धर्म को राजनीति में घुसा देने पर धर्म, धर्म नहीं रह जाता वह भी राजनीति हो जाता है. आरएसएस धर्म को राजनीति में घुसा रहा है.
वह यही चाहता है कि मुसलमान भी धर्म की राजनीति करें. RSS अपनी बनायी पिच पर खेलने के लिए मुसलमानों को भी खींचकर लाना चाहता है.
इसके लिए आरएसएस ने कुछ कठमुल्लों को लगा रखा है. नाम लेने की जरूरत नहीं है. भारत में धर्म को राजनीति में घुसा कर जनता को जनता से लड़ाने की साजिशें 1857 से ही जारी हैं.
ऐसी परिस्थिति में बहुसंख्यक धर्म के गरीबों को बहुत ज्यादा खतरा है. राजनीति में धर्म को घुसा देना बहुसंख्यक धर्म के दलालों के हित में ही होता है.
परन्तु जो अल्पसंख्यक हैं उनके लिए धर्म को राजनीति में घुसाना खतरे से खाली नहीं है. इसे अधिकांश अल्पसंख्यक बुद्धिजीवी समझता है.
वह जानता है कि धर्म को राजनीति में घुसाने से अल्पसंख्यकों पर खतरा बढ़ जाता है. आज भारत का अल्पसंख्यक ज्यादा खतरा महसूस कर रहा है,
खास तौर पर मुसलमान ज्यादा खतरा महसूस कर रहा है, उस पर हमले बढ़ रहे हैं, वह डरा हुआ है. इस डर से निकलने के लिये
कुछ मुसलमान कांग्रेस की शरण में जाना चाहते हैं मगर फिर वे सोचते हैं कि इसी कांग्रेस की छत्रछाया में या यूं कहें कि इसी के शासनकाल में आरएसएस जैसे संगठन फले फूले.
आज भी कांग्रेस के अधिकतर अहम पदों पर RSS के लोग काबिज हैं. देश विभाजन, विभाजन के दौरान दंगे, दंगों में 10 लाख से अधिक निर्दोषों की हत्या,
1984का सिख विरोधी दंगा… इनके छिट-पुट कारनामों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है. कुछ मुसलमान लोग सपा-बसपा जैसी जातिवादी पार्टियों की शरण में जाना चाहते हैं,
मगर वे देख रहे हैं कि इन्हीं जातिवादी नेताओं और उनकी पार्टियों के सहयोग, समर्थन या फूट डालने की नीति के कारण ही भाजपा सत्ता में है.
कुछ मुसलमान अपनी सियासत अपनी कयादत के नाम पर अपनी बिरादरी के पूंजीपतियों को मजबूत करने में लगे हैं. मगर इस तरह की मुस्लिम साम्प्रदायिकता छिपे तौर पर हिन्दू साम्प्रदायिकता को जायज ठहराने के साथ-साथ मजबूत भी बनाती है.
जाहिर सी बात है अगर आप 15-20% प्रतिशत मुसलमानों को धर्म के नाम पर इकट्ठा होने को जायज मानते हैं तो 80 प्रतिशत हिन्दू आबादी को धर्म के नाम पर संगठित होने को नाजायज कैसे कह पायेंगे?
मुसलमानों, सिखों, इसाईयों का प्रगतिशील तबका यह जानता है. इसीलिये वह राजनीति में धर्म को घुसाने की परम्परा को नाजायज मानता है.
कम्यूनिस्ट भी इस बात से सहमत होते हैं. कुछ मुसलमान लोग कम्यूनिस्ट पार्टी का साथ देना चाहते हैं, मगर उन्हें आरएसएस के छिपे हुए एजेंट
भड़काते हैं कि ‘कम्यूनिस्ट लोग ईश्वर को नहीं मानते, वे तुम्हारा धर्म चौपट कर देंगे.’ इस झूठ का पर्दाफाश करने के लिए सच्चाई से पर्दा उठाना जरूरी है.
सच्चाई तो आप के सामने है-ईश्वर को मानने वाले लोग ही गाय, गोबर, गंगा, मन्दिर, मस्जिद, चर्च के नाम पर जनता को जनता से लड़ा रहे हैं तथा
धार्मिक अल्पसंख्यकों की माबलिंचिंग कर रहे हैं. जबकि कम्यूनिस्ट किसी भी धर्म को मानने वालों का विरोध नहीं करते,
पूजा पद्धति को लेकर किसी को एक गाली भी नहीं दे सकते. वे तो सिर्फ शोषण का विरोध करते हैं. वे चाहते हैं कि कोई इंसान किसी इंसान का खून हरगिज न पी सके.
कोई ताकतवर देश किसी कमजोर देश का शोषण न कर सके. धार्मिक बहुसंख्यक लोग किसी धार्मिक अल्पसंख्यक को सता न सकें.
कमजोर लोगों को सताने वाले जालिम कितना भी ताकतवर हों, कम्यूनिस्ट हमेशा उन जालिमों के खिलाफ और सताए जा रहे लोगों के साथ खड़ा होता है.
