- महाड़ सत्याग्रह: जब पानी पीने के लिए बहाना पड़ा था लहू, आंबेडकर ने ऐसे दिलाया था हक
कहते हैं जल ही जीवन है, जल के बिना जीना मुमकिन नहीं लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस पानी के लिए हमें कितना संघर्ष करना पड़ा है?
क्या आपको पता है कि एक वक़्त वो था जब मैं और मेरे जैसे करोड़ों लोग पानी को इस तरह छू भी नहीं सकते थे?
आज से 95 साल पहले इस जल की भी जाति थी. नदियाँ, तालाब और कुएँ जातियों के हिसाब से बंटे हुए थे. सवर्ण जाति के लोगों के पास पानी की कोई कमी नहीं थी
लेकिन दलित-अछूत कही जाने वाली जाति के लोग बूँद-बूंद के लिए मोहताज थे. लोग प्यास से मर जाते थे लेकिन जातिवादी उनके हलक से पानी की एक घूँट भी नीचे नहीं जाने देते थे.
कुत्ते-बिल्ली पानी पी सकते थे लेकिन अछूत नहीं:
उन तालाबों से कुत्ते-बिल्ली से लेकर गाय-भैंस तक पानी पी सकते थे लेकिन किसी दलित को पानी पीने का हक़ नहीं था.
ब्राह्मणवादियों ने पानी-पानी में भी बँटवारा कर दिया था लेकिन इस घटिया प्रथा और मनुवादी सोच के ख़िलाफ़ बाबा साहब डॉ आंबेडकर ने ऐसा विद्रोह किया कि मनुवाद की जड़ें हिल गई.
20 मार्च, 1927 को रचा गया इतिहास:
दोपहर का वक़्त था, सूरज की किरणें तालाब के पानी पर पड़ती तो चमक उठती. तालाब की सीढ़ियों से एक हुजूम नीचे उतर रहा था.
सबसे पहले डॉ अम्बेडकर तालाब की सीढ़ियों से नीचे उतरे. उन्होंने नीचे झुककर अपने हाथ से पानी को स्पर्श किया.
यही वो ऐतिहासिक पल था जिसने एक क्रांति को जन्म दिया, जिसने इंसान और इंसान में फ़र्क़ करने वाली घटिया सोच पर सबसे करारा वार किया था.
भारतीय इतिहास में यही वो पल था जिसने भारत को असल मायनों में एक राष्ट्र बनाने की नींव डाली थी. भारतीय इतिहास की इस महान घटना ने करोड़ों अछूतों को इंसान होने का दर्जा दिलाया था.
एस. के बोले ने पास कराया था विधेयक:
अंग्रेज़ी शासन काल में सन 1924 में महाराष्ट्र के समाज सुधारक एस.के. बोले ने बम्बई विधानमंडल में एक विधेयक पारित करवाया जिसमें सरकार द्वारा संचालित
संस्थाओं जैसे अदालत, स्कूल, हॉस्पिटल, पनघट, तालाब जैसे सार्वजनिक स्थानों पर अछूतों को प्रवेश और उनका उपयोग करने का आदेश दिया गया.
कोलाबा जिले के महाड में स्थित चवदार तालाब में ईसाई, मुसलमान, पारसी, पशु, यहाँ तक कि कुत्ते भी तालाब के पानी का उपयोग करते थे लेकिन अछूतों को यहाँ पानी छूने की भी इजाजत नहीं थी.
लेकिन सवर्ण हिन्दुओं ने नगरपालिका के आदेश भी मानने से इनकार कर दिया. विधेयक पारित होने के बावजूद जातिवादी सवर्ण हिंदुओं ने अछूतों को सार्वजनिक तालाबों और कुओं से पानी नहीं पीने दिया.
अधिकार छीनने पड़ते हैं– डॉ आंबेडकर
डॉ आंबेडकर कहा करते थे-‘अधिकार माँगने से नहीं मिलते बल्कि अपने अधिकारों को छीनना पड़ता है’. बंबई विधानमंडल से अछूतों को सार्वजनिक जगहों से पानी पीने का हक़ तो मिल गया था
लेकिन ब्राह्मणवादियों ने उन्हें पानी को छूने तक नहीं दिया. इसीलिए बाबा साहब अधिकार माँगने की जगह अपने अधिकार को छीनने के लिए निकल पड़े.
डॉ आंबेडकर अपने सहयोगियों के साथ 19-20 मार्च, 1927 को महाड के चवदार तालाब को मुक्त कराने के लिए सत्याग्रह करने का फैसला किया.
