आंदोलन के गर्भ से ही क्रांति जन्म लेती है, इसे समझना होगा

किसान आंदोलन वर्षों तक चला और सैकड़ों किसान शहीद हो गए सरकार द्वारा उनके ऊपर अत्याचार, बर्बरता की हद पार कर दी गई.

12 महीनों से ऊपर किसान अपने घरों से दूर आंदोलन करते रहे संघर्ष को अपने जीवन का हिस्सा बना लड़ते व टिके रहे और कानून वापस लेने पर मजबूर किया.

आखिर में तीन काले कानून को सरकार ने वापस लिया, मैंने और मेरे कई साथियों ने उनको समर्थन किया.

उनकी हर बात को लिखा और जनता तक पहुंचताते हुए किसानों को पूरी तरह से समर्थन दिया.

इसी समाज के आदिवासी समुदायों को भी हम देख रहे हैं? क्या उनके बारे में हमने कभी सोचा? उनके आंदोलन के बारे में जानने की कोशिश की?

क्या उनकी बातें हमारे तक या समाज के कोने-कोने तक पहुंची? क्या हमने उनके लिए कुछ लिखा?

नहीं! तो बहुत ही गंभीर बात है. वे लोग हमारे भाई-बहन जैसे हैं. वे हमारे साथी हैं सुकमा-बस्तर के सिलगेर‌ में सेना के कैंप के विरोध में

वहां के आदिवासी (जो सदियों के संघर्षरत रहे और अपना जीवन यापन करते आए हैं) 1 वर्ष से ज्यादा हो गए आंदोलन करते हुए लेकिन ना तो आज मेन स्ट्रीम के मीडिया ने जगह दी और ना ही कोई ट्रेंड ना ही कोई हैशटैग.

1 साल पहले 12 मई, 2021 की रात्रि में बिना ग्रामसभा की सहमति लिए सुकमा (छत्तीगढ़) जिले के सिगंलेर में एक सेना कैंप रातों-रात अस्तित्व में आ गया था.

जब इसकी जानकारी इलाके के ग्रामीणों को मिली तो वे 13 मई से कैंप हटाने के लिए आंदोलन करने लगे.

17 मई को सीआरपीएफ ने आंदोलनकारी आदिवासी पर गोली चलाई, जिसमें मौके पर ही 3 युवा आदिवासी किसानों की मृत्यु हो गई और बाद में एक गर्भवती आदिवासी महिला की भी मृत्यु हुई.

तब से यह आंदोलन अनवरत जारी है. सेना कैंप के सामने सैकड़ों-हजारों आदिवासी दिन-रात जमे हुए हैं.

इस आंदोलन से प्रेरणा लेते हुए बस्तर में और भी कई जगह ऐसे ही अनवरत धरना जारी है. वहां के लोगों का कहना है कि-

हमारा आंदोलन शांति से हो रहा था लेकिन हम लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा है. हम तब तक नहीं हटेंगे जब तक हमें न्याय नहीं मिलेगा.

(साभार-जनमंच)

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