‘राष्ट्रीय शिक्षिका दिवस’ मनाने की जरूरत क्यों है?

{गौतम कुमार प्रीतम}

जो बात 19वीं सदी में बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि शिक्षा शेरनी का वह दूध है जिसे जो जितना पिएगा वह उतना ही डालेगा दहाड़ेगा.

इस तथ्य को शायद सावित्रीबाई फुले तथा महात्मा ज्योतिबा फुले भली-भांति बहुत पहले ही समझ गए थे. शिक्षा के अभाव में शूद्रों और महिलाओं की जो दशा हुई, वह जानवरों से भी बदतर थी.

यही वजह है कि फुले दंपत्ति ने मिलकर भारत का पहला महिला विद्यालय 1 जनवरी, 1848 को पुणे के भीड़वाड़ा में खोलने का काम किया.

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उससे पहले सावित्रीबाई फुले का अध्यापक प्रशिक्षण अहमदनगर के एक मिशनरी स्कूल में हुआ था.  वहीं इस तथ्य को भी रेखांकित कर लेना चाहिए कि दूसरी छात्रा फातिमा शेख थीं.

प्रथम मुख्य अध्यापिका सावित्रीबाई फुले व दूसरी अध्यापिका फातिमा शेख व सगुणा बाई थीं. शिक्षा ग्रहण करने व अध्यापन का प्रशिक्षण लेने के बाद सावित्रीबाई फुले ने

शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं को शिक्षित-प्रशिक्षित करने का फ़ैसला लिया. इन्हें अपने जीवन साथी व मार्गदर्शक जोतीबा फुले की वो बातें हमेशा याद रहती थी कि-

“विद्या बिना मति गई, मति बिना नीति गई, नीति बिना गति गई, गति बिना वित्त गया, वित्त बिना शूद्र टूटे, इतने अनर्थ एक अविद्या ने किए.

जोतीबा फुलेजी ने अपने अंतिम काल में सार्वजनिक सत्यधर्म किताब लिखकर सत्यशोधक समाज की नीव रखी. उनके निधन बाद सावित्रीबाई ने सत्यशोधक समाज का काम मेहनत के साथ बखुबी निभाया.

मेहनतकश इन्सान को सम्मान, मेहनत को पुरी मजदूरी, जन्म के आधार पर इंसानों में भेदभाव की पाबंदी, स्वर्ग-नरक कल्पनाओं से परे तथा पाप-पुण्य के

दहशत के बिना लोगों में स्वयं नैतिक होने का आग्रह, निरर्थक धार्मिक कर्मकांड का त्याग, शिक्षा का प्रसार, मेहनत से अपने जीवन में प्रगती करना आदि सत्यशोधक समाज के सिध्दांत थे.

इसलिए सावित्रीबाई फुले अपने जीवन को एक मिशन के रूप में शिक्षा के लिए समर्पित होकर जीवनपर्यंत जुटीं रहीं.

हिंदू धर्म, समाजिक व्यवस्था और परंपरा में शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं को सभी मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया था.

आधुनिक भारत में पहली बार जिस महिला ने इसे चुनौती दिया, उनका नाम सावित्रीबाई फुले है. इन्होंने अपने कर्म और विचारों से वर्ण, जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को एक साथ चुनौती दी.

हिंदू धर्म परंपरा में शूद्रों और महिलाओं को एक समान माना गया है. अतिशूद्रों (अछूतों) को इंसानी समाज का हिस्सा नहीं माना गया अपितु उन्हें इंसान का दर्जा भी नहीं दिया गया.

निर्णय सिंधु में उद्धृत एक स्मृति में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि–स्त्रीशूद्राश्चय सधर्णाणः अर्थात् स्त्री और शूद्र एकसमान होते हैं.

भागवतपुराण के अनुसार स्त्री तथा शूद्रों को वेद सुनने का अधिकार नहीं है. दोनों को शिक्षा पाने का अधिकार नहीं है.

अध्ययन के मामले में ही नहीं स्त्रियों और शूद्रों को समान माना बल्कि सभी मामलों में शूद्रों और स्त्रियों को समान माना गया.

विवाह संस्कार को छोड़ दिया जाए तो अन्य सभी संस्कारों के मामले में स्त्रियों को शूद्रों के समकक्ष रखा गया है.

दोनों को संपत्ति के अधिकार से वंचित किया गया है. मनुस्मृति में साफ तौर पर कहा गया है कि पत्नी, पुत्र और दास के पास कोई संपत्ति नहीं हो सकती है.

उनके द्वारा अर्जित संपत्ति उनकी होती है जिसके वे पत्नी/पुत्र/दास हैं. हम देखते है कि भारतीय उपमहाद्वीप में वर्ण व्यवस्था ने सभी महिला समाज

सहित शुद्र-अतिशुद्र को एक श्रेणी में रखकर दमन-शोषण करने तथा अमानवीय कृत्य करने वाली पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ मजबूत इरादे के साथ काम किया है.

सावित्री फुले जब स्कूल पढ़ाने जाती थीं तो ये मनुवादी लोग इनका मज़ाक उड़ाते थे, गाली-गलौज करते, गोबर, बिष्ट, किचर इनके उपर फेंक देते थे.

