BYरवि भटनागर


सोना तो उगलती रही, इस देश की धरती , पर जाता कहाँ रहा ? सब जानते हैं, किस-किस ने निगला, इस सोने को। कवि, और लेखकों की अद्भुत कल्पनायें, किसान को अन्नदाता के रूप में संबोधित कर, उनका मान बढ़ाती रहीं।

हमारे सिनेमा, और सभी बडे़ राजनीतिक दलों के नेता हर मौके, और हर मौसम में किसानों और जवानों के नाम से, खुल कर खेल खेलते रहे और धन एवं सत्ता के लाभ उठाते रहे।

पुराने उपन्यास और फिल्मों, ‘दो बीघा ज़मीन’, ‘हीरा मोती’ और ‘गोदान’ के चरित्रों से ,आज तक, भारत का किसान, उभर ही नहीं पाया। इन्ही गाँवों की धरती पर पले, बढ़े और जवान हुऐ युवा ,फौज में भर्ती होते रहे, देश की सेवा की, हज़ारों शहीद भी हो गये। पर, अनेक वर्षों से, हमारे किसान और जवान दोनों ही अपने आप को ठगा महसूस करते हैं।

ऐसा नहीं है, कि सरकारें, इस दशा से सर्वथा, आँखें मूँदे रहीं। इस दिशा में, निश्चित ही, बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक महत्वपूर्ण फैसला था। 1969 में चौदह बैंक, और 1980 में छह बैंक, अपने अधिकार क्षेत्र में लेकर तात्कालिक सरकार ने एक क्रांतिकारी कदम उठाया था।

इस फैसले से देश के सामूहिक एवं चौमुखी विकास के रास्ते खुलते जाना, तय सा लगा। किसान के साथ ही, ग्रामीण विकास, गृह लघु और मझोले उद्योगों के विकास की अनेकों योजनाएं भी इसी दौर में बनीं। बैंकों में, एक निश्चित प्रतिशत ऋण का प्रावधान, इन्हीं वर्गों को समर्थ और सुदृढ़ बनाने के लिए आवश्यक कर दिया।

अच्छी नियत की नियति अच्छी हो, ये ज़रूरी नहीं है ,इसका उदाहरण, आज हमारे सामने है। सरकार की नीतियों के कार्यान्वयन की नियत से, जो भी नये विभाग व एजेंसियाँ बनाई गईं और जिन भी बैंको ने इन योजनाओं पर कार्य करना शुरू किया, वहीं की एक अच्छी जमात, यानी कर्मचारी और अधिकारी, भ्रष्टाचार और सरकारी तंत्र के मकड़जाल में उलझते चले गये।

पूरे देश में ही, काफी तादाद मेंं, ग्राम सचिव से लेकर, ज़िलों व बैंको के वरिष्ठ अधिकारी, राजनीतिक नेतृत्व को संतुष्ट करने के तरीक़े ढूंढते रहे, और भ्रष्ट, अपना उल्लू सीधा करते रहे। राजनीतिक जमात, आंकड़े सुलझाते और परोसते हुए, नई योजनायें लाती रही, और बैंकों व अन्य सभी विभागों को, लक्ष्यों के चक्रव्यूह में उलझाती रही।

इन कारणों, और इनसे उत्पन्न दबावों ने, किसानों की ज़मीनीं, उपयुक्त और वास्तविक आवश्यकताओं को पीछे छोड़ दिया। मुख्य रह गया, किसी भी तरह ऋण और ऋणियों की संख्या बढ़ाते रहना, जिनसे लक्ष्यों की पूर्ति हो सके। इस दौड़ में, भ्रष्टाचार भी साथ-साथ, एक दानव की तरह, पनपता चला गया।

अशिक्षित व अनजान किसानों व गाँव, कस्बों के लोगों को आसानी से, किन्ही भी कारणों से ऋण लेने के लाभ बता कर बंदर बाँट वर्षों तक चलती रही। अनावश्यक व अलाभकारी ऋण भी दिये जाते रहे। जो किसान, पहले से ही साहूकारों के चंगुल मेंं थे, अब बैंको और वित्तीय संस्थानों के मकड़जाल में उलझते चले गये।

इन्ही के साथ ही, कमीशन के लालच दे, खाद, बीज, कीटनाशक पदार्थों और अन्य उपकरणों, ट्रेक्टर कंपनियों के व्यापार और लाभ, आसमान की ऊंचाई छूने लगे। बैंको की शाखाएं तो गाँवों की पहुंच में हो गईं पर, ऋण की गुणवत्ता, भ्रष्ट तत्रं के आगे घुटने टेक गई।

