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BY-Shobhit Awasthi

शरीयत कोर्ट से प्रेरणा लेकर अखिल भारतीय हिन्दू महासभा ने हिन्दू न्यायालय का गठन किया है। जिसकी नवीन मुख्य न्यायाधीश श्रीमती डॉ शकुन पांडे जी हैं। जिन्होंने अपने पहले साक्षात्कार में – “ गोडसे की जगह मैं गाँधी को गोली मार देती” जैसा बयान देकर हम सभी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित कर लिया है।

एक न्यूज़ चैनल को दिए गये इस साक्षात्कार में आगे वह कहतीं हैं कि- “ हम गाँधी के पुजारी नहीं हैं, हम गाँधी के विरोधी हैं।“ बात यहाँ तक नहीं रुकी फिर कहा कि – “ गाँधी महत्वपूर्ण नहीं हैं, और आज के युग में अगर फिर से कोई गाँधी बनने की कोशिश करेगा, तो मैं उसका वध (जान से मार देना) कर दूँगी।“

कुछ पल के लिए आपका मौन हो जाना स्वभाविक है। मौन के बाद जो विचार मन में आये उस पर मंथन करना भी जरूरी है। सीधी बात की जाये, तो आज के समय में अपने चरम पर गतिमान इस संकीर्ण मानसिकता से बचाव के लिए आपका जागरूक हो जाना अति आवश्यक है।

इस संकीर्ण मानसिकता से हमारा विकासशील भारतीय समाज गर्त में जा सकता है। पर अगर किसी व्यक्ति विशेष का स्वस्थ व विवेचनात्मक आकलन किया जाये तो भविष्य के लिए हमें नई दिशायें व एक प्रगतिशील विचारों वाले समाज का आधार मिलेगा।

इन सब विचारों व आज के दौर में गाँधी जी पर लग रहे आरोपों को लेकर जब आप आधुनिक भारत के इतिहास में गाँधी जी के योगदान का अवलोकन करेंगे तो सर्वप्रथम आपका परिचय उस समय के एक ऐसे भारतीय समाज से होगा जो कि अंग्रेजों के क्रुर शासन से असहाय अस्थि-पंजर सा होकर काल-कोठरी में पड़ा है।

मतलब यह कि सामाजिक विसंगतियों से ऊपर उठकर आज़ादी पा लेना असंभव सा प्रतीत होता था। परंतु अब ऐसा मान लेना कि आज़ादी सिर्फ़ गाँधी जी की देन है, यह भी न्यायोचित नहीं है। गाँधी जी के पहले भी कई क्रांतिकारीयों ने आज़ादी की अलख जगाने का प्रयत्न किया जैसे कि दादा भाई नौरोजी, बाल गंगाधर तिलक, गोखले जी इत्यादि।

वैसे तो गाँधी जी के अनेक योगदान रहे हैं, लेकिन यहाँ पर एक महत्वपूर्ण योगदान है जो कि गाँधी जी को क्रांतिकारियों की पवित्र पंक्ति में अपना एक अलग अग्रिम स्थान दिलाता है। वह योगदान यह है कि भारत जैसे विविधता पूर्ण समाज को आज़ादी के आंदोलन को सफल बनाने के लिए एक-जुट करके समाहित कर देना।

इसी एकजुटता के बल अस्थि-पंजर हो चुके भारतीय समाज में स्फूर्ती व नयी शक्ति का संचार होता है, और हमारा भारत देश उस काल कोठरी रूपी अंग्रेजी शासन काल से निकलकर आज़ाद हवा में सांस लेता है। मन में ‘सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय’ का मंत्र लेकर 15 अगस्त 1947 को अनेक आपदाओं के बीच स्वर्णिम भविष्य की खोज में निकल पड़ता है।

आज वही भारतीय समाज, वही भारत देश जो कि एक ऐसे पड़ाव पर है, यहाँ से अगर उसे सही मार्गदर्शन मिले तो विकशित देशों की कतार में खड़े होने का दम व नेतृत्व करने की क्षमता रखता है। इसके साथ-साथ हमारा देश जहाँ एक ओर सामाजिक कुरीतियों से मुक्त होने की कोशिश कर रहा है वहीं दूसरी ओर अपने ही समाज के कुछ स्वार्थी व भ्रमित लोगों द्वारा अपने समाज को क्षतिग्रस्त करते देख सोचने पर मजबूर भी हो रहा हूँ।

इसका जीवन्त उदाहरण तथाकथित लोगों द्वारा इस प्रकार की अनर्गल बयान-बाजी करना है। इसलिए उपसंहार स्वरूप इस दुष्प्रभाव से बचने के लिये हमारा-आपका जागरूक हो जाना अति आवश्यक है।

यह लेख शोभित अवस्थी ने लिखा है जो राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के पंचम वर्ष के छात्र हैं।

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