(इंजि0 जगमोहन निषाद की कलम से)
मैं एक बात नहीं समझ पा रहा हूं कि पहले की सरकारों में 1962, 1965, 1971 की भीषण लड़ाईयाँ हुईं, पोलियो, प्लेग, हैजा, टीबी जैसी महामारियाँ भी आई जिनका मुफ्त में इलाज हुआ, मुफ्त में पूरे देश का टीकाकरण हुआ.
खरबों का घोटाला भी हुआ, काला धन विदेशों में भेजा गया, भ्रष्टाचार भी खूब व्याप्त रहा, फिर भी बहुत सारे सरकारी कारखाने व कंपनियां स्थापित हुईं,
सरकारी अस्पताल, सरकारी कॉलेज, सरकारी स्कूल बनें, सरकारी नौकरियों में कोई कमी नहीं रही, यहाँ तक कि लोगों को नौकरियां दी गई, जो व्यक्ति इंटर-मैट्रिक पास कर जाता था उसे घर से बुलाकर नौकरियां दी गई,
तनख्वाह में कोई कमी नहीं रही, भत्ता हमेशा लगातार बढ़ता था, महंगाई भत्ता 131% तक कर दिया गया. सबसे अधिक वेतन वृद्धि छठे वेतनमान में मिली,
सरकारी कर्मचारियों को पेंशन दिया जाता था, देश की जीडीपी 8% से ऊपर थी. आखिर यह सब गद्दार-चोरों की सरकार कैसे कर लेती थी?
आज जो दिव्य महापुरुष की सरकार नहीं कर पा रही है, जबकि विदेशों से काला धन वापस आ गया, नोटबंदी से देश का काला धन वापस आ गया, चोरों की सरकार की द्वारा बनाई गई सरकारी सम्पत्तियों को भी बेचा जा रहा है,
तब भी दिव्य पुरुष की “सरकार” नौकरियां, वेतन भत्ते, पेंशन नहीं दे कर किसान, मजदूर और आम नागरिक को टेंशन ही दे रही है.
सभी की नौकरियां चली गयी, सभी NGO से पैसा प्रधानमंत्री रिलीफ़ फ़ंड में जमा करवा लिया, कोई युद्ध भी नहीं हुआ किन्तु जीडीपी माइनस में चल रही है और डीजल, पेट्रोल पर सब्सिडी की जगह सरकार टैक्स बढ़ा कर 40 रुपये और कमा रही है.
इन्श्योरेंस और म्यूच्यूअल फण्ड पर भी सरकार 18% टैक्स कमा रही है और फिर भी सारी जेबें खाली हैं. देश के रिज़र्व बैंक में आपातकालीन जमा में से भी 175 अरब रुपये निकालकर खर्च कर दिये,
अगर कोई बोल रहा है तो उसको खालिस्तानी, पाकिस्तानी या देशद्रोही बताया जा रहा है. मेरे ख्याल से युवाओं को तो कम से कम जाग जाना चाहिये जो पढ़े लिखे होने का दम भरते हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं ‘आगाज़ भारत डॉट कॉम ‘ की टीम का इससे कोई सरोकार नहीं हैं)