18वीं लोकसभा के निर्वाचन के लिए मतदान शुरू होने वाला है. सभी–यहाँ तक कि जो खुद को सबसे सुरक्षित और पुरयकीन दिखा रहे हैं,
वे सत्तासीन भी–मानते हैं कि ये चुनाव आसान नहीं हैं. देश के भविष्य के लिए तो बिलकुल भी आसान नहीं हैं.
लोकतंत्र में चुनावों के दौरान जो होता है वह हो रहा है. विपक्ष जनता के जीवन से जुड़े मुद्दों को अपनी पूरी शक्ति के साथ मतदाताओं के बीच ले जाने में जुटा है,
वहीँ सता पक्ष इनको छुपाने के लिए तरह-तरह के ध्यान भटकाऊ, आग लगाऊ, भावनात्मक शोशे उछालने में व्यस्त है.
मगर इस बार के चुनाव सिर्फ देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक दिशा ही तय नहीं करने जा रहे हैं, उनके साथ भारत की प्रेस की स्वतंत्रता का सवाल भी तय होने जा रहा है.
इसलिए प्रेस, मीडिया, अखबार और सूचना तथा सम्प्रेषण के इन माध्यमों के भविष्य के लिहाज से भी ये चुनाव महत्व हासिल कर लेते हैं.
यूं तो नव उदारीकरण के हावी होने के बाद से ही प्रेस की भूमिका में बदलाव आया है. उसमें असहमति, विरोध और तार्किक तथ्यपरक विश्लेषण घटे हैं.
मगर पिछले 10 वर्ष मोदी काल के दस वर्ष–में, प्रेस और मीडिया के लिए बेहद घुटन वाले रहे हैं, बाकी सबके साथ जो हुआ है, उसके अनुपात में घुटन एक छोटा शब्द है.
दवाब, धमकी, गिरफ्तारी और संस्थान की तालाबंदी से लेकर बात इस सबके बावजूद समर्पण न करने वाले पत्रकारों की हत्याओं तक जा पहुंची है.
{To be continue…}