अबकी बार….सरकार नहीं आजादी की दरकार !

 

BYPUNYA PRASUN BAJPAI

2014 के नारे 2019 से पहले ही दामन से लिपट जायेंगे ये ना तो नरेन्द्र मोदी ने सोचा होगा। ना ही 2014 में पहली बार खुलकर राजनीतिक तौर पर सक्रिय हुये संघचालक मोहनभागवत ने सोचा होगा। ना ही भ्रष्टाचार और घोटालो के आरोपों को झेलते हुये सत्ता गंवाने वाली कांग्रेस ने सोचा होगा। और ना ही उम्मीद और भरोसे की कुलांचे मारती उस जनता ने सोचा होगा, जिसके जनादेश ने भारतीय राजनीति को ही कुछ ऐसा मथ दिया कि अब पारंपरिक राजनीति की लीक पर लौटना किसी के लिये संभव ही नहीं है।

2013-14 में कोई मुद्दा छूटा नहीं था। महिला , दलित , मुस्लिम , महंगाई , किसान, मजदूर , आतंकवाद , कश्मीर , पाकिस्तान , चीन , डॉलर , सीबीआई , बेरोजगार , भ्रष्टाचार  और अगली लाईन … अबकी बार मोदी सरकार। तो 60 में से 52 महीने गुजर गये और बचे 8 महीने की जद्दोजहद में पहली बार पार्टियां छोटी पड़ गईं और “भारत ” ही सामने आ खड़ा हो गया ।

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फोटो साभार: ट्विटर

 

सत्ता ने कहा “अजेय भारत, अटल भाजपा” तो विपक्ष बोला “मोदी बनाम इंडिया।” यानी दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश को चलाने संभालने या कहें  सत्ता भोगने को तैयार राजनीति के पास कोई विजन नहीं है कि भारत होना कैसा चाहिये । कैसे उन मुद्दों से निजात मिलेगी जिन मुद्दों का जिक्र कर 2014 में गद्दी पलट गई । या फिर उन्ही मुद्दों का जिक्र कर गद्दी पाने की तैयारी है। तो क्या ये भारत की त्रासदी है जिसका जिक्र महात्मा गांधी ये कहते-सोचते मार डाले गये कि ये आजादी नहीं बल्कि सिर्फ अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण है ।

यानी अजेय भारत में 2019 भी सत्ता हस्तांतरण की दिशा में जा रहा है जैसे 2014 गया था । और जैसे इमरजेन्सी के बाद इंदिरा की गद्दी को जनता ने ये सोच कर पलट दिया कि अब जनता सरकार आ गई। तो नये सपने । नई उम्मीदों को पाला जा सकता है । पर अतीत के इन पन्नों पर गौर जरुर करें। क्योंकि इसी के अक्स तले “अजेय भारत” का राज छिपा है ।

आपातकाल में जेपी की अगुवाई में संघ के स्वयंसेवकों का संघर्ष रंग लाया । देशभर के छात्र-युवा आंदोलन से जुड़े। 1977 में जीत होने की खुफिया रिपोर्ट के आधार पर चुनाव कराने के लिये इंदिरा गांधी तैयार हो गईं। और अजेय भारत का सपना पाले जनता ने इंदिरा गांधी को धूल चटा दी । जनता सरकार को 54.43 फीसदी वोट मिले। 295 सीटों पर जीत हासिल की । जबकि इंदिरा गांधी को सिर्फ 154 सीटों [28.41% वोट ] पर जीत मिली ।

लेकिन ढाई बरस के भीतर ही जनता के सपने कुछ इस तरह चूर हुये कि 1980 के चुनाव में इंदिरा गांधी की वापसी ही नहीं हुई । बल्कि जीत ऐतिहासिक रही और इंदिरा गांधी को 353 सीटों पर जीत मिली । और वोट ने रिकार्ड तोड़ा । क्योंकि 66.73 फिसदी वोट कांग्रेस को मिले ।

Photo: Hindustan Times
photo: hindustan times

तो आपातकाल के खिलाफ आंदोलन या कहे आपातकाल से पहले भ्रष्टाचार-घोटाले-चापलूसी की हदों को पार करती इंदिरा के खिलाफ जब जेपी संघर्ष करने को तैयार हुये । संघपरिवार पीछे खड़ा हो गया । समूचा देश आंदोलन के लिये तैयार हो गया । लेकिन सत्ता मिली तो हुआ क्या । बेरोजगार के लिये रोजगार नहीं था । कालेज छोड़कर निकले छात्रों के लिये डिग्री या शिक्षा तक की व्यवस्था नहीं थी । महंगाई थमी नहीं ।

