क्या मनुष्य का प्रकृति के साथ बार-बार खिलवाड़ ही महामारी का कारण है?


BY-ZAHEER HASHMI


मनुष्य का इतिहास रहा है कि वह जीवन के प्रारम्भ से ही प्रकृति की गोद में पला, खेला और बड़ा हुआ तथा प्रकृति ने भी उसे भरपूर मौका दिया जब तक मानव उसके साथ संतुलन बनाए रखा

किन्तु जैसे ही मनुष्य आवश्यकता से अधिक उसका दोहन करने लगा यानि प्रकृति के अस्तित्व को चुनौती देना प्रारंभ किया वैसे इनके बीच असंतुलन की खाई पनपी जिसका बदला किसी न किसी रूप में प्रकृति ने लिया है.

हालाँकि भारत शुरू से ही ऋषि, मुनियों का देश रहा है तथा हमारे यहां प्रकृति की पूजा पेड़, पौधे, चरिंद, परिंद,धरती को अनेक रूपों में पूजा जाता रहा है, इससे संतुलन सदैव बना रहता था.

लेकिन आज का मानव विकास की अंधी दौड़ में समूल प्रकृति को नाश करने में लगा हुआ है, प्रकृति पर नियंत्रण करना शुरू कर दिया है. जैसे- वर्षा न होने पर कृत्रिम वर्षा करा लेना, क्लोनिंग के माध्यम से नए जीव की उत्पत्ति

मानव जीन में हस्त्क्षेप, जंगल काट डाले, नदियां दूषित कर दी, हवा ज़हरीली कर दी, जिसका परिणाम हम समय-समय पर अनेक महामारी के रूप में देखते आए हैं.

हैजा ,प्लेग, चेचक, खसरा, बर्ड फ्लू, स्वाइनफ्लू, सार्स के कीटाणु और अब कोराना के रूप में एक नई महामारी को जन्म दिया जो कि अपने अस्तित्व के साथ-साथ जानवरो के जीवन को भी खतरे में डाल दिया है.

अभी कुछ दिनों पहले ऑस्ट्रेलिया में लगी आग ने न जाने कितने जीव-जंतुओं का खात्मा कर दिया. ब्राज़ील में वनों की कटाई से हजारों ऐसे जोवों का सामना मानव से हो रहा है जिसका संपर्क आज तक मानव से नहीं हुआ था.

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रेगिस्तान में बाढ़, वर्ष भर हरा-भरा रहने वाले स्थानों पर सूखा का कहर ये सब घटनाएं यही दर्शाती हैं कि मानव ने प्रकृति को बहुत नुकसान किया है. आज मानव इस स्तिथि में है कि सड़कें, मॉल, रेस्टुरेंट, सिनेमा हाल सब वीरान हैं. जंगल आज़ाद हैं , जंगली जीव घूम रहे हैं, जानवर का सड़कों पर बसेरा है और इंसान घर ने दुबका है.

वर्तमान स्थिति को देखते हुए कालिदास का वो दृश्य याद आता है कि जिस डाल पर बैठे हैं, उसे है काट रहे हैं. भौतिकतावादी और विलासिता पूर्ण जीवन की तलाश में विकसित देशों ने निरन्तर प्रकृति में इतना हस्त्क्षेप किया जिसका परिणाम यह हुआ कि पूरा पर्यावरण स्थिर हो चुका है और अब सारा भार पिछड़े और गरीब देशों को भुगतना पड़ रहा है.

भारत और चीन में पर्यावरण से इतना अधिक छेड़ छाड़ हो चुका है कि पर्यावरण से न्याय यहां बेईमानी नजर आती है तथा विश्व के सबसे प्रदूषित 20 शहरों में 13 भारत में ही हैं. नदियां इतनी गन्दी हो चुकी हैं कि उनका पानी पीने योग्य नहीं बचा है, दिल्ली में हवा इतनी ज़हरीली है कि सांस लेना दूभर है.

सवाल ये है इसका जिम्मेदार कौन है ? जब भारत के लगभग 70% संसाधनों पर 1% लोगो का कब्ज़ा है।  क्या पर्यावरण प्रदुषण के असल जिम्मेदार यही लोग हैं जो दुनिया में सारे सुख सुविधाओं से संपन्न हैं.?

किसानों, आदिवासी समुदायों की ज़मीन को खरीद कर उनको अपने आवास से पलायन कराने वाले यही लोग हैं, जो उनके जीवन के सम्मुख खतरा बना डाला है.

आज हम आसमान तक अपनी उपलब्धियों के बल पर इतरा सकते हैं, टेक्नोलॉजी और आविष्कार के दम पर किसी भी देश को मिनटों में धूल चटा सकते हैं, साइंस की बदौलत हम कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन आज हम आंख से न दिखने वाले वायरस से इतने भयभीत हैं कि उसका मुकाबला करने में असहज हैं.

सड़कों का ये सन्नाटा बता रहा है की इंसानों ने कुदरत को बहुत नाराज़ किया है, प्रकृति के हजारों राज हैं जो अनसुलझे हैं, हमें प्रकृति को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए और प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखने की जरूरत है.

इसी में हमारी भलाई है, हमे यह कत्तई नहीं भूलना चाहिए कि आज की मशीनी सभ्यता से पहले भी कितनी उन्नत सभ्यताएं इसी धरती में समा चुकी हैं.

( ये लेखक के निजी विचार हैं तथा इससे पोर्टल का कोई संबंध नहीं है )

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