भारत में निजीकरण की हिमायती सरकारों को एक बार ब्रिटेन का उदाहरण देखना चाहिए

(यूनिवर्सिटी ऑफ हार्टफोर्डशर में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हूल्या डेगडिविरेन की रिपोर्ट पर आधारित श्रवण कुमार कुशवाहा का लेख)

भारत में निजीकरण को अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी बूटी कहा जा रहा है लेकिन, इस नीति के अगुवा रहे ब्रिटेन की जनता का इससे मोहभंग होने लगा है. भारत ने 1991-92 के बाद उदारवादी अर्थव्यवस्था की ओर तेजी से कदम बढ़ाए हैं. इस बीच कई सरकारी उद्योगों का आंशिक या पूर्ण निजीकरण किया गया.

इस समय रेलवे जैसी सबसे बड़ी सरकारी सेवा के भी निजीकरण का काम तेजी से आगे बढ़ रहा है लेकिन जिन विकसित देशों की राह पर चलकर हमारे यहां निजीकरण का चलन शुरू हुआ उन्हीं में से एक ब्रिटेन में अब इसके उलट राय बन रही है.

पिछले दिनों ब्रिटेन में लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कॉर्बिन ने ब्रिटिश रेलवे का फिर से राष्ट्रीयकरण करने की संभावना टटोलने की बात कही थी. फिर देश के बिजली क्षेत्र के बारे में भी उन्होंने यही राय जताई तो उनका यह कहकर विरोध किया गया कि वे अतीत में वापस लौटने की बात कर रहे हैं.

हालांकि यह सिर्फ उनकी राय नहीं है बल्कि ब्रिटेन की बहुसंख्यक आबादी आज कुछ इसी तरह से सोचती है. यूगवपोल्स (योर गवर्नमेंट पोल्स) के एक सर्वे के मुताबिक 66 फीसदी आबादी रेलवे और 68 फीसदी आबादी बिजली क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण का समर्थन करती है.

1980 के दशक के अंत से ब्रिटिश मतदाता चार बार कंजरवेटिव पार्टी को जिता चुके हैं. यह पार्टी निजीकरण की भारी समर्थक है और इसके इतनी बार चुने जाने का मतलब है कि जनता निजीकरण के समर्थन में थी लेकिन अब वह इसके विरोध में क्यों आ रही है?

निजीकरण के पीछे अपने कुछ तर्क थे…

  • निजीकरण एक विचारधारा से प्रेरित कार्यक्रम था जिसके तहत निजी क्षेत्र और वित्त बाजार के जरिए जन सुविधाओं के सामने आने वाली दिक्कतों का समाधान निकालने की बात कही गई थी. जिस प्रकार आज भारत में कहा जा रहा है.
  • इस सोच के पीछे सीधा-सादा तर्क था: निजी लाभ और प्रतिस्पर्धा की भावना से सुविधाएं बेहतर होंगी. बाद के समय में ब्रिटेन में चाहे कंजरवेटिव पार्टी की सरकार बनी हो या लेबर पार्टी की, सबने इस आर्थिक नीति को प्रोत्साहन दिया. जैसे- भारत में कांग्रेस और बीजेपी दोनों सरकारों ने इसे आगे बढ़ाया है.
  • ब्रिटेन में निजीकरण की पृष्ठभूमि 1980-90 के दशक में तैयार हो गई थी, तब अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती से सरकारी क्षेत्र की जनसेवाएं भी प्रभावित हुईं. इनकी वित्तीय स्थिति बिगड़ने लगी, निजीकरण के पक्ष में यह आदर्श स्थिति थी, आज वही स्थिति भारत में पैदा कर दी गयी है जिसमें सरकारों और पूंजीपतियों का सीधा-सीधा हाथ है.
  • उस समय आमराय थी कि सरकारी प्रतिष्ठानों से सिर्फ नौकरशाहों को फायदा हुआ है और इससे संसाधनों का कुशलता पूर्वक उपयोग नहीं हो पा रहा है. निजीकरण का समर्थन इसलिए किया जा रहा था ताकि करदाताओं पर कम दबाव पड़े और ये क्षेत्र ज्यादा प्रतिस्पर्धी और सक्षम बनते हुए ‘ग्राहकों’ को बेहतर सुविधाएं दे सकें लेकिन परिणाम इसके विपरीत आये हैं.

निजीकरण के लिए नव उदारवादी विचारों के पक्ष में गढ़े गए तर्कों की सच्चाई बीते दो दशकों के अध्ययनों से साफ हुई है. निजीकरण सरकारी सुविधाओं की बेहतरी के लिए रामबाण उपाय है, यह मिथक भी इनसे धराशायी हुआ.

