जेल के भीतर कैद महिला बंदियों की दास्तान, उन्हीं की जुबानी-भाग-2

(चन्द्रकला की कलम से)

वर्तमान समय में जबकि स्वास्थ्य एक महत्वपूर्ण पहलू बना हुआ है महिला बन्दियों की जीवन स्थितियों और जेल की स्वास्थ्य सेवाओं पर भी गम्भीर विचार करने की जरूरत है.

इस समय में जबकि स्वास्थ्य समास्याएं अपने पीक पर हैं तब क्या महिलाओं के स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है? तथ्यानुसार समाज में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के स्वास्थ्य की अनदेखी की जाती है.

जब बाहरी समाज में ही स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल अवस्था में हैं तो जेल बन्दियों के स्वास्थ्य की देखभाल तो दूर की कौड़ी ही है. जेल के भीतर महिला बन्दियों को न केवल शारीरिक तौर पर बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ता है बल्कि उन्हें कई प्रकार के मानसिक दबावों से भी रूबरू होना पड़ता है.

चूंकि अधिकांश जेलों की सारी व्यवस्था पुरुषों के हाथ में होती है, परिणामस्वरूप यहां पर कार्यरत नाममात्र की महिला कर्मचारी स्वतः ही पितृसत्तात्मक मूल्यों की वाहक बनती चली जाती हैं और महिला बन्दियों के हितों की रक्षा करने के बजाय अपनी सत्ता का दुरुपयोग करती हैं.

जेल सुधार गृह के बजाय यातना गृह में तब्दील हो जाते हैं.

चूंकि हमारे पूरे समाज में महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर नकारात्मक नज़रिया है तो उसका प्रभाव जेल में बखूबी दिखता है. जेल में लम्बा समय बिताने, परिवार की उपेक्षा के कारण कितनी ही महिलाएं मानसिक रोगों की शिकार हो जाती हैं.

लेकिन इसको स्वास्थ्य के नज़र से देखने के बजाय महिला को उदण्ड मानकर उनकी पिटाई की जाती है. आमतौर पर  जब हमारे समाज में स्वास्थ्य को लेकर ही जागरूकता नहीं है तो फिर जेल में तो और भी पिछड़ा माहौल होता है.

बन्दियों की मानसिक दिक्कतों को समझना और उनको हल करने की दिशा में उपयुक्त डाक्टरों की नियुक्ति इत्यादि की व्यवस्था देश के एक या दो जेलों में ही है.

मानसिक स्वास्थ्य के प्रति अभी हमारे भारतीय समाज में ही जागरूकता बहुत कम है. एक लाख भारतीयों में महज़ 0.2 प्रतिशत मनोचिकित्सक हैं तब जेल में मनोचिकित्सकों की उपलब्धता की सम्भावना तो बहुत कम ही हो जाती है.

एक स्त्री रोग विशेषज्ञ, नर्स या महिला हैल्थ वर्कर आदि की नियुक्ति या समय-समय पर महिलाओं की जांच की व्यवस्था का कोई प्रवाधान देश की अधिकांश जेलों में आज तक नहीं किया गया है.

महिला बंदियों को कई प्रकार की यौनिक व माहावारी सम्बन्धि दिक्कतों सामना करना पड़ता है. जेल मैन्युयल के अनुसार उन्हें सैनेटरी नैपकीन या कपड़ा मिलना चाहिए.

लेकिन अधिकांश जेलों में अन्य जरूरी मदों की तरह इसका व्यय भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है और हर माह का ईन्तजाम करना महिलाओं की व्यक्तिगत जिम्मेदारी हो जाती है.

परिणामस्वरूप उचित साफ-सफाई के अभाव में कईं बीमारियां शरीर में घर करने लगती हैं और तकलीफ बढ़ जाने की हद तक वे किसी को नहीं बताती हैं.

भारत में आमतौर पर 45 से 50 वर्ष में माहवारी ख़त्म हो जाती है. इस समय में महिलाओं के शरीर में कई प्रकार के हार्मोनल बदलाव होते हैं और तनाव, बैचेनी, घबराहट चिड़चिड़ापन और गुस्से आने जैसे लक्षण दिखाई देते हैं.