पर माता सावित्री फुले बगैर किसी से उलझे स्कूल जाती और सबको पढ़ाने का कार्य करती. इन सबका ये क्या जबाव देती थी आपको मालूम है? नहीं! तो जानिए-

ये अपने पास में एक झोला रखती थीं और उसमें पहनने के लिए साड़ी रखतीं किचर-गोबर वाली साड़ी बदल लेती और स्कूल पहुँचकर छात्राओं को शिक्षा देती थीं.

एक दिन जब सावित्री फुले स्कूल से घर वापस आ रही थीं तो एक बदमाश ने उन्हें धमकी देते हुए कहा कि यदि तुमने महार और मांगों

(अछूत मानी जाने वाली जातियां) को पढ़ाना बंद नहीं किया तो तुम्हारे लिए ठीक नहीं होगा, तुम्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.

लोग इस दृश्य को देखने के लिए इकट्ठा हो गए लेकिन कोई भी सावित्रीबाई फुले को बचाने के लिए सामने नहीं आया.

सावित्रीबाई डटकर खड़ी रहीं, उन्होंने उस बदमाश को एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया. वह बदमाश भाग खड़ा हुआ और दर्शक भी चले गए.

यह खबर आग की तरह पूरे पुणे में फैल गई और उसके बाद ऐसी कोई घटना दुबारा नहीं घटी. 1852 में उन्हें आदर्श शिक्षक पुरस्कार प्राप्त हुआ था.

इसी वर्ष सरकार द्वारा फुले दंपत्ति का शिक्षा में उनके योगदान के लिए अभिनंदन किया गया था. विधवा महिलाओं के लिए भी प्रेरणास्रोत कार्य किये हैं.

बाल विवाह के खिलाफ आंदोलन, विधवा विवाह सहित अनेक ऐसे कार्य किये जिसका पुरा जिक्र यहां करना संभव नही है, लेकिन उसे पढ़ने-समझने की जरूरत है.

महाराष्ट्र की तो ये आदिकवि को रूप में स्थापित हुई और अपने जीवन पर्यंत 71 स्कूलों को खोलने का महत्वपूर्ण काम किया.

सावित्रीबाई और जोतीबा की कोई संतान नहीं थी. जोतीबा पर यह दबाव था कि वे किसी और स्त्री से विवाह कर लें ताकि वे अपने वारिस को जन्म दे सकें.

किन्तु जोतीबा ने ऐसा करने से इंकार कर दिया. उनका तर्क था कि ऐसे भी हो सकता है कि संतान न होने का कारण वे स्वयं हों तो क्या ऐसी स्थिति में सावित्रीबाई को दूसरे पुरुष से विवाह करने की इजाजत दी जाएगी.?

फुले दपंत्ति ने एक बच्चा गोद लेने का निर्णय लिया. सन् 1874 में एक रात मूठा नदी के किनारे टहलते समय जोतीबा की नजर एक महिला पर पड़ी जो अपना जीवन समाप्त करने के लिए नदी में कूदने को तैयार थी.

जोतीबा ने दौड़कर उसे पकड़ लिया. उस स्त्री ने उन्हें बताया कि वह विधवा है और उसके साथ बलात्कार हुआ था. उसे छह माह का गर्भ था, जोतीबा ने उसे सांत्वना दी और अपने घर ले गए.

सावित्रीबाई ने खुले दिल से उस स्त्री का अपने घर में स्वागत किया. उस स्त्री ने एक बच्चे को जन्म दिया, जिसका नाम यशवंत रखा गया.

फुले दंपत्ति ने यशवंत को गोद ले लिया और उसे अपना कानूनी उत्तराधिकारी घोषित किया. उन्होंने यशवंत को शिक्षित किया और वह आगे चलकर डॉक्टर बना.

यह तथ्य कि फुले दंपत्ति ने स्वयं संतान को जन्म देने की जगह एक अनजान स्त्री के बच्चे को गोद लेने का निर्णय किया. अपने सिद्धांतों और विचारों के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करता है.

ऐसा करके उन्होंने जाति, वंश, मातृत्व, पितृत्व इत्यादि के संबंध में प्रचलित रूढ़िवादी धारणाओं को खुलकर चुनौती दी.

यशवंत ने भी सामाजिक कार्यों में फुले दंपत्ति का सहयोग किया. विधवा का पुत्र होने के चलते यशवंत की शादी होने में दिक्कतें आईं.

4 फरवरी, 1889 को उनका सत्यशोधक पद्धति से विवाह हुआ. कहने का तात्पर्य इतना है कि आज के इस आधुनिक भारत में सावित्रीबाई फुले के कार्य और विचार की रोशनी की नितांत आवश्यकता है.

इसलिए हमें इनके जन्म दिन को राष्ट्रीय शिक्षिका दिवस समारोह पूर्वक मनाने की जरूरत है ताकि आने वाली पीढ़ी इनसे प्रेरण और ऊर्जा ले सकें.

सावित्रीबाई फुले, प्लेग रोगियों की सेवा करते हुए प्लेग बिमारी के कारण हीं 10 मार्च, 1897 को अंतिम साँस ली. हम माता सावित्रीबाई फुले को सादर नमन अर्पित करते हैं.

 

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