क्या नास्तिक व्यक्ति भी भाववादी हो सकते हैं? एक मंथन…

कुछ अनीश्वरवादी या नास्तिक लोग अपने को भौतिकवादी या पदार्थवादी समझते और कहते भी हैं.

परन्तु यदि वे पदार्थ को प्राथमिक नहीं मानते अर्थात उनके चिन्तन या विश्लेषण के तरीके में पदार्थ प्राथमिक नहीं होता और

वे विचार को ही बार-बार आगे करके तथ्यों और घटनाओं का विश्लेषण करते हैं तो वे भी भाववादी हो जाते हैं.

जैसे बहुत से ऐसे नास्तिक हैं जो जाति की भावना के आधार पर दोस्त/दुश्मन तय करते हैं. बहुत से ऐसे बुद्धवादी हैं जो

निजी सम्पत्ति को विवाद का मूल कारण बताने की बजाय लोभ, लालच, मोह, माया आदि विचारों को ही विवाद का मूल कारण बताते फिरते हैं.

जैसे राजनीतिक मामलों में कहते हैं कि फलां नेता की नीयत ठीक नहीं थी इसीलिए अमुक जातियों को अधिकार नहीं मिला.

अपनी समस्याओं के समाधान के लिए मौजूदा व्यवस्था को बदलने की बजाय अच्छी नीयत वालों को वोट देने के चक्कर में पड़े रहते हैं.

सामाजिक मामलों में गरीबी की समस्या का मूल कारण जातिगत भेद भाव को समझते हैं तथा गरीबी के कारण जातिगत नीचता नहीं मानते बल्कि जातिगत नीचता के कारण गरीबी मानते हैं.

किसी जाति को शोषक तो किसी जाति को शोषित मानते हैं. वे धर्म के आधार पर तय करते हैं कि फलां धर्म के राजा अच्छे और फलां धर्म के राजा बुरे होते हैं.

इस तरह जाति, नीयत, धर्म को ही प्राथमिक बना देते हैं जबकि ये सब के सब विचार के ही विभिन्न रूप हैं.

ऐसे में इनको प्राथमिक मान कर किसी तथ्य का विश्लेषण करते हैं तो ऐसे लोग नास्तिक होते हुए भी भाववादी ही होते हैं.

DISCLAIMER: (रजनीश भारती के निजी विचार हैं, इससे ‘आगाज़ भारत न्यूज़’ का कोई सरोकार नहीं है)

Leave a Comment

Translate »
error: Content is protected !!