्षसी उन्मादियों को बिना बजह झेलना पड़ता है उन्हें न्याय तो उनके अपने ही पूज्य ईश्वर, अल्लाह, वाहे गुरु या यीशू भी कैसे दे सकते हैं, नहीं जानत, तो कोर्ट कचहरी क्या दे देंगे।
हासिल यह हुआ कि मीडिया दिन भर 1984 के बहत्तर घंटे दोहराता रहा और राजनीतिक दल इल्ज़ाम और बचाव में और तानों उलाहनों में व्यस्त रहे। उस समय की कोताहियों की तो ख़ूब चर्चायें हुईं पर बहस में ये चर्चायें नहीं हुईं कि ऐसे दंगे बाद में भी छोटी या बडी़ मात्राओं में कैसे दोहराये गये। उनकी जाँचों का क्या हश्र हुआ। या इनको भविष्य में रोकने के लिये क्या किया जा सकता है।
ये सच है कि 1984 के दंगे बहुत ही विकराल रुप ले गये और उस आग की चपेट में केवल एक धर्म विशेष के लोग ही आये। हज़ारों की जानें जाने का अर्थ, हज़ारों परिवारों का टूट कर बिखरना भी था। दुकानें और घर भी लूटे गये। कई महीनों तक आपसी विश्वास और सद्भाव क़ायम नहीं हो सका।
यह भी विडंबना वास्तविक और भयावह सच्चाई है कि हमारी जाँच एजेंसियाँ अभी तक ऐसे हालातों से निबटने के लिये न तो पूरी तरह सक्षम हैं और ना ही राजनीतिक दखलंदाज़ियों के डर से उपयुक्त या कड़े कदम उठा पाती हैं।
यह भी सच है कि हम उन पर दोष थोपते हुये भूल जाते हैं कि वे भी इंसान हैं, उनके परिवार हैं, ज़िम्मेदारियाँ भी हैं। वे राजनीतिक कारणों व जनता की मात्र तसल्ली के लिये चाहे जब सस्पेंशन तबादले और लाइन हाज़िर जैसी कार्यवाहियाँ एक हद तक ही झेल सकते हैं। अंततः वह सरकारी रंग में रंग जाना ही बेहतर समझते हैं।
1984 होने के पीछे भी, कोई साधारण कारण नहीं थे। कई वर्षों पहले से खालिस्तान की मांग कर रहे कुछ मतवाले बड़ी बेरहमी से बसों से उतार कर व अन्य स्थानों पर हिंदुओं की हत्या करते रहे थे। एक समय ऐसा भी आ गया जब धार्मिक स्थान का इस्तेमाल छुपने, बचने और अन्य कारणों के लिये होने लगा।
यह इतिहास का ऐसा हिस्सा है, जिस पर बहुत कुछ अलग अलग तरीकों से लिखा गया है। मैं इस बहस के लिए सक्षम नहीं हूँ। पर संदर्भ देना आवश्यक लगा। उन सब जाँचों का भी कुछ तो हश्र हुआ होगा, पर यह अब विषय ही नहीं रहा।
इन सबके चलते ऑपरेशन ‘ब्ल्यू स्टार ‘ हुआ जिसके तहत अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के ही परिसर में ही छुपे सैंकडों कट्टर पंथियों और हथियारों को निकालना आवश्यक समझा गया। परिसर में फौज को भेजा गया, गोलियाँ इत्यादि का इस्तेमाल हुआ। जानें भी गईं, परिसर का नुकसान भी हुआ।
इस पूरी प्रक्रिया को सिख समुदाय ने अपनी संवेदना और आस्थाओं पर अतिक्रमण माना। उनके नज़रिए को भी ग़लत नहीं मान सकते, आस्थाओं का प्रश्न है। इन सब कार्यवाहीयों का ज़िम्मेदार भी तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी को ही माना गया। कुछ ही समय बाद 31अक्टूबर 1984 को उनके ही अपने सीक्योरिटी गार्ड ने जो कि स्वयं भी एक सिख था, उनके ही निवास पर उन्हें गोलियों से भून डाला।
जहाँ तक मैं जानता हूँ उस वक्त आक्रोश एक
पूरे समुदाय पर था और अन्य सभी तत्व जो भी अराजक हो सकते थे हुये और उस समय राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के विपरीत एक आम माहौल क्रोध और नफरत का बना और वो सब कर बैठा जो इंसानियत पर एक धब्बा बन कर हमेशा हमेशा सालता रहेगा।
कांग्रेस की अग्रज नेत्री की हत्या पर उस दल के कुछ कार्यकर्ता भी क्रोध वश वो कर बैठे जिसकी उन्हें सज़ा मिल रही है। लेकिन यह भी पूरा सच नहीं है कि केवल काँग्रेस के कार्यकर्ता ही इसमें संलग्न थे।
इंसानियत तब भी ज़िंदा थी मरी नहीं थी। लाखों हिन्दुओं ने लाखों सिख्खों की जान माल पर आँच नहीं आने दी। पुलिस और प्रशासन ने भी अपने संख्या बल और सीमाओं के चलते काफी मुस्तैदी दिखाई पर अपवाद भी अनेक रहे। भारतीय फौज ने भी हादसों को रोकने में अहम भूमिका निभाई। इसीलिए इन दंगों की चर्चा में कुछ दलों का राजनीतिक लाभ लेना उचित नहीं है।
स्वर्गीय राजीव गांधी ने अपनी माँ के मरने के बाद ही प्रधानमंत्री का पद संभाला जनता से पहले ही संबोधन में अमन शांति बनाये रखने की अपील करते हुये, ‘ बडा़ पेड़़ गिरने से धरती पर असर ‘ होने वाली बात जब कही थी जब शायद उनकी माँ की अन्तेष्टि भी नहीं हूई थी और राजधानी व अन्य शहरों की प्रतिक्रियायें पूरी तरह आनी शुरू भी नहीं हुईं थीं। कुछ दल घटना के चौंतीस साल बाद भी उस एक वाक्य को दोहरा दोहरा कर राजनीतिक लाभ लेने के प्रयत्न करते हैं।
अभी भी जो दोषी बच गये हैं उन्हें भी उनके कर्मों की सज़ा अवश्य मिलनी चाहिए। अब इस पर और राजनीति बंद होनी चाहिए। विचार, इस पर होना चाहिये कि अल्पसंख्यकों को एसे उंमादों से कैसे बचाया जाये।
नोट-इस लेख के दूसरे भाग में, मैं, इसी विषय पर, जल्द ही स्वयं का अनुभव भी साझा करुंगा, अवश्य पढ़ें.
लेखक स्वतंत्र विचारक हैं और गुरुग्राम में रहते हैं।