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कोई पब्लिक को बताएगा कि ये हो क्या रहा है? जो हो रहा है, उसमें कोई तुक भी है, कोई लॉजिक भी है? सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बांड को जरा-सा गैर-कानूनी

क्या बता दिया और अपने फरमान के बाद भी बांड की जानकारी देने से बचने की कोशिश करने के लिए स्टेट बैंक को जरा-सा हड़का क्या दिया, विपक्ष वालों ने हफ्ता वसूली का ही शोर मचा दिया है.

हफ्ता वसूली भी छोटी-मोटी नहीं; कोई कह रहा है दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला, तो कोई कह रहा है कि ये तो हफ्ता वसूली का ही वर्ल्ड रिकार्ड हो गया.

सरकार वाले शर्मा रहे हैं और विपक्ष वाले शोर मचा रहे हैं कि इस में तो अपुन वाकई विश्व गुरु हो गए! पर ये तो हुआ हंगामा और वह भी मोदी जी के विरोधियों का.

पर सचाई क्या है? सचाई ये है कि बांड के मामले में बेचारी भगवा पार्टी के साथ घोर नाइंसाफी हुई है. डबल नाइंसाफी ही कहिए- बताइए!

विरोधियों ने चोर-चोर का ऐसा शोर मचा दिया, ऐसा शोर मचा दिया कि मीडिया के गोदी में बैठे होने के बाद भी, पब्लिक तक को लगने लगा है कि मोदी जी की दाल में कुछ काला तो है?

दूसरी तरफ, पट्ठे चंदा देने वाले मूजियों ने भी अगलों के साथ ही दुभांत कर दी! शाह साहब ने बताया, तब जाकर दुनिया को पता चला कि बांड के चंदे में भी

बेचारे भगवाइयों के साथ तो ठगी हो गयी. सिर्फ छ: हजार करोड़ रुपये का इतना हंगामा है; दूसरे किसी को इसका आधा तो क्या, चौथाई भी नहीं मिलने का इतना शोर है;

पर पार्टी का साइज भी तो देखना चाहिए। भगवाइयों के कितने एमपी हैं, कितने विधायक हैं? उनके मुकाबले में दूसरों के एमपी, विधायक कहां आते हैं?

सिर्फ लोकसभा के एमपी ही 303 हैं, जबकि बाकी सब के मिलाकर भी कुल 242, यानी ताकत में 60:40 का अनुपात और बांड में? भगवा पार्टी का हिस्सा आधे से भी कम निकला.

विधायकों की गिनती को अगर भूल भी जाएं, तब भी प्रति लोकसभा सदस्य, भगवा पार्टी की झोली में जितना आया है, बाकी पार्टियों की झोली में उससे कहीं बहुत ज्यादा आया है.

फिर भी शोर मच रहा है बेचारी भगवा पार्टी के भ्रष्टाचार का। दूसरे करें तो रासलीला और भगवाई करें तो करैक्टर ढीला!

अगर चुनावी बांड वाकई सदाचार का नहीं, भ्रष्टाचार का ही दूसरा नाम है, हालांकि बांड पर सिर्फ इल्जाम लग रहे हैं, साबित अभी तक कुछ भी नहीं हुआ है,

तब भी प्रति सांसद भ्रष्टता के पैमाने पर, दूसरी पार्टियां भगवाइयों से तो ज्यादा ही भ्रष्टाचारी हुई कि नहीं? दूसरी पार्टियों के मुकाबले में भगवा पार्टी सदाचारी हुई कि नहीं?

अब सौ फीसद ईमानदारी तो खैर मुमकिन ही कहां है, सो दूसरों की तरह होगा, भगवा पार्टी में भी थोड़ा-बहुत भ्रष्टाचार! आखिर, चांद पर भी दाग होता है.

पर चुनावी बांड खुद चीख-चीखकर कह रहे हैं कि प्रति सांसद के हिसाब से भगवा पार्टी ही दूसरे सब के मुकाबले ज्यादा सदाचारी है.

पर भ्रष्टाचारी ही सदाचारी को भ्रष्ट-भ्रष्ट कहे और गोदी में बैठकर भी मीडिया खामोश रहे; यह लॉजिक की ऐसी-तैसी नहीं, तो और क्या है?

ये जो भगवाइयों पर हफ्ता वसूली टाइप के इल्जाम लगाए जा रहे हैं, यह तो सरासर जुल्म ही है। बात सिर्फ गलत की नहीं, यह तो सीधे-सीधे मानहानि का मामला बनता है.

हमें हैरानी है कि भगवा-हमदर्दों ने अब तक राहुल वगैरह के खिलाफ आपराधिक मानहानि का केस दर्ज नहीं कराया है.

माना कि संसद की सदस्यता खत्म कराने के लिए यह टैम सही नहीं है, पर अगलों को अदालत में तो घसीटा जा ही सकता है,

या कम-से-कम चुनाव आयोग से शिकायत कर के एक अदद हिदायत तो दिलायी जा ही सकती थी-चुनाव प्रचार में अपुष्ट आरोप लगाने से बचें!

खैर, निर्मला ताई ने बिल्कुल साफ कर दिया है कि इन आरोपों में कोई दम ही नहीं है. खासतौर पर ईडी-सीबीआइ के छापों और चुनावी बांड की खरीद में

किसी कनेक्शन का कोई सबूत ही नहीं है. छापे पड़े हैं और जिन पर छापे पड़े हैं, उन्होंने बांड खरीदे हैं, पर इससे यह कहां साबित होता है कि

छापे पड़ने की वजह से बांड खरीदे गए हैं या बांड खरिदवाने के लिए ही छापे पड़वाए गए हैं? यह भी तो हो सकता है कि छापे पड़ने के बाद ही बांड खरीदे गए हों,

लेकिन छापे डलवाने वाली पार्टी को नहीं, किसी दूसरी पार्टी को दिए गए हों! छापा पड़ने के बाद, बंदा खुंदक में सरकारी पार्टी के विरोधियों को भी तो पैसा दे सकता है!

अब भी खुद को स्वतंत्र और पत्रकार मानने वाले कुछ लोग, जो दो और दो जोड़कर, चार साबित करने की कोशिश कर रहे हैं, उनकी मेहनत की तो दिशा ही गलत है.

दो और दो, चार लगते जरूर हैं, लेकिन हमेशा चार नहीं होते हैं. दो और दो, चार के अलावा भी बहुत कुछ हो सकते हैं.

फिर काहे का हफ्ता और कहां की वसूली! हफ्ता वसूली का आरोप तो कानून अदालत में एक दिन भी टिक नहीं पाएगा और मीडिया की अदालत में एक मिनट भी नहीं.

हद तो यह है कि जो सारी दुनिया में मोहब्बत की दुकान चलाने का ढिंढोरा पीटते फिरते हैं, वे भी इसकी संभावना से ही इंकार करते हैं कि किसी धनपति का किसी सरकारी पार्टी को सैकड़ों करोड़ देना, शुद्ध मोहब्बत का मामला भी हो सकता है.

मोहब्बत की तलबगार पार्टी कह उठे, तो स्वाभाविक है-तुम बांड मुझे न दो तो कोई बात नहीं, बांड किसी गैर को दोगे, तो मुश्किल होगी!

सच पूछिए तो बांड खरीदना, देना, नहीं देना, सब स्वेच्छा से हो रहा था; इसमें कैसा हफ्ता और कहां की वसूली.?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक है)

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