BY- RAVI BHATNAGAR
मैं हारता नहीं, बहुत बलवान हूँ।
नेतागण और जनता के भाग्य विधाता, अपने अच्छे भाग्य की गुहार मुझसे लगाते हुये ही सारे प्रयास करते हैं। दलों की दलदल में भी गोते लगाते हैं, कुछ डूबते हैं, और कुछ खिल भी उठते हैं, रंगी मौसमी फूलों की तरह।
टिक टिक का अर्थ ही टिकटिकाते रहना है, और समय को पीछे छोड़ते जाना भी। मैं ही हूँ, जो सर्वत्र हूँ, सामूहिक हूँ, और सबका ही अपना अपना व्यक्तिगत भी।
सवाल भी कौन कर पाया है मुझसे, मैं तो सिर्फ जवाब ही देता हूँ। देखा, एक ओर, कर्नाटक में, राजनीतिक दलदल में सरकार को खेल खिला रहा हूँ, नेताओं की आत्मा की आवाज़ें बन कर।
समय का कमाल ही है कि, बंगाल में, सब कुछ जंतर मंतर सा लग रहा है, जिन लोगों की जानें जाती जा रहीं हैं, क्या क़ीमत लगेगी उनकी ?
उनकी तो जात और बिरादरी भी मरने के बाद ही पता लगती है, उससे पहले तो वे, मात्र एक या दूसरे दल की भीड़ ही थे। और उधर दूसरी ओर, खेतों, खलिहानों, गांवों में, क़स्बों में , शहरों और महानगरों में सूखे का कहर बन कर बूँद बूँद तरसने का ख़ौफ फैलाये बैठा हूँ।
अभी क्या है, थोड़े समय बाद ही बारिश और बाढ़ भी संभाले नहीं संभलेगी।
कभी भी जनता या सरकारी अफसरों ने, और जनता के नुमाइंदों, या चुने हुये प्रिय नेताओं ने मुझे गंभीरता से लिया है ? ये समझते ही नहीं कि, समय की समय सीमा का न होना ही, सारे फ़सादों की जड़ है।
योजनाएं बनती ही हालातों को सुधारने के लिये हैं। पर जब सब ही अपने अपने हितों को केंद्र में रखें तो, समय ही मार खा जाता है, मैं तो रुका ही नहीं कभी, पर योजनाओं के विलंब से जनता जनार्दन तो वंचित रह ही गई, समय पर लाभ लेने से। समय की सही क़ीमत समय से आंकने का किसी के पास समय ही कहाँ रह गया है ?
मैं, भेद नहीं करता धर्म, जाति, गोरे, काले, गिरजाघर, मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, विद्दालय, अस्पताल, आस्तिक नास्तिक, सब पर एक सी नज़र रखता हूँ।
मैं किसी का संबंधी भी नहीं हूँ, बस स्वयं से ही सधा हूँ। सबने ही देखा या जाना है बाढ़, सूखा, भूकम्प, भूमि स्खलन, बादलों का फटना, सुनामी, अग्नि प्रकोप, और भी बहुत कुछ।
मैं जब कहर बनता हूँ तो धर्म,जाति के आधार पर छँटनी नहीं करता। केवल स्थान ही तय करता हूँ, समय तो अपने समय से ही आता है। भेद करने लगूँ, तो आम या खा़स इंसान में और मुझमें फर्क ही क्या रह जायेगा।
अभी हाल के लोक सभा चुनाव देखे ना, सबने। सभी चाणक्य बनते घूम रहे थे। समय को देश की सीमाओं पर रोकने की कोशिश अपना काम कर गई, और सारे मसले पिघल कर शून्य से ही दिखने लगे।
परिणाम वही आये, जो ये मानते थे, और वे नहीं, बस। पर, ज़रा सोचें, देश, की जो दशा चल रही है, और हम जिन बदतर हालातों से ग़ुज़र रहे हैं, उसमें, दूसरा दल, गठबंधन की सरकार बनाता भी, तो कर क्या लेता ? आँकड़ों में गोते ही लगाता रहता।
अब खेल फिर से समय पर आ कर ठहर गया है। अब कैसे भी वादे या इरादे हों, कमेटियां बनें, फैसले होते दिखें, चुस्ती दिखे, पर, यह सब हों समय की रफ्तार के ही दायरे में। वरना अपने देश के पिछड़ते जा रहे हालात तो हम देख ही रहे हैं।
लुभावने आँकडों से किसी की भूख प्यास कहाँ शांत होती है। इनका महत्व, केवल चाय पर चर्चा से अधिक नहीं होता। सत्ता के ही गलियारों में सिमटे लोग इन आँकड़ों से दिखते ख़याली भविष्य के नज़ारों पर ही आत्ममुग्ध हो लेते हैं।
दुनिया जानती है, पर भुलक्कड़ सी बनी रहती है। तख़्त कभी पुख़्ता नहीं होते। मुझे तो हँसी आती है, जब जीते और हारे, विशिष्ट व्यक्तियों के चेहरों पर लगभग एक सी मुसकान दिखती है। कमाल है, हार कर भी जीत का सा भाव ?
सब के सब एक ही बात करते हैं, कि ये जनता का फैसला है, सर माथे पर ही है। कमाल ही है कि, अनेकों चुनाव जीतने वालों पर सैंकडों मामले, हत्या, फौजदारी धृष्टता के साथ भ्रष्टता के भी थे, और जवाब दिया जनता ने ?
कोर्ट कचहरी में दबे मामले न जाने कितनी बरसियाँ मना चुके हैं, बहुत से तो समाधि की अवस्था में स्थिर से हैं। कानूनी व्यवस्था का कुंभकर्णी होना देश के मिज़ाज़ में शामिल हो चुका है। क़ालीन के नीचे, और अलमारियों के अंदर कौन झांकें, दिखेगा क्या, ये समझते सब हैं, पर बोले कौन ?
मेरा, सही उपयोग तो मीडिया कर रहा है। हर किसी के हथियार और औज़ार चौबीस / सात , मुँह से लगे, कब झूटे सच और कब सच्चे झूठ का पर्दाफाश कर दें।
कैमरे, कब हैलिकॅाप्टर से सूखे की स्थितियों को दिखाते दिखाते, एक दो हत्याओं व बलात्कारी ख़बरें कवर करते हुये, दो फौजी और तीन आतंकवादी की मौत पर बहस चलाते चलाते, रायसीना हिल्स के किसी विशेष कार्यक्रम में दर्शकों की शिरक़त करवा दें।
ये तो पूरे जोश में, हर समय चौकस रहते हैं, न जाने कब किसी के चरित्र को डुबोने या संवारने की ज़िम्मेदारी उठानी पड़ जाये। टीआरपी की भूख से तड़पते इन प्राणियों की भूख शांत ही नहीं होती। की कराँ, पेट्रोल खतम ई नईं हुंदा वाली तर्ज़ पर, सबके साथ, चौबीस बाई साथ।
मैं बलवान तो रहा पर नाकामयाब मानता हूँ स्वयं को। इस देश के दीन दुखियों के हालात, मेरे बस में रहे ही नहीं।
मैं, भृष्ट, लापरवाह राजनीतिक बिरादरी और उनके सरकारी अमले की जुगलबंदी से उत्पीड़ित होती हुई जनता को दलदल में धँसता हुआ, बस टकटकी सी लगाये देखता रहा।
उनका समय बदल ही नहीं पाया। मैंने अपने को अक्षम पाया, लुटा हुआ पाया और, मैं हार गया।”
रवि भटनागर
गुड़गांव
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