(आशुतोष पांडेय की कलम से)
हमारे रीति रिवाज में भी रक्षा बन्धन, भाई दूज आदि पर्व हैं जो भाई को उसकी बहन की जिम्मेदारी उठाने की प्रेरणा देते है.
रिश्ते एक मर्यादा की डोर से बंधे रहते थे, सम्पत्ति से बड़ा होता था– “रिश्ते नातों का सम्मान” और एक व्यवस्था दी गई थी जहां लड़की पक्ष को कम एवं लड़के पक्ष को सशक्त बताया गया था.
हम आप ही कहीं लड़की वाले होते हैं तो कहीं लड़के वाले. वर पक्ष का भी विवाह को लेकर काफी खर्च होता है- जैसे लड़के की शादी में बहू के लिए जेवर की व्यवस्था करना.
बेटा जो अभी जमीन पर या टूटी खाट पर कहीं भी पड़ा रहता था उसके व बहू के लिए एक अलग कमरा बनवाना.
एक कमरा/मकान बनवाने का खर्च दहेज में आये सामानों से कहीं ज्यादा होता है और यह उपहार बेटा बहू को लड़का पक्ष देता है.
इस बहू का पति की सम्पत्ति पर अधिकार होता था जो कि दहेज में आई सम्पत्ति से कहीं अधिक होता था.
पति के जीवित न रहने पर पति की सम्पत्ति में उसको ससुराल में रहने पर हिस्सा मिलता था और बच्चों को दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ आदि का नैसर्गिक संरक्षण मिलता था.
यदि बच्चे नहीं होते थे तब ससुराल के लोग उसके पति के हिस्से की भूमि पर खेती करते थे और उस विधवा बहू के जीवनयापन की व्यवस्था करते थे, फिर चाहे वह अकेली विधवा बहू ससुराल में रहे या मायके में, उसे ससुराल की ओर से गुजारा भत्ता दिया जाता था.
लेकिन आय की स्रोत कृषि भूमि उसी गांव परिवार में रहती थी. हमारे रिवाज के अनुसार बहू अपने ननद के पैर छूती थी (चाहे वह उम्र में छोटी ही क्यों न हो) और बहन खुशी से अपने भाई-भाभी की गृहस्थ जीवन को अपना आशीर्वाद प्रदान करती थी.
यह विवाहित ननद घर की आमदनी का स्रोत (खेती की जमीन) से अपना हिस्सा नहीं लेती थी, वहीं उस विवाहिता नन्द को भी अपनी ससुराल में अपने पति की बहनों (ननद) का आशीर्वाद प्राप्त रहता था.
चूंकि कानूनन व रिवाजों में भी विवाहित ननदों (पुत्रियों) का सम्पत्ति में हक नहीं होता था इस कारण उनका ध्यान भी इस ओर नहीं जाता था और रिश्तेनाते मजबूत थे.
दहेज का दुरूपयोग– कुछ (एक-दो प्रतिशत) लालची लड़के वालों ने इस रिवाज की आड़ में मान-मर्यादा को किनारे रखकर बेशर्मो की तरह इसे पैसा कमाने का जरिया बना लिया.
तो दूसरी ओर कुछ लड़की वालों ने भी लड़की को पराया धन बताकर उसे मात्र पहने कपड़ों में विदा कर उस लड़की का हक मारने की कोशिश की.
विवाद भी यहीं से शुरू हुआ, सरकार ने भी यहां अपनी ‘डिवाइड एण्ड रूल‘ की नीति अपनाई. इन कुछ लालची लोगों को सजा देने की बजाय सरकार ने बहू के जरिये इनको बहू के मायके की सम्पत्ति में हिस्सा दिला दिया.
जबकि शेष 98 प्रतिशत लड़के जिनको विवाह के समय कुछ घर-गृहस्थी का सामान लड़की पक्ष ने दिया था, उनको दहेज का लालची बता दिया.
अब कानूनन दहेज रिवाज से बदल कर जुर्म हो गया अर्थात् वो दो प्रतिशत को तो सजा नहीं हुई, हॉ निर्दोष 98 प्रतिशत लोगों पर झूठे आरोप लगाकर धन उगाही का जरिया थानों के माध्यम से बन गया.
सरकार ने दहेज को जुर्म घोषित किया और विवाहिता पुत्री को मायके में सम्पत्ति का अधिकार देकर भारतीय संयुक्त परिवार की परम्परा की नींव हिला दी.
वह लड़कियां जो रीति रिवाज के नाम पर ही सही किन्तु बुजुर्ग माता-पिता व सास-ससुर का सम्मान करती थी.
