क्या कांग्रेस महाधिवेशन से 2019 की नैया पार कर पाएगी?

2014 के लोकसभा चुनाव के पश्चात देश में केवल और केवल बीजेपी पार्टी ही नजर आ रही है खासकर उत्तर भारत में। जब भी किसी राज्य में चुनाव होते हैं तो  हमारे प्रधानमंत्री की रैलियों से वहाँ का पूरा वातावरण एक रंगीन माहौल में तब्दील हो जाता है। इस रंगीन माहौल को चुनाव परिणाम आने के पश्चात डिजिटल मीडिया और भी शानदार बना देता है। कई सारे टीवी एंकर बहस का एक तड़का भरा प्रोग्राम लेकर आ जाते हैं। एक घंटे रूपी इस धारावाहिक  प्रोग्राम में खूब शोर शराबा करते हैं। घर का बुजुर्ग चाय की चुस्की के साथ अपने को सक्रिय राजनीति में महसूस करता हुआ पाता है। और यदि इस समय घर की किसी महिला सदस्य का धारावाहिक प्रोग्राम प्रसारित हो रहा हो तो पूरी सक्रिय राजनीति घर की चारदीवारी में ही प्रारंभ हो जाती है। हाल ही में हुए उत्तर पूर्वी क्षेत्र के चुनाव नतीजों को लेकर जब टीवी शो पर जंग छिड़ी तब धारावाहिक प्रोग्राम लेकर आए एंकर साहब बड़े ही प्यार से भारत के नक्शे को एक रंगीन रूप में समाहित करने का प्रयास कर रहे थे। वह साहब बता रहे थे कि कितना क्षेत्र बीजेपी पार्टी के अधीन आ गया है? कितनी जनसंख्या पर अब वह शासन कर रही है ? और आने वाले समय में क्या कुछ बदलाव होने वाला है? बहरहाल जो भी हो परंतु यह धारावाहिक प्रोग्राम हमको देश की सक्रिय राजनीति में होने का ऐहसास अवश्य दिला देता है। इसी धारावाहिक प्रोग्राम को देखते देखते अचानक मस्तिष्क में इतिहास को लेकर एक गंभीर प्रश्न घूमने लगा। इस इतिहास के कुछ पन्ने पलटने पर पता चलता है कि क्षेत्रीय शासक किस प्रकार से अपनी सीमाएं निर्धारित करते थे। नदी के इस पार वाले क्षेत्र पर इनका शासन, नदी के उस पार वाले क्षेत्र पर उनका शासन वाली भावना मन की गहराइयों में भरी हुई थी। अब प्रश यह है कि हम तब और अब में कितना बदलाव ला पाए हैं? क्या हम वास्तव में लोकतंत्र को अपना पाए हैं? क्या हम तब की साम्राज्यवादी नीति से बाहर निकल पाए हैं? बहरहाल बदलाव कितना हुआ या न हुआ यह अलग बात परन्तु टीवी के एंकर साहब का तो शुक्रिया बनता ही है कि उन्होंने हमको पुरानी व्यवस्था का सजीव एहसास दिला दिया।

 

   अब बात साम्राज्यवाद की चल ही रही है तो भला कांग्रेस को कैसे भुलाया जा सकता है। देश को दिशा प्रदान करने वाली पार्टी आज अपने ही अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रही है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी महाअधिवेशन करके कांग्रेस को एक नई धार प्रदान करने का प्रयास कर रहे हैं। परंतु क्या केवल महाअधिवेशन करके कांग्रेस पार्टी 2019 का लोकसभा चुनाव जीत पाएगी? यह प्रश्न ऐसा है कि हम खाली पेन से पूरा पेपर लिखने का प्रयास कर रहे हों। इसको ऐसे समझ सकते हैं कि उत्तर प्रदेश जैसा राज्य जो कि 80 लोकसभा की सीटें अपने में समेटे हुए है वहां हुए उपचुनाव में महज कुछ हजार वोट पाकर कांग्रेस कैसे अपने आप को प्रतियोगिता में आगे बढ़ा सकती है। केवल कांग्रेस ही नहीं यह उपचुनाव भारतीय जनता पार्टी को भी सोचने पर मजबूर कर रहा है। असल में उत्तर प्रदेश राज्य में जातीय समीकरण एक मजबूत वोट बैंक तैयार कर देते हैं। इस जाति समीकरण का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी जोकि अपने हिंदुत्व एजेंडे से देश के अलग-अलग चुनावों में परचम लहरा रही है, वह भी यहां सूखे तालाब में डूब गई। अब जबकि जाति समीकरण इतने मजबूत हैं तो फिर कांग्रेस कहां तक छेद वाली नौका से दरिया पार कर पाएगी। जाहिर है कांग्रेस को एक मजबूत गठबंधन के साथ 2019 में मैदान में उतरने की आवश्यकता है। जाति समीकरण के साथ-साथ कांग्रेस को एक मजबूत विपक्ष के रूप में अभी से जनता के सामने आना होगा। बेरोजगारी से लेकर किसान आत्महत्या जैसे मुद्दों को केवल ऑफिस मैं बैठकर ट्विटर के माध्यम से उठाने से काम नहीं चलेगा इसके लिये जमीन पर उतरना होगा। राहुल गांधी को यदि वास्तव में अपनी छवि को बेहतर बनाना है तो उन्हें ब्रिटेन के क्रॉमवेल जैसा बनना होगा। दरसल आधुनिक जनतंत्र के जनक ब्रिटेन में एक समय नेताओं का भ्रष्टाचार अपने चरम पर था। क्रॉमवेल को इन भ्रष्ट सांसदों और राजतंत्र वादियों के प्रभाव को रोकने में अपार सफलता प्राप्त हुई थी। अप्रैल 1653 को उन्होंने सांसदों को खरी-खोटी सुनाते हुए एक प्रभावी भाषण दिया उन्होंने कहा “मैं क्यों आपको इस संसद में बैठने दूं? आप इस योग्य नहीं हैं कि इस स्थान की गरिमा को समझ सकें।”

Leave a Comment

Translate »
error: Content is protected !!