झूठों ने झूठों से कहा है सच बोलो ,
सरकारी ऐलान हुआ है सच बोलो ।
राहत इंदौरी की यह पंक्तियां भला कौन भूल सकता है। और खासकर आज के दौर में तो बिल्कुल ही नहीं जब सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आदि सभी पहलू अपने नैतिकता नामक वस्त्र को छोड़ रहे हैं। यदि हम राहत इंदौरी की इन पंक्तियों को भारतीय राजनीति और भारतीय नेताओं से जोड़ दें तो किसी को अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए। वैसे तो राजनीति में झूठ एक कारगर हथियार होता है लेकिन भारतीय राजनीति के मामले में यह परमाणु हथियार का काम करता है। यदि भारतीय राजनीति के इतिहास की बात करें तो प्राचीन काल में हम जा सकते हैं लेकिन फिलहाल स्वतंत्रता आंदोलन के पश्चात की राजनीति को ही देखने का प्रयास करते हैं। भारतीय लोकतंत्र की शुरुआत स्वतंत्रता आंदोलन से ही उभरी जो की नैतिकता से ओतप्रोत थी । जाहिर है आगाज बहुत बेहतरीन हुआ परंतु जैसे-जैसे यह आगे बढ़ता गया नए नए रास्ते निकलने लगे चुनाव जीतने के। इन तरीकों में राजनेताओं को सबसे ज्यादा जो तरीका भाया वह है झूठ का। राजनीति शास्त्र को जब हम एक विषय के रूप में पढ़ते हैं तो उसमें कई सारे उपविषय होते हैं जिनमें जाति की राजनीति व क्षेत्रवाद सम्बन्धी राजनीति शामिल हैं। अब यदि भारतीय राजनीति में झूठ अति महत्वपूर्ण हो गया है तो इस विषय से संबंधित छात्रों को भी झूठ की राजनीत नामक उपविषय पढ़ाए जाने की आवश्यकता हो गई है।
स्वतंत्रता पश्चात भारतीय लोकतंत्र कई बार मरणासन्न स्थिति प्राप्त करता हुआ सामने आया है परंतु हाल फिलहाल में इसमें और ज्यादा व्यापक बदलाव देखने को मिले हैं। खासकर 2014 का लोक सभा चुनाव और उसके बाद राज्यों के विधानसभा चुनाव। 12 मई को कर्नाटक के चुनाव की ही बात करें तो यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत एक चुनाव था लेकिन चुनाव के सुरुआत से लेकर परिणाम तक ऐसा कुछ भी नजर नहीं आया। कर्नाटक चुनाव में मतदान 12 मई को अवश्य हुआ परंतु इसका आगाज वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के साथ ही शुरू हो गया था। दरसल कर्नाटक का तटीय क्षेत्र धार्मिक कट्टरता के मामले में काफी तेजी से आगे बढ़ रहा है। यहां पर कई कट्टरवादी संगठन काम कर रहे हैं अतः वह एक उदारवादी समाज सुधारक को कैसे बर्दाश्त कर सकते थे। जाहिर है गौरी लंकेश के समाज सुधार कार्यक्रम के तहत जो वोट बैंक खिसक रहा था उसको तो किसी भी प्रकार से साधना ही था चाहे वह गौरी लंकेश को ही समाप्त करके किया जाता और हुआ भी वही। अब यदि एक सेना अपने हथियार चलाना शुरु करेगी तो दूसरी कहां पीछे रहने वाली। यही कारण है कि लिंगायत को एक जीत के हथियार के रूप में आगे डाला गया। भले ही यह हथियार परिणाम ना दे पाया हो परंतु कहीं ना कहीं भारतीय लोकतंत्र को एक धक्का तो अवश्य लगा ही दिया होगा। वरना क्या जरूरत थी लिंगायत मतों को साधने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी जी को बुलाने की।