महाड़ कूच करने से पहले बाबा साहब ने कहा था ‘तीन चीजों’ का तुम्हें छोड़ना होगा. उन कथित गंदे पेशों को छोड़ना होगा जिनके कारण तुम पर लांछन लगाये जाते हैं.
दूसरे, मरे हुए जानवरों का मांस खाने की परम्परा को भी छोड़ना होगा और सबसे अहम है कि तुम उस मानसिकता से मुक्त हो जाओ कि तुम ‘अछूत’ हो.
उन्होंने पीने के पानी पर सबके समान हक की बात दोहराते हुए कहा ‘क्या यहां हम इसलिये आये हैं कि हमें पीने के लिए पानी मयस्सर नहीं होता है?’
क्या यहां हम इसलिये आये हैं कि यहां के जायकेदार कहलाने वाले पानी के हम प्यासे हैं? नहीं, दरअसल इन्सान होने का हमारा हक जताने हम यहां आये हैं.
बाबा साहब ने रच दिया इतिहास:
20 मार्च की सुबह बाबा साहब की अगुवाई में लगभग पांच हजार लोग शान्तिपूर्ण तरीके से तालाब पर पहुँचें. सबसे पहले बाबा साहब तालाब की सीढ़ियों से उतरे.
पानी हाथ में लिया और कहा ‘इस पानी को पीने से हम अमर नहीं हो जाएंगे लेकिन इससे ये साबित होगा कि हम भी इंसान हैं.
इसके बाद उन्होंने पानी की घूँट भरी और फिर सभी लोगों ने पानी पिया. भारत के इतिहास में ये पहली घटना थी जब अछूतों ने सार्वजनिक तालाब से पानी पिया था.
ये अछूतों के लिए ऐतिहासिक क्षण था. वसुधैव कुटुंबकम, सनातनी परंपरा और कभी विश्वगुरु होने की दुहाई देने वाला भारतीय समाज असल मायनों में असंख्य जातियों और वर्गों में बंटा हुआ है.
ब्राह्मणवादियों ने अपनी मक्कारी से समाज के सबसे दबे-कुचले वर्गों को पानी जैसी बुनियादी चीज़ से भी वंचित कर दिया लेकिन बाबा साहब जैसे महानायक ने मनुवादियों को उनके गढ़ में जाकर सीधी चुनौती दी.
ये एक प्रकार से सवर्णों के खिलाफ विद्रोह था. महाड़ सत्याग्रह दासता और गुलामी को तोड़ने की शुरुआत थी लेकिन बौखलाए हिन्दू अछूतों के इस साहस को बर्दाश्त नहीं कर पाए.
अफवाह फैलाई गई कि चवदार तालाब को अपवित्र करने के बाद अछूतों की ये टोली विरेश्वर मंदिर में भी दाखिल होने वाली है.
जातिवादी सवर्णों ने डॉ आंबेडकर के साथ आए लोगों पर लाठियों से हमला कर दिया. महिलाओं से लेकर बच्चे और बुजुर्गों तक पर जातिवादियों का कहर टूट पड़ा.
डॉ आंबेडकर ने हिंसा का रास्ता नहीं अपनाया, उन्होंने अपने लोगों को किसी तरह शांत रखा. इस हमले में बहुत से लोग घायल हो गए.
बाबा साहब ने मनुवाद की गर्भनाल को ही काट दिया था जिससे मनुवादी बुरी तरह बौखला गये थे.
गोबर-गौमूत्र से किया शुद्धिकरण:
सवर्णों ने अछूतों के छूने से अपवित्र हुए चवदार तालाब का शुद्धिकरण करने के लिए गोबर और गौमूत्र तालाब में डलवाया और मंत्रों के जरिए तालाब को शुद्ध करने का ढोंग किया.
घटियापने की हद देखिए, ये लोग तालाब में गौमूत्र डाल रहे थे, गाय के मूत को पी रहे थे लेकिन किसी दलित का छुआ पानी इनके हलक में अटक जाता था.
महाड़ सत्याग्रह को क़रीब 100 साल बीत गए लेकिन इतना वक़्त गुज़र जाने के बाद भी जाने कितने ही लोग जाति के वायरस से संक्रमित हैं.
वो आज भी गाय का मूत शौक़ से पी लेते हैं लेकिन अगर कोई दलित उन्हें छू ले तो उनकी जान हलक में आ जाती है.
ऐसे घटिया लोग आज भी अपने आप को जन्म के आधार पर ऊँचा और दूसरों को नीचा मानते हैं. इस घटिया सोच से ज़बरदस्त टक्कर लेने के बाद बाबा साहब ने आख़िरकार हमें पानी पीने का अधिकार दिलाया था.
