BY- THE FIRE TEAM
विगत दिनों में जिस कदर देश के कई हिस्सों में आपराधिक घटनाएँ घटी हैं, वह व्यवस्था के समक्ष अनेक प्रश्न खड़े करती हैं.
आपको बता दें कि- वर्तमान बीजेपी सरकार ने 2014 के लोकसभा चुनाव के समय एक नारा दिया था- सबका साथ, सबका विकास लेकिन चाहे गुजरात, मध्य प्रदेश हो या राजस्थान.
हर जगह दलितों पर इतने अमानवीय अत्याचार हुए हैं जिसने सरकार की कार्यप्रणाली को घेरा है और लगातार कटघरे में खड़ा कर रही हैं. कमोबेश सरकार की प्रायोजित योजनाओं ने भी दलितों के विश्वास को डगमगाया है.
जैसे – आरक्षण के संबंध में सरकार की मंशा, रोस्टर प्रणाली का लागु किया जाना, दलितों के स्कॉलरशिप को घटाना, निरन्तर शासन-प्रशासन में उनको हांसिय पर ढकेलना आदि.
कहने का अर्थ यह है कि दलितों के विश्वास को सरकार जीतने में नाकामयाब रही है, हालाँकि सरकार 2019 के लोकसभा चुनाव में पुनः प्रचंड बहुमत से दुबारा अस्तित्व में आई है और अब तो उसने अपने घोषणापत्र को भी अपडेट किया है.
मसलन- सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास
अलग-अलग विश्लेष्कों ने घटनाओं की समीक्षा करके बताया है कि आज भारत इक्कीसवीं सदी में पहुँच चुका है किन्तु वर्णवयवस्था के पुरोधा अपनी दकियानूसी सोच से बाहर नहीं आ पा रहे हैं.
तभी तो वे कभी उनकी हत्या, महिलाओं के साथ बलात्कार, धमकी जैसी घटनाएं अंजाम देने में पीछे नहीं हटते. पिछले एक दशक की अगर बात करें तो दलित समाज को कड़े उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है,
जिसकी पुष्टि एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो) की रिपोर्ट से भी होती है. इस रिपोर्ट ने चौंकाने वाले खुलासे किए हैं जिसके अंतर्गत पिछले दशक 2007-2017 के मध्य 86 प्रतिशत का इजाफा दलितों के उत्पीड़न में हुआ है.
दलितों के विरुद्ध होने वाले अत्याचार और आपराधिक घटनाएँ सिर्फ कानून का ही माखौल नहीं उड़ाते बल्कि संविधान के सामने भी चुनौती साबित हो रहे हैं.
इनसे यह पता चलता है कि हम आज भी जाति, वर्ण और लिंग के भेदभाव वाले समाज में रह रहे हैं, यद्यपि सामाजिक विश्लेषक अन्य कारणों को भी जिम्मेदार ठहराते हैं और राजनीतिक तथा परम्परागत नियमों के बीच जाकर इसकी पड़ताल करते हैं.
उनका मानना है कि समाज में दलितों, आदिवासियों और महिलाओं को हमेशा पुरुष वर्ग ने दोयम दर्जे का नागरिक माना है. यही वजह है कि संविधान द्वारा इन वर्गों के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाएं तो बनाई गईं.
किन्तु जिन रूपों में उन्हें स्थापित होना चाहिए था, वह वास्तविक धरातल पर नहीं आ सकीं. हम तब तक इन समस्याओं से पार नहीं आ सकते जब तक अपनी सोच को मानव केंद्रित होकर उसे व्यावहारिक रूप न दे दें.
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