बिजली क्षेत्र की बात करें तो ब्रिटेन में घरेलू बिजली की औसत कीमत ओईसीडी देशों (विकसित और विकासशील देशों का एक संगठन) से ज्यादा है। जो निजीकरण का ही परिणाम है.

कुछ क्षेत्रों, जैसे बिजली क्षेत्र का उदाहरण लें तो ब्रिटेन में निजीकरण के कारण कुछ समयावधि के लिए सुधार जरूर देखा गया लेकिन लंबी समयावधि में इस क्षेत्र के प्रदर्शन से साफ हुआ कि आम लोगों को बेहतर सुविधाएं नहीं मिल रही हैं. लोगों के लिए बिजली महंगी हो गई लेकिन सुविधा खराब हुई या पहले जैसी बनी रही.

कामगार संगठनों की एक परिषद टीयूसी ने ब्रिटिश रेलवे में मुसाफिरों के किराए से जुड़ा एक अध्ययन करवाया था इससे पता चलता है कि चेम्सफोर्ड से एसेक्स होते हुए लंदन तक की 35 मिनट की रेल यात्रा का मासिक टिकट 358 पौंड का होता है. जबकि इटली में इतनी ही यात्रा के लिए 37, स्पेन में 56, जर्मनी में 95 और फ्रांस में आपको 234 पौंड चुकाने होते हैं.

इन सभी देशों में रेलवे का बड़ा हिस्सा सरकार द्वारा संचालित है. निजी क्षेत्र को सुरक्षित, नियमित और अच्छी सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए भारी निवेश की जरूरत होती है और उसके लिए यह हमेशा चुनौतीभरा होता है. वहीं यदि कोई दुर्घटना हो जाए तो

सरकारी प्रतिष्ठान पर दबाव बनाया जाता है कि वे निजी क्षेत्र के नुकसान की भरपाई में मदद दें। ऐसा लगता है कि निजी क्षेत्र मुनाफा तो हर तरह से कमाना चाहता है लेकिन उससे जुड़ा जोखिम नहीं उठाना चाहता.

निजी क्षेत्र जब बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ती का जिम्मा उठाता है तो उसके लिए सामाजिक लक्ष्य हासिल करना कोई जिम्मेदारी नहीं होती बल्कि वह इनसे मुनाफा कमाना चाहता है.

रेलवे और बिजली क्षेत्र में निजीकरण की असफलता से यदि जनता की राय में बदलाव आया है तो स्वास्थ्य क्षेत्र को देखकर वह और पुख्ता हो सकता है. ब्रिटेन में प्राइवेट फायनेंस इनिशिएटिव (पीएफआई) संस्था काम करती है. यह निजी क्षेत्र की पूंजी को सरकारी प्रतिष्ठानों में निवेश करती हैं.

ब्रिटेन में यह प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप का जरिया है. पीएफआई सरकारी स्वास्थ्य संस्थानों को कम समयावधि के लिए ऋण उपलब्ध करवाते हैं लेकिन उनसे सालाना एक राशि (इसे ऋण वापसी की किस्त की तरह समझा जा सकता है।) वसूलते हैं और यह लंबे समय तक चलता है.

ब्रिटेन के नेशनल ऑडिट ऑफिस के हालिया आंकड़ों के मुताबिक स्वास्थ्य विभाग की जिन परियोजनाओं 11 अरब पौंड की रकम दी गई है, इन परियोजनाओं के अंत तक सरकारी प्रतिष्ठान पीएफआई को 80 अरब पौंड की रकम वापस करेंगे.

निजीकरण को लेकर ये सिर्फ ब्रिटेन की समस्याएं नहीं हैं, अध्ययन बताते हैं कि दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी ऐसा ही है. यूनिवर्सिटी ऑफ हार्टफोर्डशर बिजनेस स्कूल का एक अध्ययन बताता है कि विकासशील देशों में पानी और साफ-सफाई से जुड़े क्षेत्र में निजीकरण के भी यही नतीजे सामने आ रहे हैं.

इसका सबसे बड़ा उदाहरण है अर्जेंटीना यहां सरकार अब पानी की आपूर्ति से जुड़ी बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ठेके रद्द कर रही है. स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली, परिवहन और पानी बुनियादी आवश्यकताएं हैं और ये पूरे समाज के विकास से सीधे-सीधे जुड़ी हैं.

निजी क्षेत्र जब इन आवश्यकताओं की पूर्ती का जिम्मा उठाता है तो उसके लिए सामाजिक लक्ष्य हासिल करना कोई जिम्मेदारी नहीं होती बल्कि वह इससे मुनाफा कमाना चाहता है. अब ये बातें और साफ हो रही हैं. निजीकरण के जिन तर्कों से जनता अब तक सहमत होती आई है और उनके हिसाब से वोट भी देती रही है, बहुत संभावना है कि अब वह इन्हें नकारने के लिए वोट दे.

 

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