महाड़ सत्याग्रह का दूसरा चरण:
20 मार्च की घटना के बाद सवर्णों ने तालाब पर फिर से कब्जा कर लिया. इसके जवाब में डॉ आंबेडकर ने फिर से 25 दिसंबर को सत्याग्रह की योजना बनाई.
महाड़ सत्याग्रह के दूसरे चरण को सफल बनने के लिए जगह-जगह सम्मेलन किये गए. इसी कड़ी में बम्बई में आयोजित एक सभा में 3 जुलाई, 1927 को बाबासाहब ने कहा था-
‘सत्याग्रह का अर्थ लड़ाई लेकिन यह लड़ाई तलवार, बंदूकों, तोप तथा बमगोलों से नहीं करनी है बल्कि हथियारों के बिना करनी है.
जिस तरह पतुआखली, वैकोम जैसे स्थानों पर लोगों ने सत्याग्रह किया उसी तरह महाड़ में हमें सत्याग्रह करना है.
इस दौरान सम्भव है कि शान्तिभंग के नाम पर सरकार हमें जेल में डालने के लिए तैयार हो इसलिये जेल जाने के लिए भी हमें तैयार रहना होगा.
सत्याग्रह के लिए हमें ऐसे लोगों की जरूरत है जो निर्भीक तथा स्वाभिमानी हों. अस्पृश्यता यह अपने देह पर लगा कलंक है और इसे मिटाने के लिए जो प्रतिबद्ध हैं.
बाबा साहब के बुलावे पर हजारों लोग फिर से सत्याग्रह के लिए इकट्ठा हुए लेकिन पुलिस ने हालात बिगड़ने की आशंका के मद्देनज़र उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया.
मजबूरी में पहाड़ सत्याग्रह का दूसरा चरण रद्द करना पड़ा लेकिन इसके बाद डॉ आंबेडकर ने कानून का सहारा लिया.
डॉ आंबेडकर ने बम्बई हाईकोर्ट में करीब 10 साल तक ये लड़ाई लड़ी और आखिरकार 17 दिसम्बर, 1936 को अछूतों को चवदार तालाब में पानी पीने का अधिकार मिल ही गया.
अछूतों के लिए एक ऐतिहासिक जीत थी-पानी पीने के हक की लड़ाई. डॉ आंबेडकर पानी जैसी बुनियादी चीज़ के लिए लड़ रहे थे लेकिन उस समय के तमाम बुद्धिजीवियों और समाज सुधारकों ने उनकी इस लड़ाई में साथ नहीं दिया.
शायद उन सवर्ण समाज सुधारकों को इतनी बड़ी आबादी का पानी के लिए तरसना कोई बड़ी बात नहीं लगती होगी.
यहाँ तक कि उस समय के मीडिया ने भी बाबा साहब और उनके आंदोलन के ख़िलाफ़ खुलकर ज़हर उगला. अछूतों के इस ऐतिहासिक विद्रोह के प्रति मीडिया ने कट्टर जातिवादी रुख अपनाया.
तमाम अखबारों ने डॉ आम्बेडकर के इस बाग़ी तेवर के खिलाफ आग उगलना शुरू कर दिया. सनातनी हिंदुओं का एक समूह भाला नाम का अखबार निकालता था,
उसने 28 मार्च को दलितों को चेतावनी देते हुए लिखा ‘आप लोग मन्दिरों और जलाशयों को छूने की कोशिशें तुरंत बन्द कर दो.
अगर ऐसा नहीं किया गया तो हम तुम लोगों को सबक सीखा देंगे. इसके जवाब में बाबा साहब ने लिखा था ‘जो हमें सबक सिखाने की बात कर रहे हैं हम उनसे भी निपट लेंगे.
अपनी आख़िरी साँस तक अपनी असंख्य संतानों के लिए एक ऐसा भारत बनाने में जुटे रहे जहां कोई भेदभाव ना हो, जहां समानता, न्याय और बंधुत्व की बात हो.
आज मैं और आप जब मन चाहे पानी पी सकते हैं, जैसा चाहें वैसा पानी पी सकते हैं. आज हम 20 रुपये की पानी की बोतल से लेकर 200 रुपये तक की पानी की बोतल ख़रीदने के लायक़ हैं.
लेकिन हमें इस लायक़ बनाने के लिए बाबा साहब डॉ आंबेडकर को बहुत संघर्ष करना पड़ा. इसलिए हमारी हर घूँट बाबा साहब और उनके असंख्य सहयोगियों के
अदम्य साहस और संघर्ष की क़र्ज़दार है, इसीलिए चावदार तालाब क्रांति दिवस पर पानी की ये घूँट पीते हुए हमें बाबा साहब का शुक्रिया अदा करना चाहिए.