कायदे से इस समय होने वाले शारीरिक-मानसिक बदलावों पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी होता है लेकिन जब सामान्य जीवन में ही हमारे समाज में इस विषय पर जागरूकता नहीं है तो बंदियों के बारे में कोई कैसे सोच सकता है?

जेल के भीतर महिला जेलों में आमतौर पर महज एक पुरुष कम्पाउडर के भरोसे ही महिला बन्दियों का स्वास्थ्य छोड़ दिया जाता है. यहां पर ऐसी सम्भावना ही नहीं होती है कि महिलाएं अपनी परेशानी खुलकर बता पायें.

वैसे भी यहाँ पर गिनी-चुनी दवाईयां दी जाती हैं जो बन्दियों के मर्ज को ठीक तो कम से कम नहीं करती हैं, गम्भीर बीमारी होने पर ही जेल के बाहर सरकारी अस्पताल में ले जाने की व्यवस्था की जाती है.

अकसर ही गार्ड न होने के बहाना करके बन्दी को समय पर ईलाज नहीं मिलता है. बन्दियों का जीवन हमेशा जेल कर्मचारियों की ईच्छा पर ही निर्भर होता है.

अधिकाँश मामलों में अन्तिम समय में बन्दी को जेल से सरकारी अस्पताल पहुँचाकर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है. भारत की जेलों की व्यवस्था को आज भी पुरुष कैदियों के नज़रिये से देखा जाना एक हमारे पितृ सत्तात्मक समाज की विडंबना है.

महिला कैदियों के लिए खेल और मनोरंजन आदि के विषय में भी बहुत कम सोचा जाता है. इसलिए किसी प्रकार की आधुनिक सुविधाएं नहीं दी जाती हैं. महिलाओं को गीत-कीर्तन इत्यादि में मन लगाने की नसीहतें दी जाती हैं अथवा पापड़, सिलाई, बुनाई अथवा महिला सुलभ कार्यों को करने का आदेश दिया जाता है.

कोई महिला यदि पढ़ने के लिए लाइब्रेरी से किताबों की मांग करती है तो धार्मिक किताबें पढ़ने को कहा जाता है. पहनावे पर भी महिलाओं पर कई प्रकार की पांबन्दियां लगायी जाती हैं.

जेल में जो महिला बन्दी आती हैं उनमें 2019 के आंकड़ों के अनुसार 27 प्रतिशत अशिक्षित हैं और 41.6 प्रतिशत 10वीं से कम पढ़ी हुई हैं. इनमें ज्यादा संख्या आमतौर पर ग्रामीण और गरीब महिलाओं की ही होती है.

इन महिलाओं को अपने उपर लगे अपराधों की धाराओं का ज्ञान तो जेल में आकर हो जाता है लेकिन पूरी न्यायिक प्रक्रिया की जानकारी ना होने और वकील के खर्चों का ईन्तजाम न कर पाने के कारण कई बार अपराध की सज़ा से अधिक जेल में रहने को मजबूर होना पड़ता है.

जेल कर्मचारियों और पुरुष बंदियों द्वारा कई बार जेल से बाहर निकालने के नाम पर महिलाओं का शोषण भी किया जाता है. महिला का शिक्षित होना, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक रुतबा समाज की तरह जेल जीवन को भी प्रभावित करता है. यदि बन्दी के परिजन समय-समय पर पैसा देते रहते हैं तो उसकी हैसियत बेहतर होती है.

जेल वार्डर को मिलाई के पैसों से लेकर जो सामान घर से आता है उसका हिस्सा देना जेल का अघोषित नियम है जो जितना अधिक देता है उसकी सुविधाएं भी उसी अनुरूप तय होती हैं.

कुछ बन्दी जो जेल कर्मचारियों की चापलूसी करती हैं, उनको भी कईं प्रकार की सहुलियतें मिल जाती हैं. इस सब का खामियाजा़ गरीब और उन बन्दियों को भुगतना पड़ता है जिनकी कोई मिलाई नहीं आती है.

जेल मैन्युल में गम्भीर अपराधों में शामिल महिलाओं और सामान्य अपराधों वाली महिलाओं को अलग-अलग रखने का प्रवाधान है लेकिन जेलों में इतनी अधिक भीड़ होती है कि यह लागू नहीं किया जाता.