भ्रष्टाचार खत्म करने के नारे ही ढाई बरस तक लगते रहे । कोकाकोला और आईबीएम को देश से भगाकर अर्थव्यवस्था को समाजवादी सोच की पटरी पर लाने का सोचा तो गया लेकिन इसे लागू कैसे करना है ये तमीज तब सरकारों में जागी नहीं । और सत्ता के भीतर ही सत्ता के सत्ताधारियो का टकराव इस चरम पर भी पहुंचा कि 1979 में जब अटलबिहारी वाजपेयी पटना के कदमकुआं स्थित जेपी के घर पर जयप्रकाश नारायण से मिलने पहुंचे ।

वाजपेयी दिल्ली से सटे सूरजकुंड में होने वाली जनता पार्टी संसदीय दल की बैठक को लेकर दिशा-निर्देश लेने और हालात बताने के बाद जेपी के घर से सीढियों से उतरने लगे तो पत्रकारो ने सवाल पूछा , बातचीत में क्या निकला । वाजपेयी ने अपने अंदाज में जवाब दिया , ” उधर कुंड [ सूरजकुंड ] , इधर कुआं [कदमकुआं ] बीच में धुआं ही धुंआ। ” और अजेय भारत का सच यही है कि हर सत्ता परिवर्तन के बाद सिवाय धुआं के कुछ किसी को नजर आता नहीं है ।

यानी 1977 में जिस सरकार के पास जनादेश की ताकत थी । जगजीवन राम , चरण सिंह , मधु दडंवते , वाजपेयी, आडवाणी , जार्ज फर्नाडिस , प्रकाश सिंह बादल , हेमवंती नंदन बहुगुणा , शांति भूषण , बीजू पटनायक , मोहन धारिया सरीखे लोग मंत्रिमंडल में शामिल थे । उस सरकार के पास भी अजेय भारत का कोई सपना नहीं था ।

मोरारजी देसाई
( मोरारजी देसाई): photo: starsunfolded

हां, फोर्जरी – घोटाले और कालेधन पर रोक के लिये नोटबंदी का फैसला तब भी लिया गया । 16 जनवरी 1978 को मोरारजी सरकार ने हजार, पांच हजार और दस हजार के नोट उसी रात से बंद कर दिये । उसी सच को प्रधानमंत्री मोदी ने 38 बरस बाद 8 नवंबर 2016 को दोहराया । पांच सौ और हजार रुपये के नोट को रद्दी का कागज कहकर ऐलान कर दिया कि अब कालेधन, आतंकवाद , फर्जरी-घपले पर रोक लग जायेगी । पर बदला क्या ? देश का सबसे बड़ा परिवार तब भी सत्ता में था वह आज भी सत्ता में है ।

वैसे ये सवाल आजादी की आधी रात में जगमग होते संसद भवन के भीतर सपना जगाते नेहरु और कलकत्ता के बेलियाघाट में अंधेरे कमरे में बैठे महात्मा गांधी से लेकर दिल्ली में सत्ताधारी भाजपा के पांच सितारा हेडक्वाटर और 31 करोड बीपीएल घरों के भीतर के अंधेरे से भी समझा जा सकता है ।

फिर भी सत्ता ने खुद की सत्ता बरकरार रखने के लिये अपने को “अजेय भारत” से जोडा और जीत के गुणा भाग में फंसे विपक्ष ने “मोदी बनाम देश ” कहकर उस सोच से पल्ला झाड लिया कि आखिर न्यूनतम की लडाई लडते लडते देश की सत्ता तो लोकतंत्र को ही हडप ले रही है और अजेय भारत इसी का अभ्यस्त हो चला है कि चुनाव लोकतंत्र है । जनादेश लोकतंत्र है । सत्ता लोकतंत्र है ।

