(आशुतोष पांडेय की कलम से)
दहेज के नाम पर जबरन पैसे की वसूली करना जुर्म है लेकिन दहेज जुर्म नहीं हैं. समस्या दहेज नहीं है बल्कि हमारे रिवाजों और कानून के टकराव की है.
विवाह के समय यदि लड़का पक्ष जेवर कम लाता है तो लड़की पक्ष द्वारा बारात लौटा देना भी जुर्म होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है.
हम सभी अपने रिश्तेदारों की शादियों में कुछ उपहार आदि देते हैं और बहू आने पर लड़के के रिश्तेदार भी बहू को कुछ उपहार आदि देते हैं मगर सरकार की नजर में यह सब जुर्म है.
तो क्या हम सभी लोग गुनहगार हैं और दहेज लेने देने की श्रेणी में आते हैं? दहेज की कानूनी परिभाषा-
“dowry” means any property or valuable security given or agreed to be given either directly or indirectly—(a) by one party to a marriage to the other party to the marriage; or
(b) by the parents of either party to a marriage or by any other person, to either party to the marriage or to any other person, at or before 1[or any time after the marriage] 2[in connection with the marriage of the said parties,
but does not include] dower or mahr in the case of persons to whom the Muslim Personal Law (Shariat) applies.
कानूनन् तो सभी को जेल में डाल देना चाहिए रिवाज और कानून में विरोधाभास है या नहीं ?
दहेज व्यवस्था क्या है?
हमारे संस्कारों में बेटियों की तुलना देवी से की गई है, रिवाजों में भी स्पष्ट दिखता है और लड़की को पराया धन मानकर उसकी परवरिश होती थी.
अर्थात् बचपन से ही लड़की के मन में डाल दिया जाता था कि यह मायका तुम्हारा घर नहीं है. उसे, उसके होने वाले पति की अमानत के तौर पर पाला जाता था.
यहां तक कि मोहल्ले के धोवी, नाई, दर्जी आदि लड़कियों से अपने किये गये काम के बदले पैसे नहीं लेते थे और कहते थे कि जब तुम्हारी शादी होगी तो तुम्हारे दूल्हे/ससुराल वालों से लेंगे.
आज भी लड़के वाले शादी में लड़की पक्ष की नाई, धोबी, मालिन, दर्जी, बढ़ई व कहार आदि के लिए कपड़ा, उपहार लाते हैं व रूपया पैसा देते हैं.
गांव के अन्दर बसे परिवारों में आपस में शादी नहीं होती थी अर्थात वह पूरी गांव की बेटी होती थी. कोई भी लड़का उस पर बुरी नजर डालने की हिम्मत नहीं करता था और यदि ऐसे कुछ दिखे तो गांव समाज उसका बहिष्कार करके सजा देता था.
पिता की सम्पत्ति में लड़की का हिस्सा- इसकी भी बुजुर्गो ने बहुत ही शालीनता से व्यवस्था बनाई थी जिसे आज दहेज कहा जाता है. पिता की सम्पत्ति में पुत्री का हिस्सा होता था लेकिन यह अप्रत्यक्ष रूप से कैसे दिया जाता था और इसे गहराई से समझने की आवश्यकता है.
प्राचीन काल में हमारे भारत की अधिकतर आबादी कृषि या पशुपालन पर निर्भर रही है. दोनो ही सूरतों में जमीन का होना आवश्यक है अर्थात जीविका का स्रोत जमीन रही है.
जन्म से ही इस जमीन पर पुत्र के समान पुत्री का भी हक बनता है. रिवाज के अनुसार विवाह पर पुत्री को विदा किया जाता है किन्तु जमीन को वहां से विदा नहीं किया जा सकता है तो क्या लड़की का हक मर गया? नही.
भारत में ज्यादातर किसान हैं और गरीब हैं, किसान अपनी पुत्री के विवाह के लिए हर वर्ष हर फसल पर कुछ न कुछ बचत करके रखता था.
शादी की रस्म भी कई भागों में होती थी जैसे- शादी, उसके दो वर्ष बाद गौना और उसके दो वर्ष बाद थौना आदि. अर्थात् किसान पर एकदम से शादी के खर्च का बोझ नहीं पड़ता था.
लड़की भी मायके में अपने हिस्से का लगभग 30 प्रतिशत अपने साथ चल सम्पत्ति के रूप में ले आती थी, जमीन नहीं. उसके हिस्से की जमीन से अभी भी उसके मायके वाले आय प्राप्त करते रहते थे.
ध्यान रहे लड़की का शेष 70 प्रतिशत सम्पत्ति का हक अभी भी लड़की के मायके में ही है. इसीलिए कहावत भी है कि “लड़की बूढ़ी होती है लेनी-देनी बूढ़ी नहीं होती“ अर्थात लड़की के पुत्र व पुत्री के विवाह पर मामा खर्च करता था.
सरकार ने विपरीत परिस्थितियों में (विधवा अथवा तलाकशुदा होने पर) उस विवाहित पुत्री को मायके की सम्पत्ति को उपभोग करने का अधिकार जीवनकाल तक दे रखा था.
इस प्रकार मायके में वह अपने हिस्से का उपयोग तो कर सकती थी किन्तु बेच नहीं सकती थी.