ऐसे में कई बार मासूम और परिवार से उपेक्षित लड़कियों और महिलाओं का अपराध जगत में दुरूपयोग होने की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं.

बिहार के केन्द्रीय कारागार मे सजा काट चुकी एक महिला ने प्रधानमंत्री को एक खत लिखा है कि जेल में महिला बन्दियों को शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए मजबूर किया जाता है, ऐसा न करने पर बेरहमी से पिटाई की जाती है.

सज्याफ्ता या लम्बा समय जेल में बिताने वाले बंदियों से जेल प्रसाशन अनाधिकृत काम करवाता है जिससे कि इन बन्दियों को सामान्य बंदियों पर रूआब दिखाने का अवसर मिल जाता हैं.

जेल की भाषा में ये बंदी राइटर कहलाते हैं जब 6 बजे अन्य बन्दियों को बैरक में बन्द कर दिया जाता है तब भी कई बार ये जेल वार्डरों के साथ बाहर रहते हैं.

इसलिए कईं जेलों में इनके महिला बैरिक में आवाजाही पर बन्दिश नहीं होती है पुरुष जेल के भीतर जो महिला जेल हैं, वहां पर कई बार महिला बंदियों के साथ होने वाली हिंसा की संभावना अधिक हो जाती है.

ग्लोबल प्रिज़न ट्रेंड्स 2020 के अनुसार पूरी दुनिया में 19 हजार बच्चे अपनी बंदी माँओं के साथ जेल में रहते हैं. पिछले एक दशक से कुल महिला बंदियों में से करीब 9 प्रतिशत भारत की जेलों मैं अपने बच्चों के साथ रहती आई हैं.

बच्चों वाली बन्दी माँओं के हालात इसलिए ज्यादा खराब होते हैं कि उनके कारण उनके बच्चों का जीवन असन्तुलित हो जाता है. कई बार यदि माँ को लम्बा समय जेल में रहना पड़ता है,

छः साल से अधिक उम्र के बच्चों को सरकार दूसरी व्यवस्था करती है. अलग-अलग राज्यों में इसके लिए अपनी व्यवस्थाएं हैं. गर्भवती महिलाओं और बच्चों के लिए अतिरिक्त पोषक भोजन का प्रवाधान जेल मैनुअल में किया गया है.

लेकिन बहुत कम जेलों में ही वह पूरी मात्रा मिल पाती होगी? कपड़ा व अन्य बुनियादी जरूरतों के विषय में भी जेल मैन्युल में कईं प्रवाधान हैं लेकिन व्यवहार में इस पर अमल नहीं किया जाता है.

जब कैदियों के भोजन और रखरखाव के लिए आंवटित बजट की न्यूनतम मात्रा भी उन पर खर्च नहीं की जाती है तो महिलाओं के लिए तो यह उम्मीद ओर भी कम हो जाती है.

आर्थिक तौर पर पुरुषों पर निर्भर रहने के कारण महिलाएं स्वयं अपने लिए वकील नहीं कर पाती हैं, इसलिए कईं बार जमानत करवाने में पीछे रह जाती हैं.

सम्पत्ति पर किसी प्रकार का मालिकाना हक न होने के कारण भी उनको पुरुषों के मुकाबले जमानती मिलने के रास्ते में कईं प्रकार की कठिनाईंया आती हैं.

यही कारण है कि कितनी ही महिलाओं को समय पर ट्रायल न होने से अपराध की सजा से अधिक समय जेल में रहना पड़ता है. यदि महिला बंदी बेगुनाह साबित हो भी जाये तो

लम्बे समय बाद जेल से बाहर जाने के लिए मन से तैयार नहीं हो पाती हैं, क्योंकि बाहर कोई उनका ईन्तजार करने वाला नहीं होता है और न ही उनको इज्ज़त की नज़र से देखा जाता है.

भारत की 2019 की अपराध रिकार्ड संख्या के अनुसार 31 दिसम्बर, 2019 के अन्त तक भारतीय जेलों में कुल 19 हजार 913 बन्दी रहती थीं जिनमें से केवल 18.3 प्रतिशत (3,652) महिलाएं, महिला जेलों में बन्द हैं.