आज संस्कार को किनारे रखकर कानूनी अधिकार के नाम पर ससुराल में लड़ रही हैं, सारा महिला सशक्तिकरण पति व उसके परिवार को नोचने में लगा है, माना शादी न हुई, गुनाह किया है.
विवाहिता पुत्रियां अब मायके में अपनी सम्पत्तियां मांग रही हैं और तब वहां उसे वही मायके वाले कानून की बजाय संस्कार सिखाते हैं अर्थात कानून ससुराल के लिए संस्कार मायके के लिए.
भाई-बहन के सम्पत्ति के विवाद अब न्यायालय में बेतहाशा बढ़ रहे हैं. ननद-भौजाई का झगड़ा हुआ नहीं कि ननदों ने अपना हिस्सा कानून मांगा और खेती की जमीन के टुकड़े हो गये.
परिवार के सभी लोगों ने अपना-अपना हिस्सा लिया, पति के हिस्से भी जरा से जमीन आई. वह बहू जो इस दहेज व्यवस्था के कारण ही पूरे घर की रानी थी अब एक कमरे में सिमटकर रह गई.
पति-पत्नी में खटास हुई, उसके लिए भी पति से धन उगाही का कानून मौजूद है, चाहे शादी तीन दिन की हो या तीन घण्टे की.
पति की देखभाल हो न हो लेकिन उसकी सम्पत्ति व आमदनी से हिस्सा दिलाकर सरकार ने पति-पत्नी के बीच भी खाई पैदा कर दी है.
पुरूष हर तरफ से मर रहा है- पहले बहनों को हिस्सा फिर तलाक पर पत्नी को हिस्सा, माता-पिता का भरणपोशण, अविवाहित भाई बहनों की जिम्मेदारी ऊपर से जीवन भर का पत्नी का भरणपोषण भत्ता आदि.
दहेज कानून के नाम पर पूरे संयुक्त परिवार को प्रताड़ित किया जाता है, घर या दूर रह रही ननदों को भी मुजरिम बना दिया जाता है.
पूरे परिवार का यह अपमान अरोपी विवाहित पति बर्दाश्त नहीं कर पाता है और मानसिक व आर्थिक रूप से पूरी तरह टूट कर आत्महत्या करने में सुकून महसूस करता है.
दूसरी ओर वो महिला भी इतने आरोप लगा चुकी होती है कि ससुराल जाने की हिम्मत नहीं कर पाती.
भारतीय सामाजिक दहेज व्यवस्था में दोनों परिवार एक मर्यादा की डोर से बंधे रहते थे और स्त्री अधिकार भी सुरक्षित रहता था, साथ ही सबसे बड़ी बात, आय का मुख्य स्रोत–कृषि भूमि, के टुकड़े नहीं होते थे
और एक ही जगह पर यह कृषि भूमि भाइयों के बीच रहती थी क्योंकि भाई विदा होकर नहीं जाते थे. बच्चों की परवरिश में दादा दादी की भूमिका अहम होती थी.
बहुएं घर का काम निपटाती थीं और दादा-दादी बच्चों से साथ मस्त रहते थे और उनको नैतिकता की शिक्षा और अपने अनुभव देते थे जिससे यही बच्चे बड़े होकर एक सभ्य भारत की नींव बनते थे.
सब खुश थे और पूरा परिवार एक व्यवस्था के अन्तर्गत चलता था. सबके कार्यो का विभाजन, उनकी क्षमता के अनुसार, घर का मुखिया करता था.
किन्तु सरकार ने रिवाजों को धता बताकर विदेशों की तर्ज पर जो महिला सशक्तिकरण का फार्मूला अपनाया है वह भारत में तलाक के अनुपात को 1 प्रतिशत से 40 प्रतिशत पहुंचाने में जरूर कामयाब होगा.
यही सरकार की मंशा भी है कि अपने संस्कारों को गाली दो, विदेशी अपनाओ, देश की संस्कृति को महिला शोषक बताकर विदेशियों की तरह स्वच्छन्द जीवन जियो
और उन्हीं विदेशियों से महिला सशक्तिकरण के नाम पैसा मांगकर देश को कर्जदार बनाओ. भारत की पंच-परमेश्वर न्याय प्रणाली को गाली दो.
वह अमेरिका, जहां आजादी के 200 वर्ष बाद भी आज तक महिला राष्ट्रपति नहीं बनी, वो हमारे देश को महिला सशक्तिकरण का पाठ सिखाता है.
कुल मिलाकर रीति रिवाजों में दहेज भी एक सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था है, न कि जुर्म.
(DISCLAIMER-ये लेखक के निजी विचार हैं AGAZBHARAT.COM का इससे कोई सरोकार नहीं है)