आजादी………….. सचमुच अपने आप में एक अद्भुत शब्द है जो व्यक्ति को उसके वास्तव में होने का बोध कराता है। बेड़ियों एवं कई तरह से प्रतिबंधों से बंधा मनुष्य कभी भी अपने विकास की इबारत नहीं लिख सकता। इसके साथ के तौर पर विभिन्न विद्वानों ने अपने मत दे रखे हैं तुलसीदास जो कि लोकसमन्वयकारी रचनाकार हैं ने लिखा है “पराधीन सपनेहुँ सुख नाही”।
अपने देश भारत की बात करें तो जिस तरह औपनिवेशिक सत्ता ने शोषण की मशीनरी इजात की, जिसमें अंततः भारत इकनॉमिक डेप्ट का शिकार हुआ और समाज में शोषक तथा शोषित दो तत्व उभरकर सामने आए। हतप्रभ करने का पहलू यह है कि हमारे अपने लोगों ने ही जो स्वयं इसी धरती के पुत्र थे, यही के ऑक्सीजन में पले-बढ़े उन्होंने अपने ही भाई बंधुओं को कुचलने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। राजतंत्र का नशा तथा नस्लीय श्रेष्ठता की भावना ने समाज का जो बंटवारा प्राचीन काल में किया वह आधुनिक भारत में भी बरकरार है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वर्ष 1947 के बाद देश जो विविधताओं से भरा है उन को एक सूत्र में पिरोने तथा अखंडित बनाने का प्रयास संविधान ने बखूबी निभाया और अभी भी हमारा मार्गदर्शन करता चला आ रहा है।
21वीं सदी के भारत ने विकास की कई ऊंचाइयों को छुआ है। मसलन आर्थिक उन्नति, लोगों के जीवन स्तर में सुधार , अंतर्राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं में मजबूत भागीदारी एवं विकसित देशों के समक्ष अब केवल हाथ जोड़कर नहीं खड़ा रहना तथा तकनीकी विकास जिसने भारत की ताकत का एहसास दुनिया को कराया है। हमारी आंतरिक व बाह्य कूटनीतिक क्षमता ने विश्व को लोहा मनवाया है। जिस तरह से पूरा विश्व पर्यावरण समस्याओं से जूझ रहा है जैसे ग्लोबल वार्मिंग महामारियां, एड्स व इसके साथ ही ग्लेशियरों पर जमी बर्फ का पिघलना आज ऐसे कई मानक व मूल्य हैं जहां भारत ने अपनी दावेदारी को दृढ़तापूर्वक स्थापित किया है।
कहते हैं विकास एक विस्तृत अवधारणा है जो अपने अंदर ऐसे कई आयामों को छिपाये रहता है और यह हमें अपने कार्य व्यवहार व चरित्र में प्रत्यक्ष रुप से दिखता है। यह बड़ी विडंबना का विषय है कि भारत एक संप्रभु राष्ट्र है लेकिन इसके यहां रहने वाले लोगों का एक ऐसा समाज भी रहता है जो नस्ली एवं रक्त शुद्धता के आधार पर अपने ही लोगों को सर उठाकर जीने का अधिकार छीनता है। इनमें दलित समाज, कमजोर वर्ग, पिछड़ी जातियां शामिल हैं जिन्हें अपना अस्तित्व बचाने के लिए एक बड़ा संघर्ष करना पड़ता है। कुछ आबादी तो चौमुखी सशक्त हुई लेकिन अभी भी उसके उन्नति के लिए बहुत कुछ किया जाना शेष है। भ्रूण हत्या, दहेज के लिए मार डालना, यथोचित चिकित्सा का अभाव जिसके कारण असमय काल क्वालित हो जाना तथा विभिन्न कार्यालयों, संस्थाओं में पुरुषों के समक्ष कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करना किन्तु फिर भी छेड़छाड़, छींटाकशी झेलना, शारीरिक मानसिक शोषण व स्वयं निर्णय ले पानी में अक्षम आदि ऐसी चुनौतियां हैं जो 72वीं स्वतंत्रता दिवस पर भी बनी हुई हैं। जिस तरीके से समाज में महिलाओं के साथ घटनाएं घटित हुई हैं वह निश्चित तौर पर हमें शर्मसार करती हैं। निर्भया कांड से लेकर कठुआ की घटनाओं ने भारतीय प्रगतिशील समाज के समक्ष अनेकों प्रश्न खड़े किए हैं। आज कहने को तो हम आजाद हैं किंतु कुछ ऐसे तत्व समाज में सामने आए हैं जिन्होंने हमारा खान-पान, रहन-सहन, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए निषेध करना, मॉब लिंचिंग व जटिल न्याय प्रणाली के साथ साथ सांस्कृतिक निकम्मापन, वृद्ध माता-पिता से कटती आधुनिक पीढ़ी, संपन्न संपत्ति के बंटवारे को लेकर अपने परिवार के सदस्यों की हत्या करने में पीछे ना रहना, सांप्रदायिक मनोवृति में लगातार अभिवृद्धि, संवैधानिक पदों पर रहते हुए संविधान का मखौल उड़ाना तथा गैर-जिम्मेदाराना स्टेटमेंट देना ऐसे कारक हैं जिन्होंने वर्तमान स्वतंत्रता के उल्लास को धूमिल किया है। अभी हाल में एक बड़े नेता एवं विद्वान ने भारत को हिंदू पाकिस्तान की संज्ञा दी। क्या यह उनके आंतरिक भय तथा देश की आंतरिक खामियों को नहीं दर्शाता है? इसी प्रकार संवेदनशील मुद्दों पर नेतृत्व कर्ताओं तथा मंत्रियों का एकजुट ना हो पाना और ना ही ऐसे पहलुओं का कोई सकारात्मक परिणाम देखना क्या हमारी मंशा व सोच तथा दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी को नहीं खोलता है?
बहरहाल आजादी के सच्चे मायने तभी सफल हो सकते हैं जब हमारी गौरवशाली सामाजिक संस्कृति का महत्व सभी भारतीय समझें तथा अपने जीवन में उतारने का प्रयास करें। तभी भारत जिंदाबाद, गांधी, नेहरू, पटेल अमर रहें तथा भारत माता की जय जो आज का नारा हम जोर शोर से लगाते हैं वह चरितार्थ हो सकेगा। अन्यथा हमें विखरने में कोई नहीं बचा सकता। एक लंबे संघर्ष के बलिदान के बाद हमें आजादी मिली है अतः हमारा फर्ज है कि उसको खोने न दें।
आजादी की ढ़ेरों शुभकामनाओं के साथ
जय हिंद जय भारत।
लेखक परिचय- डॉ० सईद आलम खान
स्वतंत्र लेखक एवं विचारक।