वक्फ विधेयक: सुधार की खाल में सांप्रदायिकता आलेख: राजेंद्र शर्मा

आखिरकार, 1995 के वक्फ कानून में संशोधनों के विधेयक को, फिलहाल एक संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया गया है. मोदी सरकार द्वारा प्रस्तावित किसी विधेयक के लिए ऐसे सलूक को, निश्चित रूप से अपवाद ही कहा जाएगा.

संसद के पिछले सत्र तक बिना किसी समुचित चर्चा के ही विधेयकों पर संसद से मोहर लगवाने के अपने उतावलेपन के लिए कुख्यात मोदी सरकार का,

18वीं लोकसभा के पहले सत्र में ही वक्फ विधेयक पर ‘विस्तृत और बहुपक्षीय’ चर्चा की जरूरत स्वीकार कर लेना और विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति को भेजने के लिए राजी होना,

बेशक हाल के आम चुनाव से निकल कर आई सच्चाईयों को प्रतिबिंबित करता है. इससे तो कोई इंकार ही नहीं कर सकता है कि अब संसद में राजनीतिक ताकतों का संतुलन काफी बदला हुआ है.

इस बदले हुए संतुलन का ही संकेतक है कि एक ओर सत्ताधारी भाजपा और दूसरी ओर इंडिया गठबंधन के बैनर तले विपक्ष की ताकत, लगभग बराबर है.

इन हालात में मुख्यत: तेलूगू देशम तथा जनता दल-यूनाइटेड के साथ गठबंधन के बल पर ही, नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री के पद पर पहुंच पाए हैं.

जाहिर है कि सत्ता में होते हुए भी भाजपा इन हालात में, खासतौर पर मोदी के राज के पिछले कार्यकाल की तरह, बहुमत की मनमानी चलाने की उम्मीद नहीं कर सकती है.

हालांकि, उसके पास सरकार चलाने के लिए जरूरी बहुमत है, फिर भी विपक्ष की बढ़ी हुई ताकत के सामने, यह बहुमत भी मनमानी चलाने के लिए काफी नहीं है।

फिर वक्फ विधेयक के खास मामले में, यह सिर्फ बहुमत के लिए जरूरी संख्या का मामला नहीं रह सकता था. तेलुगू देशम और जनता दल-यूनाइटेड ने बेशक, इस विधेयक पर भी कोई भाजपा से खुद को अलग नहीं कर लिया था.

सहयोगी पार्टियों का सत्ता पक्ष के लिए ऐसा कोई धर्मसंकट पैदा करना तो दूर रहा, लोकसभा में जदयू के प्रवक्ता ने औपचारिक रूप से इस विधेयक की पैरवी भी की थी.

इसके बावजूद, यह कहना सही नहीं होगा कि ये सहयोगी पार्टियां इस विधेयक का कोई बढ़-चढ़कर समर्थन कर रही थीं. उल्टेे प्रस्तावित विधेयक की विपक्ष की प्रबल आलोचनाओं से

ये पार्टियां साफ तौर पर असहज नजर आ रही थीं और विधेयक की उनके समर्थन के सारे तर्क, बचाव के तर्क थे. वर्ना उनकी दलीलों के पीछे छुपी बेचैनी आसानी से पढ़ी जा सकती थी.

पहला सवाल तो यही था कि वक्फ कानून में इस तरह के संशोधनों की आवश्यकता ही क्या थी? संबंधित विधेयक लोकसभा में पेश करते हुए,

संसदीय कार्यमंत्री तथा अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरण रिजिजू तथा सत्ता पक्ष के अन्य वक्ताओं द्वारा भी इसके तमाम दावे किए जाने के बावजूद कि परामर्श की

एक विस्तृत प्रक्रिया से गुजर कर उक्त संशोधन प्रस्ताव तैयार किए गए थे, यह सच किसी से छुपा हुआ नहीं था कि उक्त विधेयक किसी भी तरह की पॉपूलर डिमांड पर नहीं लाया गया था.

उल्टे मुस्लिम समुदाय, जिसके धार्मिक आचार के हिस्से के तौर पर दान-पुण्य के कार्य के तौर पर, चल-अचल संपत्तियां वक्फ करने की रिवायत आती है

इन संपत्तियों की समुचित व्यवस्था के लिए ही वक्फ कानून बनाया गया है, और मुस्लिम धार्मिक राय के बड़े हिस्से द्वारा इस पूरी कसरत को गहरे संदेह की नजर से ही देखा जा रहा था.

ऐसा भी नहीं है कि वक्फ कानून में संशोधन की इस कसरत की आलोचना करने वाले इसका दावा कर रहे हों कि 1995 का वक्फ कानून अपने आप में कोई आदर्श कानून था और उसमें किसी संशोधन या सुधार की कोई गुंजाइश या आवश्यकता ही नहीं थी.

यह तो खैर किसी का भी कहना नहीं था कि वक्फ संबंधी सारी व्यवस्था बहुत ही अच्छी तरह से चल रही थी, जिसमें कोई कमजोरियां या खामियां थी ही नहीं.

सत्ताधारी भाजपा की नीयत ही संदेह के घेरे में थी. बेशक, सत्ता पक्ष की ओर से गरीब-मुसलमानों की भलाई की चिंता का जमकर दिखावा किया जा रहा था.

