सरकार कह रही है कि हम मंडियों में सुधार के लिए यह कानून लेकर आ रहे हैं लेकिन, सच तो यह है कि कानून में कहीं भी मंडियों की समस्याओं के सुधार का जिक्र तक नहीं है.
हर बदलाव को सुधार नहीं कहा जा सकता है कुछ विनाश का कारण भी बन सकते है. देश ने ऐतिहासिक सुधार के नाम पर नोटबंदी को झेला और भयावह परिणाम देखने को मिले.
इस एक कदम से लाखों नौकरियां और सैकड़ों जिंदगियां खत्म हो गईं. जीएसटी को भारत की आर्थिक आजादी के रूप में दिखाया गया, दो फीसदी जीडीपी बढ़ाने का दावा किया गया.
जीएसटी आधी रात में आ तो गया लेकिन, कभी जीडीपी को ऊपर नहीं बढ़ा पाया. अलग से अर्थव्यवस्था को और नीचे लेकर चला गया. कोविड-19 से लड़ने के नाम पर पूरे देश में महज 4 घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन किया गया.
21 दिन की अभूतपूर्व लड़ाई बताई गई. कोरोना तो खत्म नहीं हुआ. लेकिन, हजारों प्रवासी मजदूरों की जिंदगियां देश की सड़कों पर खत्म हो गईं, लाखों नौकरियां चली गईं, अर्थव्यवस्था निगेटिव हो गई.
अब इतिहास बनाने के नाम पर किसानों को चुना गया है. सदन में तमाम हो-हल्ले के बीच किसानों की नई आर्थिक आजादी की कहानी लिखी जा चुकी है.
एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने द्वारा लाए गए सुधारों को नई आजादी के रूप में प्रचारित किया है. लेकिन, सच कितना है, इसे लेकर कई सवाल हैं.
संसद ने किसानों के लिए 3 नए कानून बनाए हैं.
पहला है ”कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020”- इसमें सरकार कह रही है कि वह किसानों की उपज को बेचने के लिए विकल्प को बढ़ाना चाहती है. किसान इस कानून के जरिये अब एपीएमसी मंडियों के बाहर भी अपनी उपज को ऊंचे दामों पर बेच पाएंगे.
निजी खरीदारों से बेहतर दाम प्राप्त कर पाएंगे लेकिन, सरकार ने इस कानून के जरिये एपीएमसी मंडियों को एक सीमा में बांध दिया है. इसके जरिये बड़े कॉरपोरेट खरीदारों को खुली छूट दी गई है. बिना किसी पंजीकरण और बिना किसी कानून के दायरे में आए हुए वे किसानों की उपज खरीद-बेच सकते हैं.
क्या होगा असर?
यही खुली छूट आने वाले वक्त में एपीएमसी मंडियों की प्रासंगिकता को समाप्त कर देगी. एपीएमसी मंडी के बाहर नए बाजार पर पाबंदियां नहीं हैं और न ही कोई निगरानी.
सरकार को अब बाजार में कारोबारियों के लेनदेन, कीमत और खरीद की मात्रा की जानकारी नहीं होगी. इससे खुद सरकार का नुकसान है कि वह बाजार में दखल करने के लिए कभी भी जरूरी जानकारी प्राप्त नहीं कर पाएगी.
इस कानून से एक बाजार की परिकल्पना भी झूठी बताई जा रही है. यह कानून तो दो बाजारों की परिकल्पना को जन्म देगा. एक एपीएमसी बाजार और दूसरा खुला बाजार. दोनों के अपने नियम होंगे. खुला बाजार टैक्स के दायरे से बाहर होगा.
सरकार कह रही है कि हम मंडियों में सुधार के लिए यह कानून लेकर आ रहे हैं. लेकिन, सच तो यह है कि कानून में कहीं भी मंडियों की समस्याओं के सुधार का जिक्र तक नहीं है.
यह तर्क और तथ्य बिल्कुल सही है कि मंडी में पांच आढ़ती मिलकर किसान की फसल तय करते थे. किसानों को परेशानी होती थी. लेकिन कानूनों में कहीं भी इस व्यवस्था को तो ठीक करने की बात ही नहीं कही गई है.
मंडी व्यवस्था में कमियां थीं. बिल्कुल ठीक तर्क है. किसान भी कह रहे हैं कि कमियां हैं तो ठीक कीजिए. मंडियों में किसान इंतजार इसलिए भी करता है क्योंकि पर्याप्त संख्या में मंडियां नहीं हैं.
आप नई मंडियां बनाएं. नियम के अनुसार, हर 5 किमी के रेडियस में एक मंडी. अभी वर्तमान में देश में कुल 7000 मंडियां हैं, लेकिन जरूरत 42000 मंडियों की है.
आप इनका निर्माण करें. कम से कम हर किसान की पहुंच तक एक मंडी तो बना दें. संसद में भी तो लाखों कमियां हैं. क्या सुधार के नाम पर वहां भी एक समानांतर निजी संसद बनाई जा सकती है? फिर किसानों के साथ क्यों?
क्या जिम्मेदारी से बचना चाहती है सरकार?
आज सरकार अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है. कृषि सुधार के नाम पर किसानों को निजी बाजार के हवाले कर रही है. हाल ही में देश के बड़े पूंजीपतियों ने रीटेल ट्रेड में आने के लिए कंपनियों का अधिग्रहण किया है.
सबको पता है कि पूंजी से भरे ये लोग एक समानांतर मजबूत बाजार खड़ा कर देंगे. बची हुई मंडियां इनके प्रभाव के आगे खत्म होने लगेंगी. ठीक वैसे ही जैसे मजबूत निजी टेलीकॉम कंपनियों के आगे बीएसएनल समाप्त हो गई.
इसके साथ ही एमएसपी की पूरी व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी. कारण है कि मंडियां ही एमएसपी को सुनिश्चित करती हैं. फिर किसान औने-पौने दाम पर फसल बेचेगा.
सरकार बंधन से मुक्त हो जाएगी, ठीक वैसे ही जैसे बिहार की सरकार किसानों के प्रति अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गई है. वर्ष 2020 में बिहार में गेहूं के कुल उत्पादन का 1% ही सरकारी खरीद हो पाई.
बिहार में यही एपीएमसी कानून तो 2006 में ही खत्म किया गया था. सबसे कम कृषि आयों वाले राज्य में आज बिहार अग्रणी है. लेकिन आज यही कानून पूरे देश के लिए क्रांतिकारी बताया जा रहा है. कोई एक सफल उदाहरण नहीं है जहां खुले बाजारों ने किसानों को अमीर बनाया हो.
(to be continued…..)