चुनाव प्रचार का प्रबंधन कहें या प्रधानमंत्री का इतिहास ज्ञान लेकिन जो भी हो 12 मई को चुनाव के पश्चात एग्जिट पोल में बीजेपी सरकार बनाती हुई दिखाई पड़ने लगी। परंतु 15 मई को चुनाव नतीजे आने पर सभी कुछ बदल गया। किंग मेकर की भूमिका में रहने वाली जनता दल सेक्युलर अब किंग की भूमिका में आ गई। मजबूरी ही कहेंगे कि कांग्रेस ने बिना शर्त के बुलेट ट्रेन की तेजी के साथ जेडीएस को समर्थन देकर कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री मान लिया। आखिर वह मणिपुर व गोआ को जो खो चुकी थी। कोई भी नहीं चाहता कि वह सत्ता से बाहर रहे चाहे लोक तंत्र रहे या भीड़ तंत्र इससे नेताओं को क्या मतलब। जनता तो बेचारी बस राजनेताओं के चीभ पर ही चला करती है। 15 मई को जब परिणाम आया तो सभी जनता को ही धन्यवाद दे रहे थे। बीजेपी वाले सबसे बड़े हिमायती थे जनता के, 104 सीट पाकर भी वह कुल मत प्रतिशत में कांग्रेस से पीछे ही थे लेकिन फिर भी वह एकाधिकार तो रखते ही थे सरकार बनाने का आखिर सबसे बड़ी पार्टी जो थी बीजेपी। लोकतंत्र का यह भी एक नया रूप उभर कर सामने आया है कि 38% जनता ने जिसको वोट किया वह पार्टी सत्ता में आनी चाहिए या फिर 36% वोट पाने वाली पार्टी। बताते चलें कि बीजेपी 36% वोट के साथ 104 सीट जीतने में कामियाब हुई है वहीं कांग्रेस 38% वोट पाकर महज 78 सीट जीत पाई। लेकिन फिर भी सुबह से लेकर शाम तक लगभग सभी चैनल यही दिखाते रहे कि जनता ने किसको चुना है। कई चैनेल तो सीटों के आधार पर जनाधार दिखाने की बात कर रहे थे। शायद कुछ चैनेल के हिसाब से यही जनाधार होता होगा परंतु मेरे हिसाब से तो यह लोकतंत्र रूपी जनाधार के विपरीत है।
बहरहाल जो भी हो शाम आते आते जनता के कल्याण के लिए राज्यपाल के समक्ष सरकार बनाने का प्रस्ताव भी आ गया। दरसल त्रिशंकु विधानसभा में राज्यपाल के पास एक प्रमुख कार्यकारी शक्ति होती है जिसमें वह अपने विवेक से राजनीतिक दल या दलों को सरकार बनाने के लिए कह सकता है। अब यहां सवाल यह उठता है, संविधान में क्या कहीं लिखा है कि सबसे बड़ी पार्टी के सरकार बनाने के प्रस्ताव को ही माना जाय। जाहिर है ऐसा नहीं है। यदि ऐसा होता तो फिर अभी हाल ही के गोआ और मणिपुर के चुनाव में जिसमें कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी उसको सरकार बनाने के लिए राज्यपाल महोदय द्वारा बोला जाता। अब यदि स्थिति ऐसी हो गई है कि किसी के पास बहुमत नहीं है तो फिर राज्यपाल का विवेक किस दिशा में जाना चाहिए यह भी महत्वपूर्ण है। क्योंकि ऐसी स्थिति में केंद्र हावी हो जाता है और राज्यपाल का विवेक शून्य। यदि ऐसा न होता तो क्यों नहीं राज्यपाल ने बीजेपी से यह पूछने का प्रयास किया कि वह 104 से 113 सीटें कैसे हासिल करेंगे। और यदि पूछा भी होगा तो क्या अपने विवेक का इस्तेमाल किया है क्योंकि जेडीएस और कांग्रेस ने गठबंधन कर लिया है तो सिर्फ 2 ही सीट बचती हैं वो भी निर्दलीय जो उनको प्राप्त हो सकती हैं। अब 2 सीट पाकर भी बीजेपी 104 से 113 पर कैसे पहुँच सकती है यह भी एक पहेली है। दूसरी ओर हम कांग्रेस और जेडीएस की बात करें तो वह भले ही चुनाव पश्चात गठबन्धन के सूत्र में बंधे हों लेकिन 78 तथा 38 सीट मिलाकर 116 सीटों के साथ बहुमत का आंकड़ा पार कर रहीं हैं। कानूनी तौर पर राज्यपाल मोहदय को इस गठबंधन को ही सरकार बनाने का मौका देना चाहिए था। इससे राज्यपाल की मर्यादा भी बनी रहती और लोकतंत्र भी अपनी खोपड़ी थोड़ी उठा सकता। बताते चलें कि हमारे वित्त मंत्री श्री अरुण जेटली जी ने भी कुछ समय पहले कहा था कि चाहे बहुमत का आंकड़ा एक पार्टी पाने में समर्थ हुई हो या गठबंधन, राज्यपाल को बहुमत प्राप्त करने वाले को ही सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना चाहिए। जो भी हो अब सिर्फ हॉर्स ट्रेडिंग होगी । विधायक हवाई जहाज से विदेश भी जा सकते हैं या फिर 50-100 करोड़ की डील भी कर सकते हैं। अब जनता के पास से मौका विधायक के पास पहुंच चुका है। जनता का क्या उसको झूठी आस तो मिलती ही रहती है।