India no longer a nation with world's largest poor population: Report
photo: pti

अजेय भारत की राजधानी दिल्ली में भूख से मौत पर संसद-सत्ता को शर्म नहीं आती । पीने का साफ पानी मिले ना मिले , मिनरल वाटर से सत्ता स्वस्थ्य रहेगी, ये सोच नीति आयोग की उस बैठक में भी नजर आ जाती है जिसमें अजेय भारत के सबसे पिछडे 120 जिलों का जिक्र होता है । पांच बीमारु राज्य का जिक्र होता है । वह हर सत्ताधारी के आगे नीली ढक्कन वाली पानी की बोतल रहती है ।

और प्रधानमंत्री के सामने गुलाबी ढक्कन की बोतल रहती है। उच्च शिक्षा के लिये हजारों छात्र देश छोड दें तो भी असर नहीं पडता। बीते तीन बरस में सवा लाख बच्चों को पढने के लिये वीजा दिया गया । ताल ठोंककर लोकसभा में मंत्री ही बताते हैं , इलाज बिना मौत की बढती संख्या भी मरने के बाद मिलने वाली रकम से राहत दे देगी ।

इसका एलान गरीबों के लिये इंश्योरेंस के साथ दुनिया की सबसे बडी राहत के तौर पर प्रधानमंत्री ही करते हैं। और ये सब इसलिये क्योंकि अजेय भारत का मतलब सत्ता और विपक्ष की परिभाषा तले सत्ता ना गंवाना या सत्ता पाना है । तो सत्ता बेफिक्र है कि उसने देश के तमाम संवैधानिक संस्थानों को खत्म कर दिया । विपक्ष फिक्रमंद है जनता को जगाये कैसे , वह जागती क्यों नहीं ।

सत्ता मान कर बैठी है पांच बरस की जीत का मतलब न्यायपालिका उसके निर्णयों के अनुकूल फैसला दे । चुनाव आयोग सत्तानुकूल होकर काम करे। सीबीआई, ईडी, आईटी , सीवीसी, सीआईसी , सीएजी के अधिकारी विरोध करने वालों की नींद हराम कर दें । और देश में सबकुछ खुशनुमा है इसे मीडिया कई रंग में दिखाये जिससे जनादेश देने वाली जनता के जहन में यह रच बस जाये कि अजेय भारत का मतलब अजेय सत्ता है ।

Local people affected by the Jat agitation in a meeting in Rohtak. (Photo: PTI)
photo:pti

यानी मुश्किल ये नहीं है कि अजेय भारत में लोकतंत्र की जिस परिभाषा को सत्ता गढती आ रही है उसमें संविधान नहीं सत्ता का चुनावी एलान या मैनिफेस्टो ही संविधान मानने का दबाव है । मुश्किल तो ये है कि पंचायत से लेकर संसद तक और चपरासी से लेकर आईएएस अधिकारी तक या फिर हवलदार से लेकर सुप्रीम कोर्ट की चौखट तक में देश का हर नागरिक बराबर नहीं है ।

या कहें लोकतंत्र के नाम पर चुनावी राग ने ही जिस तरह ” अजेय भारत ” के सामानातंर “अजेय राजनीति” को देश में गढ दिया है उसमें नागरिक की पहचान आधार कार्ड या पासपोर्ट या राशन कार्ड नहीं है । बल्कि अजेय भारत में जाति कौन सी है । धर्म कौन सा है । देशभक्ति के नारे लगाने की ताकत कितनी है । और सत्ताधारी का इन्फ्रास्ट्रक्चर ही देश का सिस्टम है । सुकुन वही है । रोजगार वहीं है । राहत वहीं है । तो 2014 से निकलकर 2018 तक आते आते जब अजेय भारत का सपना 2019 के चुनाव में जा छुपा है

तो अब समझना ये भी होगा कि 2019 का चुनाव या उसके बाद के हालात पारंपरिक राजनीति के नहीं होंगे । यानी भाजपा अध्यक्ष ने अपनी पार्टी के सांसदों को झूठ नहीं कहा 2019 जीत गये तो 50 बरस तक राज करेंगे । और संसद में कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी झूठ नहीं कहा कि नरेन्द्र मोदी – अमित शाह जानते हैं कि चुनाव हार गये तो उनके साथ क्या कुछ हो सकता है । इसलिये ये हर हाल में चुनाव जीतना चाहते हैं । तो आखिर में सिर्फ यही नारा लगाइए , अबकी बार…आजादी की दरकार।

(यह लेख मूलतः पुण्य प्रसून बाजपेयी के फेसबुक पेज  पर प्रकाशित हुआ है।)

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