सबसे बडी़ कमी यही थी, कि धन और साधन तो बहुतायत में थे, पर बेंकों के जाल बुनने में, योग्यतायें पिछड़ गईं। सरकारी अमला और बैंक, दोनों ही काम के बोझ के कारण, न्यूनतम जाँच परख या ज़मीनीं आवश्यकताओं की ही अनदेखी कर ऋण देते चले गये।

सही ऋण के हकदार किसान या तो ऋण ले नहीं पाते थे, या उनके हिस्से में पूरा ऋण ही नहीं पहुंच पाता था। आम तौर पर, समर्थ किसान और अधिक समर्थ होते चले गये।इन सभी कवायदों का कुल नतीजा यही रहा कि विकास का मुख्य उद्देश्य कहीं पीछे छूटता चला गया और आंकड़ों का खेल ही सर्वोपरि हो गया।

इधर वोट की राजनीति उन्हें ऋण न चुकाने की ओर उत्साहित करती रही। विपरीत परिस्थितियों में किसानों को अतिरिक्त वित्तीय सहायता ऋण माफी से बेहतर विकल्प साबित हो सकता था। जहाँ तक मेरी जानकारी रही आम किसान कि नियत कभी खराब नहीं रही और नियति पर उसका ज़ोर होता भी कैसे?

कुछ मदों, जैसे गोबर गैस प्लांट, दुधारू जानवरों, बैलों, ऊँट गाडियों और इसी प्रकार के अनेक ऋणों में आवश्यकता और गुणवत्ता पर, बदनियति ही मुख्यतया भारी रही। सही समय पर सही वसूली होती रहती, या फसल न हो पाने के हालात में सामयिक वित्तीय अनुदान या मदद मिलते रहते तो संभवतः अब तक किसान अपने पैरों पर खड़े हो चुके होते।

ऋण माफी के उद्दम और भयावह रहे। ईमानदारी से भुगतान कर रहे किसान व खराब नियत से भुगतान न करने वालों को एक ही कतार में खड़ा किया जाता रहा। सच यही है कि एक सी आपदा झेल रहे किसानों मेंं ईमानदार किसान नुकसान ही उठाते रहे।

आज ये सब इतिहास हो चुका होता और ये लेख भी पाठकों तक नहीं आता अगर हमारी सरकारें, सभी जुड़े अधिकारी अपने अपने कार्य और ज़िम्मेदारियों का निर्वहन सही ढंग से करते। यह स्थिति पिछले लगभग सात वर्षों में बद से बदतर हुई है। पिछली सरकार अपने दामन पर लगते जा रहे भ्रष्टाचार के दाग़ों को मिटाते हुये किसान, मज़दूर की समस्याओं पर अनदेखी करती रही।

मौजूदा सरकार पिछले चार वर्षों मेंं देश की प्राथमिकताओं से ही लुका छिपी करती जा रही है। किये हुये वादे परोक्ष में कुछ और प्रत्यक्ष में कुछ और ही दिखाई दे रहे हैं। ग़रीब की सी भाषा और भाषणों को धरातल पर ले आने के उद्दम नज़र और सोच से कोसों दूर ही होंगे, जो अभी तक दिखाई भी नहीं दिये।

आज अपने देश के करोड़ों किसान, मज़दूर बद से बदतर ज़िंदगी बसर करते हुए, सड़क पर उतर कर आंदोलन करने पर मजबूर हो गये हैं। इन सभी आंदोलनों से लाभ किसका होगा यह तो समय ही बताने में सक्षम है, पर नुकसान तो पूरे राष्ट्र का होना तय ही है।

ऐसे में सरकार की ही मुख्य ज़िम्मेदारी बनती है कि अतिरिक्त संवेदनशील हो कर विचार करे, सही फैसले करे, और बढ़ती जा रही दुर्दशा को रोकने में तत्पर दिखे। समाधान के कार्य बहुत आसान नहीं तो अधिक मुश्किल भी नहीं हैं। सरकार प्रावधानों या धन आवंटन की समस्या का सहारा ले कर समस्या से नज़र हटाने का ज़ोखिम उठाने का प्रयत्न न करे तो बेहतर होगा।

लेखक स्वतंत्र विचारक हैं और गुरुग्राम में रहते हैं।

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