अब जबकि सिर्फ सातवें चरण में 57सीटों के लिए मतदान बचा है और चुनाव के नतीजे बस तीन दिन दूर हैं, इसके अनुमानों में जाना उपयुक्त नहीं होगा कि इस बार
के करीब पौने दो महीने लंबे, चुनाव के पूरे दौर में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में संघ-भाजपा के प्रचार में जैसी बदहवासी दिखाई दी है, उन्हें हार अपनी ओर बढ़ती दिखाई देने का ही नतीजा थी या नहीं.
बहरहाल, इतना हम पक्के तौर पर कहेंगे कि खासतौर पर पहले चरण के मतदान के बाद से, खुद प्रधानमंत्री के स्तर पर जो बदहवासी नजर आई है, वह छठे चरण के बाद तक भी ज्यों की त्यों बनी ही हुई है.
बदहवासी से हमारा आशय संघ-भाजपा के अपने विराट आर्थिक तथा मीडियाई व अन्य प्रचार संसाधनों समेत, सचमुच सब कुछ प्रचार में झौंक देने के लिए उद्घत होने भर से नहीं है, जिसके लिए मोदी की भाजपा को वैसे भी जाना जाता है.
यह इसके बावजूद है कि इस सब कुछ झौंकने में शब्दश: सब कुछ झौंकना शामिल है, तमाम कायदे-कानूनों और मर्यादाओं समेत.
बदहवासी से हमारा आशय, खासतौर पर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उनके अपना ही कोई सुसंगत नैरेटिव पेश करने के बजाय बहुत दूर तक, विरोधियों के नैरेटिव को झुठलाने पर ही केंद्रित हो जाने से है.
वास्तव में चुनाव प्रचार के छोर तक पहुंचते-पहुंचते नौबत यहां तक आ गई है कि राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री का उपहास करते हुए,
अपनी सभाओं में यह तक कहना शुरू कर दिया है कि वह जो भी चाहें, नरेंद्र मोदी के मुंह से कहलवा सकते हैं. वह कहेंगे खटाखट,
तो प्रधानमंत्री भी अपने भाषण में खटाखट-खटाखट ही करने लगेंगे! और सचमुच प्रधानमंत्री की सभाओं में खटाखट, खटाखट सुनाई देने लगी है.
फिर भी सामाजिक न्याय तथा जाति जनगणना के विपक्षी इंडिया मंच के महत्वपूर्ण एजेंडा के खिलाफ नरेंद्र मोदी ने अपने हमले को,
अपने बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक एजेंडे के इर्द-गिर्द बुनने की जो कोशिश की है, उसे कोई चाहे तो संघ परिवार का मूल नैरेटिव भी कह सकता है.
लेकिन, यह अगर उनका अपना नैरेटिव है तो, यह बहुत ही दरिद्र नैरेटिव है. इस नैरेटिव की दरिद्रता इसमें है कि यह तो उनका सांप्रदायिक चेहरा साफ-साफ सामने ला देता है.
यह बात कम से कम दर्ज तो की ही जानी चाहिए कि रीढ़-विहीनता के अपने सारे प्रदर्शन और सारे टाल-मटोल से लेकर, आदर्श चुनाव संहिता के उल्लंघन के सारे आरोपों को
एक ही पलड़े पर तौलने के अपने शर्मिंदा करने वाले पैंतरों के बावजूद, चुनाव आयोग को इसी प्रचार के लिए, नाम लिए बिना ही सही, प्रधानमंत्री समेत कई प्रमुख भाजपा नेताओं के भाषणों/ बयानों को आपत्तिजनक मानना पड़ा है.
आयोग ने आइंदा ऐसे भाषणों/बयानों बचने का निर्देश देने की, भाजपा के अध्यक्ष को सलाह दी है। यह दूसरी बात है कि आयोग ने उक्त सलाह जारी कर अपने कर्तव्य की पूर्ति हो गई मान ली है,
जबकि प्रधानमंत्री समेत भाजपा नेताओं द्वारा आदर्श चुनाव संहिता तथा चुनाव कानून के सांप्रदायिक उल्लंघनों में, चुनाव के हरेक चरण के गुजरने के साथ कुछ न कुछ तेजी ही आई है.
सामाजिक न्याय और जाति गणना के मुद्दे पर, अपने मनुवादी-सवर्णवादी रुख का बचाव करने और इस बचाव को सांप्रदायिक हमले के हथियार में तब्दील करने के लिए,
प्रधानमंत्री से लगाकर नीचे तक, इसके सरासर बेतुके तथा झूठे दावे के साथ कि इंडिया एलाइंस दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों के आरक्षण में से एक हिस्सा छीन लेगा, यह टेक जोड़ दी गई कि छीना हुआ हिस्सा मुसलमानों को दे देंगे.
वैसे छीनकर, मुसलमानों का दे देने के इस हास्यास्पद प्रचार का इस चुनाव के दौरान जिस तरह विकास हुआ है, वह भी कोई कम दिलचस्प नहीं है.
इसकी शुरूआत, पहले दो चरणों में राम मंदिर का संघ की कल्पना के अनुसार असर नजर नहीं आने की पृष्ठभूमि में हुई थी, जब जातिगणना और सामाजिक-आर्थिक सर्वे
के विपक्ष के प्रस्ताव को खुद प्रधानमंत्री ने जान-बूझकर तोड़-मरोड़कर, बहनों-माताओं का मंगलसूत्र छीन लेंगे, घर में रखा गहना-सोना छीन लेंगे
बना दिया और मुसलमानों का नाम लेकर इसका ऐलान कर दिया कि यह सब छीनकर मुसलमानों को दे दिया जाएगा. पर छीनकर दूसरों को दे देेने का यह दावा
आम तौर इतना ऊटपटांग था कि नरेंद्र मोदी को जल्द ही इसे बदलकर, दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों का आरक्षण छीनकर, मुसलमानों को दे देंगे करना पड़ गया.
छीने और बांटे जाने का मोर्चा बदल चुका था, फिर भी बांटे जाने के खतरे के स्रोत के रूप में मुसलमान जहां के तहां बने हुए थे और इसी से पैदा होने वाला सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, इस पूरी कसरत का मकसद था.
(To be Continued…)