जेल बन्दियों के बारे में आज संवेदनशील और प्रगतिशील नजरिये से सोचा जाना चाहिए. लगभग एक वर्ष से जेल बन्दियों को अदालतों में पेशी, वकीलों, परिजनों, दोस्तों की मुलाकात से जिस तरह महरूम कर दिया गया है, यह उनके मानवाधिकारों का हनन है, लेकिन इस विषय को प्रमुखता से नहीं उठाया जा रहा है.
इन दिनों जेल बन्दी जिन शारीरिक व मानसिक परेशानियों का सामना कर रहे हैं उसको व्यक्त करने और उसका समाधान करने के अधिकार से उन्हें वंचित कर दिया गया है. डर और भय के माहौल में रहने को मजबूर किये गये जेल बन्दी पहले से ही तनावग्रस्त होते हैं.
ऐसे में जब बाहरी दुनिया की महामारी खबरें उनको मिल रही होंगी तो उनका मानसिक तनाव कितना गुना बढ़ जाता होगा यह अनुमान लगाना अब मुश्किल नहीं लगता है. आज समाज में हर दूसरा इन्सान किसी न किसी वजह से तनाव में है और इस विषय पर आज खुल कर बात हो रही है.
इसलिए जेल बंदियों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी विचार किए जाने की सख्त ज़रूरत है. जेल बन्दियों के लिए मुलाकात या मिलाई एक सुहानी बयार के माफिक होती है, मिलाई का दिन उल्लास और खुशी का होता है, जब उनको प्यार करने वाले, उनके अपने उनसे मिलने के लिए आते हैं.
जब किसी कैदी की मिलाई आती है तो केवल खाने-पीने का सामान ही आपस में साझा नहीं होता है बल्कि अपनों की बातें भी आपस में बांटी जाती हैं. मिलाई उनके तनाव को दूर करने में दवा से भी ज्यादा कारगर होती है और बन्दियों को जेल के कठिन जीवन को झेलने की ताकत देती है.
यदि जेल बन्दी एक-दूसरे का दर्द महसूस करते हुए जेल के यन्त्रणामयी जीवन में भी जीने की वजह न खोज लें तो यह स्थिति और भी ज्यादा भयानक हो सकती है. तन्हाई और अण्डा सेल में रखे गये कैदियों के पास तो अपने सुख-दुःख साझा करने का यह अवसर भी नहीं होता है.
सरकार कहती है कि बन्दियों को परिजनों से फोन पर बातें करने की सुविधा दी गयी है. पहली बात तो यह है कि हमारे देश की जेलों में आधुनिक सुवधिाओं का सख्त अभाव है, उस पर भ्रष्टाचार में डूबे जेल प्रशासन के कारिंदे गरीब कैदियों को तो इन्सान ही नहीं समझते.
तब यह प्रश्न स्वभाविक है कि कितने कैदी फोन से अपने परिजनों से बात कर पा रहे होंगे? दूसरी बात यह कि महीने में एक या दो दिन, कुछ मिनट फोन से बात कर लेने से न तो उनको मानसिक सकून मिल सकता है और न ही उनकी रोजमर्रा की जरूरी चीज़ों और जरूरी खर्चों की पूर्ति हो सकती है.
जेल बन्दियों के परिजनों की मनः स्थिति भी इस दौर में कम भयानक नहीं है जबकि मौत का खतरा चारों और मंडरा रहा है और अधिकांश जेलों में न तो अस्पताल की सुविधा है और न ही डाक्टर की. कुछ मामूली दवाइयों और कम्पाउडर के भरोसे बड़ी से बड़ी जेलें संचालित की जाती हैं.
आज जब देश के अधिकांश सरकारी-प्राइवेट अस्पतालों की सच्चाई उघड़कर दुनिया के सामने आ गयी है. ऐेसे समय पर यदि कोई बन्दी गम्भीर बीमार हो जाता हो तो उसके लिए अस्पताल और बेड की उपलब्धता हो पा रही होगी? क्या बन्दियों के सही ईलाज के वास्तव में प्रयास किये जा रहे होंगे?
एक या दो प्रतिशत बंदियों के परिजन अदालत के माध्यम से यह सुविधा दिलवाने में सक्षम भी हो सकते हैं, लेकिन 98 प्रतिशत बंदियों को तो भाग्य के भरोसे छोड़ दिया गया है?
9 मई की पीटीआई की खबर के अनुसार मुंबई हाई कोर्ट ने आर्थर रोड जेल में कोविड को फैलने से रोकने के लिए महाराष्ट्र सरकार को उचित नीतिगत फैसले लेने का निर्देश दिया है. आर्थर रोड जेल में कम से कम 77 कैदी और 26 कर्मी इस हफ्ते कोरोना से संक्रमित पाये गये.
न्यायमूर्ति भारती डांगरे जब कैदी अली अकबर श्राफ की जमानत याचिका पर सुनवाई कर रही थी तब उन्होंने यह वक्तव्य दिया कि-
“हालत गंभीर है और ऐसी आकस्मिक स्थिति में राज्य सरकार तथा नीति निर्माताओं को फैसला लेना चाहिए। जेल में क्षमता से अधिक बंदी न हो जिससे कि संक्रमण को बढ़ावा मिले. अधिकारियों को यह याद रखना चाहिए कि कैदियों के पास भी सुरक्षित और स्वस्थ माहौल में रहने का अधिकार होता है.”