आरएसएस के लोग कहते हैं कि कार्ल मार्क्स ने धर्म को ‘अफीम’ कहा था. मगर सच्चाई कुछ अलग ही है. मार्क्स ने धर्म के अलग-आलग रूपों को बताते हुए चार बातें कही थीं-
1- धर्म हृदयहीन संसार का हृदय है
2- धर्म अमीरों की शान और गरीबों की सिसकियां है
3- धर्म निरुत्साह का उत्साह है
4- धर्म जनता के लिए अफीम का गोला है
धर्म हृदयहीन संसार का हृदय कैसे है, इसे आप देख सकते हैं-निजी सम्पत्ति बढ़ाने की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में मनुष्य हृदयहीन होता जा रहा है.
ऐसे में धर्म के नाम पर कुछ लोग दिलवाला बनकर थोड़ा दान-पुन्न कर लेते हैं. धर्म अमीरों की शान और गरीबों की सिसकियां कैसे है.?
अमीर आदमी गरीबों का लूटकर बेशुमार धन इकट्ठा कर लेता है, मगर वो ये नहीं बताया कि उसने गरीब जनता से ही लूटकर इकट्ठा किया है.
वह बड़ी शान से कहता है कि ये सब मुझे ईश्वर ने दिया है. वहीं गरीब आदमी प्रार्थना करते समय सिसिक-सिसिक कर रोते हुए ईश्वर से अपने बच्चों का पेट पर्दा चलाने के लिए दुआ मांगता है.
धर्म निरुत्साह का उत्साह है. आप देखें होंगे कि जब मनुष्य हताश और निराश होकर थक हार कर बैठ जाता है तो ऐसी परिस्थिति में ईश्वर पर भरोसा करके संघर्ष में फिर उतर जाता है.
उसे विश्वास होता है कि ईश्वर उसकी मदद करेगा, यही विश्वास उसकी हिम्मत को बढ़ा देता है. धर्म जनता के लिए अफीम का गोला कैसे है?
आज गाय, गोबर, गंगा, गीता, मन्दिर मस्जिद के नाम पर जो नफरत फैलायी जा रही है, इसे अफीम नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे?
हमारे देश भारत में अनु. 370, तीन तलाक़, अयोध्या मामला, तबलीगी जमात, ज्ञानवापी, घर वापसी, आदि के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ क्या हो रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है.
मगर फर्जीे वीडियो बनाकर यह दिखाया जा रहा है कि चीन के कम्यूनिस्ट शासन में मुसलमानों को सताया जा रहा है.
ऐसी झूठी अफवाहें फैलाकर चीन के कम्यूनिस्ट शासन को इसलिये बदनाम किया जा रहा है क्योंकि अमेरिका और आरएसएस
दोनों को यही डर है कि भारत या अन्य देशों के मुसलमान लोग कहीं कम्यूनिस्टों के साथ न एकजुट हो जायें. दूसरी तरफ अंधभक्त भी नहीं चाहते कि
गरीब मुसलमान लोग कम्यूनिस्टों के साथ मिलकर मौजूदा व्यवस्था का तख्तापलट कर मजदूरों-किसानों का राज कायम करें.
थोड़े अन्तरों के साथ दलित एवं पिछड़े वर्गों के मामले में भी आरएसएस का यही नजरिया है. इसलिए RSS की चाल में फंसने से पहले दलितों,
पिछड़ों, मुसलमानों में जो शोषित-पीड़ित लोग हैं, वे खुद से सवाल करें कि आखिर कम्यूनिस्ट विचार धारा में ऐसा क्या है जो उनके खिलाफ है?
यही सवाल हिन्दुत्व का रा-मैटेरियल बन चुके गरीब सवर्णों से भी है. जहां तक मुसलमानों का सवाल है वे जब तक धर्म को बेहद निजी मामला समझकर उसे राजनीति से अलग नहीं करेंगे
तब तक वे आर एस एस की बनायी ‘पिच’ पर खेलते रहेंगे. जातिवाद भी RSS की ही बनायी हुई ‘पिच’ है. इसलिये साम्प्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए सपा,
बसपा, जैसी जातिवादी ताकतों के साथ भी खड़े होना आत्मघाती कदम होगा क्योंकि ये जातिवादी ताकतें जनता में फूट डालकर या भाजपा आरएसएस का समर्थन
करके साम्प्रदायिक ताकतों को ही मजबूत बनाते हैं. अत: साम्प्रदायिक ताकतों के साथ-साथ जातिवादी ताकतों से भी लड़ना होगा, दोनों से लड़े बगैर वह आरएसएस के फरेबों या साजिशों से नहीं बच सकता.
ध्यान रहे, हम मुसलमानों को कम्यूनिस्ट बनाने की बात नहीं कर रहे हैं. ऐसा करके हम राजनीति में धर्म को नहीं घुसाना चाहते.
इसी तरह दलितों पिछड़ों, गरीब सवर्णों को भी हम कम्यूनिस्ट बनाने की बात नहीं कर रहे हैं. ऐसा करके हम मार्क्सवाद में जातिवाद घुसाने का अक्षम्य अपराध नहीं कर सकते.
हम तो सिर्फ मजदूरों, किसानों, बुनकरों, कारीगरों, छात्रों, नौजवानों को कम्यूनिस्ट क्रान्तिकारी बनने के लिए प्रेरित करते हैं, वे किसी भी जाति या धर्म के हों.
(रजनीश भारती, जनवादी किसान सभा)