वर्तमान व्यवस्था में मुस्लिम महिलाओं के निर्णय प्रक्रियाओं से बाहर ही छूटे रहने पर काफी आंसू बहाए जा रहे थे. वक्फ बोर्डों तथा वक्फ से जुड़ी अन्य संस्थाओं के

बेशुमार मामलों-मुकदमों में फंसे होने पर बड़ा अफसोस जताया जा रहा था और वक्फ की संपत्तियों, विशेष रूप से जमीनों का, मुसलमानों की भलाई के लिए ठीक से उपयोग न हो पाने का, खूब रोना रोया जा रहा था.

लेकिन, एक ओर जिस तरह के पैट्रनाइजिंग सुर में और दूसरी ओर, मुस्लिम समुदाय की संस्थाओं व समुदाय के नेताओं के प्रति हिकारत के सुर में,

ये सारी दलीलें दी जा रही थीं, उनसे कोई समझ सकता था कि इस कसरत के पीछे कम से कम मुसलमानों का भला करने की इच्छा नहीं थी.

यहाँ तो सुधार के नाम पर वक्फ की संपत्तियों पर केंद्र सरकार के नियमनकारी नियंत्रण को बढ़ाने की कोशिश की जा रही था. वक्फ की संपत्तियों के रिकार्डों को चुस्त-दुरुस्त बनाने के नाम पर,

न सिर्फ वक्फ संपत्तियों के लिए एक केंद्रीय रजिस्ट्रेशन व्यवस्था का प्रस्ताव किया गया है, बल्कि इन संपत्तियों के संबंध में तमाम जानकारियां नया कानून बनने के छ: महीने के

अंदर-अंदर अपलोड किए जाने तथा तमाम नयी वक्फ संपत्तियों का रजिस्ट्रेशन उक्त पोर्टल के जरिए ही वक्फ बोर्डों के सामने पेश किए जाने के तकनीकी रूप से

उन्नत किए जाने के नजर आने वाले किंतु वास्तव में सब कुछ ज्यादा केंद्रीयकृत करने वाले प्रावधान किए गए हैं. लेकिन, इससे भी ज्यादा समस्यापूर्ण तरीके से

पुराने कानून की उस धारा-40 को हटा दिया गया है, जिसके तहत वक्फ ट्रिब्यूनलों को यह तय करने का अधिकार होता था कि क्या कोई संपत्ति वक्फ होने लायक है.

ट्रिब्यूनलों की जगह पर, अब जिला कलेक्टर को ऐसे मामलों में अंतिम निर्णयकर्ता बना दिया गया है. जब तक कलेक्टर द्वारा संबंधित संपत्ति के वक्फ लायक होने की अंतिम रिपोर्ट सरकार को नहीं दे दी जाती है,

संबंधित संपत्ति को वक्फ संपत्ति की तरह नहीं बरता जा सकेगा. इसका अर्थ यह है कि जब तक कि सरकार मामले का फैसला नहीं कर देती है, वक्फ बोर्ड ऐसी किसी संपत्ति का नियंत्रण नहीं ले सकता है.

इसके साथ ही, संशोधन प्रस्तावों के जरिए केंद्र सरकार को ‘किसी भी वक्फ का, कभी भी ऑडिट किए जाने का निर्देश देने’ का अधिकार दे दिया गया है.

वक्फ बोर्डों पर लगाई गई इसकी शर्त के ऊपर से है कि राज्य सरकारों द्वारा तैयार किए गए ऑडिटरों के पैनल में से किसी ऑडिटर से हर साल अपने खातों का ऑडिट कराएंगे.

केंद्रीयकरण के ऐसे ही एक और कदम में, वक्फ ट्रिब्यूनलों को अब तीन सदस्यीय निकाय के बजाय, सिफ दो सदस्यीय निकाय बना दिया जाएगा.

हैरानी की बात नहीं है कि इसकी व्यापक रूप से आशंकाएं पैदा हो गई हैं कि इन संशोधनों के जरिए सरकार, वक्फ की संपत्तियों को अपने नियंत्रण में लेना चाहती है.

यह मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं की और इस लिहाज से मुस्लिम समुदाय की स्वायत्तता को ही छीनने की कोशिश है. अपने हिंदुत्ववादी बुनियादी समर्थन आधार को ठीक यही संदेश देना, इस विधेयक को लाने के पीछे मोदी सरकार का मकसद है.

इस मकसद का इससे स्पष्ट संकेत और क्या होगा कि नये कानून के तहत, अपनी संपत्ति वक्फ करने के लिए तो संबंधित व्यक्ति के ‘पांच साल से इस्लाम का पालन कर रहा होने’ की शर्त लगाई गई है,

जबकि केंद्रीय वक्फ काउंसिल, राज्य वक्फ बोर्ड तथा वक्फ ट्रिब्यूनलों जैसी वक्फ व्यवस्था की महत्वपूर्ण संस्थाओं में ‘गैर-मुसलमानों’ को लाने के लिए दरवाजे खोले जा रहे हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि विपक्ष ही नहीं, जदयू तथा तेदेपा जैसी भाजपा की सहयोगी पार्टियां भी इस पर असुविधा महसूस कर रही हैं, हालांकि उनसे ऐसे किसी सैद्घांतिक मुद्दे पर सरकार की गाड़ी पलटने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए.

फिर भी, इस वजह से भी मोदी सरकार ने वक्फ विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति के लिए भेजना मंजूर किया है यह दूसरी बात है कि लोकसभा में विधेयक लाने के जरिए,

उसने अपने मूल समर्थन आधार को यह संदेश तो दे ही दिया है कि मुसलमानों को कोने में धकियाने की मुहिम मोदी-3 में भी जारी है और जारी रहेगी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)

Leave a Comment

Translate »
error: Content is protected !!