हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्र और डॉक्टर अंबेडकर: परिनिर्वाण दिवस पर विशेष लेख

देश के करोड़ों उपेक्षित तथा वंचित लोगों को संगठित करने तथा उन्हें भी व्यक्ति होने का एहसास कराने के लिए डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने समता, समानता और बंधुत्व के जिन मूल्यों को संविधान का हिस्सा बनाया उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है.

किंतु बदलते समय के साथ डॉक्टर अंबेडकर को संघ के हिंदुत्ववादी शक्तियों ने उनकी छवि को सदैव धूमिल करने का कार्य किया. यह एक किस्म का वैचारिक गुस्सा से कहा जाएगा कि-

बाबा साहब जैसे हिंदुत्व विरोधी और प्रगतिशील लोकतांत्रिक विचारक तथा नेता को हिंदुत्व के खांचे में समाहित करने का प्रयास किया जाए, क्योंकि जब हम अंबेडकर के लेखन और उनकी स्थापना से होकर गुजरते हैं

तो यह पाते हैं कि- उन्होंने हिंदू धर्म हिंदुत्व की राजनीति और हिंदू राष्ट्र की अवधारणा का मुख्य रूप से विरोध किया. दरअसल अंबेडकर हिंदू धर्म को धर्म ही मानने के लिए तैयार नहीं है.

वे इसे कभी भी वर्ण व्यवस्था से अलग कुछ भी नहीं माने क्योंकि इसका एकमात्र आधार जाति व्यवस्था है और जाति व्यवस्था समाप्त होते ही हिंदू धर्म का अस्तित्व नहीं रहेगा.

उन्होंने अपने प्रसिद्ध लेख ‘जाति प्रथा उन्मूलन’ में लिखा है कि सबसे पहले हमें यह समझना महत्वपूर्ण होगा कि हिंदू समाज एक मात्र है हिंदू नाम स्वयं में विदेशी है यह नाम मुसलमानों ने भारतवासियों को दिया था ताकि उन्हें अपने से अलग कर सकें.

मुसलमानों के भारत पर आक्रमण से पहले लिखे गए किसी भी संस्कृत ग्रंथ में इस नाम का कोई उल्लेख ही नहीं मिलता है. उन्हें अपने लिए किसी सामान की जरूरत महसूस नहीं हुई थी क्योंकि उन्हें ऐसा लगता था कि वह किसी विशेष समुदाय के प्रत्येक जाति अपने अस्तित्व से परिचित है.

वह अपने सभी समुदाय में व्याप्त है तथा सबको स्वयं में समाविष्ट किए हुए और इसी में उसका अस्तित्व है. अगर संघ का विश्लेषण किया जाए तो पता चलता है कि उसमें भी जातियों का कोई मिलाजुला रूप नहीं है.

सिर्फ जातियों को उस समय एहसास होता है कि वे एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं जब हिंदू-मुस्लिम दंगे होते हैं. हिंदू राष्ट्र की अवधारणा के तहत दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों का स्थान वर्ण व्यवस्था के अनुक्रम में निचले पायदान पर है.

उन्हें शिक्षा, रोजगार, सम्मान और अधिकारों से वंचित श्रेणी में रखा गया है किंतु हिंदुत्ववादी फासीवाद के तहत व्यापक हिंदू एकता के नारे के अंतर्गत मुसलमानों के खिलाफ इन्हें गोलबंद किया जाता है.

अंबेडकर ने तो यहां तक कहा कि हिंदू जैसे धर्म कहते हैं वह कुछ और नहीं केवल आदेशों तथा निषेधाज्ञाओं का पुलिंदा है, कानून की संहिता की अगर बात करें तो इसकी सबसे बड़ी बुराई यह है कि

इसमें व्यक्ति के नैतिक, जीवन को स्वतंत्रता तथा सुरक्षा से वर्जित करती है. इसमें वर्णित कानून कल, आज और हमेशा के लिए एक ही है. हिंदू राज के खतरे को रोकने के लिए बाबा साहब ने

भारतीय लोकतंत्र में सांप्रदायिक आधार पर किसी भी राजनीतिक पार्टी के गठन पर रोक लगाने की बात कही. उनका कहना था कि अगर अल्पसंख्यक समुदाय अपने धर्म के आधार पर किसी राजनीतिक पार्टी का गठन करेंगे

Goebbelsian Doublespeak: B. R. Ambedkar and the RSS – LOKAYAT

तो बहुसंख्या अस्मिता भी ऐसा करेगी और इस प्रकार बहुसंख्यक संप्रदायिकता के हावी हो जाने का खतरा उत्पन्न रहेगा. वर्तमान भारत में जिस तरीके से हिंदुत्व के ठेकेदार रोज नई नई संहिताएं जैसे खान-पान, वेशभूषा,

शिक्षा, संस्कृति, प्रेम और विवाह आदि तमाम अध्यादेशीय घोषणाएं जारी कर रहे हैं, जो बदलते वैश्विक परिवेश में फिट नहीं बैठता है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उन्हें स्वीकार न करने वाला इन कथित राष्ट्र भक्तों के

द्वारा देशद्रोही धर्म द्रोही करार दिया जा रहा है. डॉक्टर अंबेडकर के विचारों का मूल सरोकार एक जनतांत्रिक समाज का निर्माण करना है. यही वजह है कि

उन्होंने हिंदू धर्म के आध्यात्मिकता तथा उसके राजनीति पर आधारित हिंदुत्व के खतरों के प्रति आगाह किया था जो आज भारत में प्रासंगिक हो गई है.

जरूरत इस बात की है कि हम बाबा साहब की चेतावनीयों को याद करें तथा बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के उन्माद को रोकने के लिए कटिबद्ध हो तभी भारतीय लोकतंत्र को बचाया जा सकेगा.

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