जबकि 81.7 प्रतिशत (16,261) पुरुष जेलों के भीतर मौजूद महिला बैरकों (यानी जेल के भीतर जेल) में बन्द हैं. 2019 के अपराध रिकार्ड संख्या के अनुसार जेलों में महिलाओं की संख्या क्षमता से 56.09 प्रतिशत है.

यदि केवल महिला जेलों की बात करें तो उनमें भी केवल 6 हजार 511 महिला बन्दियों को रखने की क्षमता है लेकिन 3652 महिला बन्दी रहती हैं.

पुरुष जेलों के भीतर महिला जेल में यह आंकड़ा 76.7 प्रतिशत है. पूरे देश की जेलों में कुल सजायाफ्ता महिला बंदी 6171 हैं, विचाराधीन 13550 महिला बंदी हैं तो 680 डिटेंन और 85 अन्य प्रकार की महिला बंदी हैं.

यदि देश भर के राज्यों और केन्द्रशासित राज्यों की तुलना की जाये तो जेलों में रहने वाली सबसे अधिक महिला बन्दियों की भीड़ 170.13 प्रतिशत उत्तराखण्ड में दर्ज की गयी है.

उसके बाद उत्तरप्रदेश जहां महिलाओं की भीड़ का प्रतिशत 138.38 है और फिर छत्तीसगढ़ 136.06 प्रतिशत है महिला बन्दियों का अनुपात अधिक होने का एक कारण यह भी है कि इन राज्यों में महिला जेल नहीं है.

महाराष्ट्र में यह प्रतिशत 120.24 है यहां पर महज एक महिला जेल है. 2014 से 2019 में महिला बन्दियों की संख्या में वृद्धि दर्ज की गयी है.

2014 में कुल बन्दियों की संख्या 4 लाख, 18 हजार 536 थी तो 2019 में यह संख्या 4 लाख 78 हजार 600 हो गयी, यानी इस दौरान 14.4 प्रतिशत बन्दी बढ़े हैं.

इस दौरान कुल मिलाकर जेलों की सख्या कम हुई है, 2014 में पूरे देश में कुल 1387 जेलें थीं, वहीं 2019 में यह संख्या कम होकर 1350 हो गयी है.

यानी कि 37 जेलें कम कर दी गयी हैं, पूरे देश के स्तर पर भीड़ 0.9 प्रतिशत बढ़ी है. 2017 में जहां यह 117.6 प्रतिशत थी, वहीं 2019 अन्त में यह 118.5 प्रतिशत थी.

महिला जेल में महिला बन्दियों की संख्या में भी 21.7 प्रतिशत का ईजाफा हुआ है. अन्य जेलों को मिलाकर 11.0 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.

देश भर में 1350 जेलों में महिला जेल महज 31 हैं जिसमें से 15 राज्यों और दिल्ली केन्द्रशासित राज्य में हैं. द वायर के अनुसार महिलाओं के लिए मात्र एक खुली जेल 2010 में पूणे के यरवदा में बनायी गयी है जबकि पुरुषों की खुली जेल 1953 में ही बना दी गयी थी.

अन्य जगह पर जेल के भीतर जेल में ही महिलाओं को रखा जाता है. सबसे अधिक 7 महिला जेल राजस्थान में हैं. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि महिला बन्दियों के मानवाधिकारों पर नये सिरे से विमर्श की आवश्यकता है.

जब पूरी दुनिया में महिला मुददों की बात की जा रही है तो आज पहले से ज्यादा इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि महिला बन्दियों के हितों की सुरक्षा के साथ ही पुलिस प्रशासन,

जेल प्रशासन और अदालतों में लैंगिक भेदभाव को चिन्हित किया जाय और यहां मौजूद कर्मचारियों को इसके प्रति संवेदनशील बनाया जाय.

इसके साथ ही अदालतों की लम्बी चलने वाली न्यायिक प्रक्रिया को त्वरित किया जाय अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे जेल नियमों में बदलाव करने की आज सबसे अधिक आवश्यकता है.

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