(आलेख: बादल सरोज)
सारे अनुमानों, सम्भावनाओं और कुछ धर्मप्राण जनों की उम्मीदों पर लोटा भर ठण्डा पानी डालते हुए अंततः 22 जनवरी के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह की जजमानी का
भार खुद मोदी जी ने ही धारण करते हुए इस आयोजन को सचमुच में उस गत; चुनावी राजनीति की दुर्गत-में पहुंचा ही दिया,
जिसके लिए देश की जनता की खून पसीने की कमाई का हजारों करोड़ रुपया फूंककर इसे एक महाउत्सव-सा बनाने की हर संभव-असंभव कोशिशें की गयी थीं.
सोमवार को अयोध्या में जो हुआ, उसमें बाकी सब जो भी था-वह था, धर्म कहीं नहीं था. अधूरे मंदिर के अन्दर और उसके बाहर जो भी हुआ,
वह धार्मिक आयोजन नहीं था; देश के लिए खतरनाक अंदेशों से भरा और उतने ही अशुभ इरादों से किया गया शुद्ध राजनीतिक कार्यक्रम था.
यह बात, जिस धर्म के नाम पर इसे किया गया, उसके धर्माचार्य शुरू से ही कह रहे थे. सनातन धर्म के आधिकारिक प्रतीक और प्रवक्ता
माने जाने वाले चारों शंकराचार्यों ने इस अधबने, अपूर्ण और दिव्यांग मंदिर में स्थापित की जाने वाली मूर्ति में की जा रही कथित प्राण-प्रतिष्ठा को
लेकर धर्मशास्त्रों के हवाले से अनेक सवाल उठाये थे. उन्होंने इसके धर्म सम्मत नहीं, बल्कि धर्म विरुद्ध भी होने तक की बात कही थी.
इन सहित जिन्हें भी इस धर्म-हिन्दू धर्मं-में प्रामाणिक माना जाता है, ज्यादातर उन सभी ने इसके समय, प्रक्रिया, तरीके आदि-इत्यादि को भी अनुचित बताया था.
खुद इस आयोजन का मुहूर्त निकालने वाले ज्योतिषी तक ने भी कह दिया था कि मुहूर्त देख तारीख निकाली नहीं गयी है, बल्कि महीना बताकर निकलवाई गयी है.
इनमें से किसी ने भी इस समारोह में हिस्सा नहीं लिया और इस तरह अपनी असहमति सार्वजनिक रूप से भी दर्ज कर दी.
बाकी बची खुची इसकी असलियत प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश की राज्यपाल के साथ आरएसएस प्रमुख की उपस्थिति और उनके पहुँचने से भी पहले जा पहुंचे टीवी कैमरों की तैनाती ने उजागर कर दी थी.
कुल मिलाकर यह कि इसका उस धर्म से किसी भी तरह का संबंध नहीं, जिसके नाम पर किया जाना इसे बताया गया है.
यह हिंदुत्व को प्राण प्रतिष्ठित करने की कोशिश थी–उस हिंदुत्व को, जिसके बारे में इस शब्द के जन्मदाता और इस कुनबे का जो भी,
जैसा भी विचार है, उसके प्रदाता विनायक दामोदर सावरकर कह गए हैं कि “इसका हिन्दू धर्म की धार्मिक मान्यताओं और परम्पराओं के साथ कोई संबंध नहीं है,
यह एक राजनीतिक शब्द है, जो एक ख़ास तरह की शासन प्रणाली को अभिव्यक्त करता है.“ यह अलग बात है कि इसे साफ़-साफ़ स्वीकार करने की
सावरकर जैसी स्पष्टवादिता दिखाने का साहस इस आयोजन के आयोजकों और यजमान किसी में नहीं दिखा.
22 जनवरी को अयोध्या में नई जगह पर नए मंदिर की नहीं, नए धर्मं की शुरुआत की गयी है. एक ख़ास तरह की राजनीति को आगे ले जाने का धर्म,
जिसका न अध्यात्म के साथ कोई रिश्ता है, न भारतीय धार्मिक और दार्शनिक परम्परा के साथ कोई तादात्म्य है;
जिसकी न कोई आत्मा है, न जिन्हें परमात्मा कहा जाता है, उनके साथ ही कोई संबंध है। धर्म ही नहीं, उनके राम भी नए हैं.
हमारे राम कहकर, जिन्हें असमय ही निर्माणाधीन भवन में विराजमान करने के नाम पर यह तमाशा किया गया है, ये वे राम नहीं हैं,
जिन्हें धर्म को मानने और न मानने वाला भारतीय समाज अब तक जानता आया है, एक बड़ा हिस्सा उन्हें मानता भी आया है.
ये वाल्मीकि, तुलसी, जैन और बौद्ध रामायणों सहित अनेक भाषाओं में लिखे गए साहित्य में रचे और चित्रित किये गए राम नहीं हैं.
ये वे राम हैं, जिन्हें अभी कुछ महीनों बाद होने वाला चुनाव जीतने के लिए और उसके बाद, उनके नाम पर एक ऐसा सामाजिक ढांचा खड़ा करने के लिए गढ़ा गया है,
जो कैसा होगा, इसे इन राम को गढ़ने वाले अपने कामों से लगातार बताते रहते हैं. इस आयोजन के ठीक दो दिन पहले
हत्या और बलात्कार के अपराधी गुरमीत राम रहीम की एक बार फिर पैरोल पर रिहाई और उसी जैसे आसाराम के साथ इस कुनबे के बड़े-बड़े नेताओं के
करीबी रिश्तों की वीडियो दर्ज गवाही और सुप्रीम कोर्ट द्वारा रिहाई रद्द किये जाने के बाद 11 बलात्कारी हत्यारों की गुजरात की जेल में वापसी
की ताजी घटनाएं उस कथित राम-राज का जायजा देने के लिए काफी हैं, जिसका दंभ भरा जा रहा है, ये भाजपा और संघ के राम हैं.
{To be continued…}