सुशील भीमटा

BYसुशील भीमटा


मैंनें बीते वक्त की किताब के कुछ पन्नों को खंगालकर देखा तो धूल जमें पन्नों पर चांदी से चमकते अल्फाजों में बयाँ वो गांव की भूली बिसरी दास्ताँ याद आ गई। जब बेपनाह मोहोब्बत की चादर में पूरा गांव समा जाया करता था।

हर शख्स गांव का दुःख दर्द में आहें भरा करता था। वक्त करवट तो लेता है जानतें है सब मगर कभी सोच करवट ले ले तो फिर दौर बेदर्दी का चलता है। जख्म गहरे भी नजर नहीं आते जब गरूर का सरूर सर पे मचलता है।

गांव के नुक्कड़ पर सांसे लेती थी ज़िदगी मेरे गांव की. अब फुर्सत की हवा बहुत कम चला करती है वहां. शायद कुर्सियों के दौर नें माटी से रिश्ता ही तोड़ दिया? उन गली चौबारों और नुक्कड़ों पर सीमेंट कंक्रीट जो डाल दी हमनें अब हरियाली मोहोब्बत की फना होकर रुसवा हुई। चार दिवारियों में कैद हुई ज़िदगी मेरे गांव की अब बंद कमरों में हंसी तलाशा करती है।

आंसुओं को छुपानें के लिए लोगों नें दिल पत्थर के बना लिए। सिसकियाँ ही सुनाई देती हैं अब बेइंतिहा दुखों के दौर में। बहुत कम बचे हैं अब जो दुःख दर्द समझे और बयाँ करे।

दिखावे की चादर की चमक में आंखें मूंद ली हमनें, खुली सांसे लेती थी जो ज़िंदगी मेरे गांव की आज शीशे के आशियानों में पँखो की मोहताज कर दी हमनें। गांव के गली चौबारों में खिलखिलाते मासूम बचपन और बेबस बुढापे पर रुसवाई जो इस कदर सवार हुई अब बचपन और बुढापा तन्हा होकर बंद कमरों में ही खेला करतें हैं।

चार दिवारी के भीतर ही वक्त की आंधियां झेला करते हैं। आलम ये है कि आशियानों को ही बंद कर दिया बेदर्दी के खौफ से हमनें। वो आजाद उडानें भरनें वाले बाशिंदे मेरे गांव के उम्र के इस पड़ाव में पंख तो फड़फड़ाते हैं मगर कैद है दिखावे और शीशों से बनें पिंजरों में। पाँव में गरूर की बेड़ियाँ डालकर हमने नफरत को पनाह दे दी। अब कछुवे की तरह गर्दन छुपानें का हुनर जानते हैं लोग।

एक हल जोतनें वाला आज मशीन तक तो पहुंचा मगर मोहोब्बत की मूरत को तराशने वाले औजारों को सम्भमलने के बजाये तोड़ डाला हमने। अब पहले की तरह खलियानों में खुली धुप में फसलें सुखानें की जरूरत तो नहीं मगर दुःख है कि वैसी बची अब हमारी सीरत भी नहीं।

अर्थियों पर डले रंग बिरंगे कफनों नें उस सफेद चादर की कीमत छीन ली जो प्यार की कीमत से अनमोल हुआ करती थी. ज़िदगी के बदलते रंगों नें अर्थी में तो सजावट भर दी मगर जीनें की वो रंगत छीन ली जिससे जहम से जुबाँ तक का रास्ता साफ नजर आता था।

हर कोई किसी को भाता था, सुख दुःख में काम आता था, पीठ थपथपाकर हौंसला बढ़ाता था।वो आवाम विलुप्त हुआ जो दीवाली, शिवरात्रि, होली, शादी विवाह में खुशियों के गीत गाता था अब डीजे का दौर है।

अब कागज की कश्ती, मिटटी के खिलौने, गीतों की महफिलों से नहीं खुश हुआ करते हम। अब किसी का घर जले तो ही दीवाली मनाते हैं हम। अब थप्पड़ की गूंज नहीं सुनाई देती सिर्फ दर्द का ऐहसास होता है।

माँ के आंचल की झांव नहीं मिल पाती अब कैरीबैग ही ठिकाना है, डॉइपर, वाइपर का जमाना है अब कहां वो फटा पजामा है। वॉकर के जमानें में माँ बाप की ऊँगली थामें कौन चलता है?

अब पालनों में नहीं रेस्ट चेयर पर बचपन पलता है. बस इतना ही कहूँगा अंत में दोस्तों-

” गवाही दे रहा ये बिगड़ा समा देखो कैसे आज इन्सां खुद ही खुदको छलता है. देखो कैसे गांव खंडर हुए आज इस दौड़ में बचपन शहर में और लाचार बेबस बुढापा गांव में तन्हा पलता लकड़ी की लाठी का सहारा लिए डगमगाते कदमों से अकेले चलता है. इस चलते दौर में सब ठीक सही बस ये बेबस बुढापा और माटी से टूटा रिश्ता जहम में खलता है.!!


लेखक स्वतंत्र विचारक हैं और हिमाचल प्रदेश के देवभूमि में रहते हैं।

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