पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा दिया गया चुनाव व लोकतन्त्र क्या असल में लोकतांत्रिक है?

क्या उंगली में स्याही लगाकर और मोहरे बदलकर ख़ुशफ़हमी में रहना काफ़ी है या फिर सच्चे जनतंत्र की चाभी कहीं और ढूँढने की ज़रूरत है?

कहने को कथित पूँजीवादी जनवाद में भी लोगों को हर 4-5 साल पर चुनाव द्वारा सरकार बदलने का मौक़ा दिया जाता है पर क्या सही अर्थों में चुनाव के ज़रिये कोई जनवादी सरकार आ सकती है?

क्या जब अमीर नेता करोड़ों रुपये बहा कर चुनाव का अपहरण कर लेते हैं तब कोई मज़दूर-किसान मामूली खर्च कर चुनाव जीत सकता है?

क्या यह तथाकथित स्वतन्त्र पूँजीवादी मीडिया किसी मज़दूर-किसान की पार्टी की नीतियों को अपने मीडिया में जगह देगी?

अगर कोई मज़दूर-किसान की पार्टी चुनाव जीत भी जाये तो क्या निम्नलिखित बुनियादी काम इस पूँजीवादी व्यवस्था के अन्य तीन स्तम्भ (कार्यपालिका, न्यायपालिका, पत्रकारिता) उसे करने देंगे-

1) न्यूनतम मज़दूरी को एक सम्माजनक जीवन जीने के स्तर तक पहुँचाना सुनिश्चित करना।
2) किसानों की लागत व मेहनत के ऊपर उनके लिये सम्माजनक जीवन जीने के लिये ज़रूरी खर्चे के अनुरूप उनकी उपज के दाम सुनिश्चित करना।
3) सभी नागरिकों के लिये निशुल्क व उच्चस्तर की सामान शिक्षा-चिकित्सा सुनिश्चित करना।
4) सभी के लिये रोज़गार की गारण्टी करना।
5) मशीनिकरण का फ़ायदा आप आदमी तक पहुँचाते हुए काम के घण्टों को 6-7 घण्टे तक ले आना।
6) पर्यावरण व प्राकृतिक संसाधनों को नुक़सान पहुँचाने वाले उध्योगपतियों को दण्डित करना।
7) महिलाओं को स्वतन्त्र, सम्माजनक व सुरक्षित जीवन जीने की गारण्टी करना।
8) धार्मिक-जातीय भेदभाव के ख़िलाफ़ सख़्ती से कार्यवाही करना।
9) सभी के लिये त्वरित न्याय सुनिश्चित करना।
10) देश को स्वावलंबी बनाना व साम्राज्यवादी देशों के साथ हुए देश विरोधी अनुबंधों को रद्द करना।

ज़रा दिमाग़ पर ज़ोर डालेंगे तो पायेंगे कि यह सब होने ही नहीं दिया जायेगा…ये अफ़सर व पूँजी- पतियों के बुद्धिजीवी इसको ग़ैर लोकतांत्रिक कहने लगेंगे व उसके ख़िलाफ़ देश-दुनियाँ के मंचों को इस्तेमाल करने लगेंगे.

सेनाध्यक्ष व पुलिसप्रमुख अपनी टुकड़ियों के साथ सरकार के ख़िलाफ़ खड़े हो जायेंगे. न्यायपालिका इस पर तुरन्त संज्ञान लेकर इसको ग़ैर-क़ानूनी, ग़ैर-संवेधानिक करार दे देंगी.

यह मीडिया बिलबिला उठेगा, अमेरिका-यूरोप आदि के साम्राज्यवादी तुरन्त हस्तक्षेप करने कूद पड़ेंगे, ज़रूरत पड़ी तो सेना के साथ आ धमकेंगे.

इसलिये भले ही कोई कितने सुनहले सपने दिखाये, इस मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था के अन्दर से इसे जनपक्श्धर बनाना असम्भव है.

श्रमजीवीयों व सहयोगी वर्गों को संगठित कर भगत सिंह के इंक़लाबी रास्ते से समाजवादी व्यवस्था क़ायम कर, समूचे तन्त्र को मेहनतकश के

हितों के अनुरूप खड़ा करके ही जनता के रोटी, कपड़ा, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन आदि बुनियादी हक सुनिश्चित किये जा सकते हैं, इसका कोई शोर्ट्कट नहीं है.

(DISCLAIMER: यह धर्मेन्द आजाद के निजी विचार हैं. आगाज़ भारत का इससे कोई सरोकार नहीं है)

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