CHHATISGARH: ये लिंचिंग-लिंचिंग, बला क्या है? बेचारे हरियाणा वाले नायब सैनी साहब सफाई दे-देकर परेशान हैं कि चरखी-दादरी में जो गोमांस खाने के शक में एक बंदे को
गोरक्षकों ने पीट-पीटकर मार दिया और दूसरे को अधमरा कर के छोड़ गए, उसका किसी लिंचिंग-विंचिंग से कुछ लेना-देना नहीं है और मॉब लिंचिंग का तो खैर कोई सवाल ही नहीं उठता है.
सिंपल है, गोभक्तों की भीड़ भी हो, तो उसे मॉब नहीं कहते हैं. गऊ के हों या किसी और के, भक्त जो भी करें, भक्ति का ही मामला माना जाएगा.
भक्ति का मामला यानी हमारे धर्म, संस्कृति, परंपरा वगैरह का मामला। ऐसे मामलों में वैसे तो सब के लिए, पर खासतौर पर गैर-भक्तों के लिए, भाषा का संयम आवश्यक है.
वर्ना लोगों की भावनाएं भड़क सकती हैं और जैसा कि सैनी साहब ने चेताया, भावनाएं भड़क जाएं तो फिर क्या कोई रोक सकता है! गोमांस खाने की अफवाह पर भावनाएं भड़कीं, तो क्या कोई रोक पाया?
भावनाएं, एक कूड़ा बीनने वाले बंगाली मुसलमान मजदूर की जान लेकर और दूसरे को मरे के बराबर देखकर ही मानीं. अब इन सेकुलर वालों की तरह ये मत कहने लगिएगा कि भावनाएं मानतीं तो तब, जब कोई उन्हें रोकने की कोशिश करता.
सैनी साहब की सरकार ने भावनाओं को न रोका न टोका, खुली छूट दे दी. भावनाएं आगे-आगे और सरकारी अमला पीछे-पीछे! अव्वल तो इसमें सैनी साहब की सरकार कहां से आ गयी.
फिर सरकार का काम लोगों की भावनाओं का आदर करना है या उनके मामले में टोका-टोकी करना है? पहले वाली सरकारें करती होंगी भावनाओं के साथ टोका-टोकी, अब भारतीय संस्कृति की पूजा करने वालों की सरकार है.
डेमोक्रेसी की बहुत इज्जत करते हैं सैनी साहब और उनकी पार्टी वाले। चुनाव के टैम पर तो खैर डेमोक्रेसी की कुछ फालतू ही इज्जत करते हैं। चुनाव मुश्किल हो, तब तो खैर कहना ही क्या? गऊ हो, गोभक्त हों, गोभक्तों की भावनाएं हों, सब के लिए लाल कालीन बिछाने को हर दम तैयार रहती है, छप्पन इंच वालों की डबल इंजन सरकार.
थोड़ा-बहुत खून-वून, तो लाल कालीन के नीचे खुद ही छुप जाता है. ऐसे सनातनमय मामले में लिंचिंग जैसे पाश्चात्य शब्द का क्या काम? कहां तो मोदी जी चुन-चुनकर भाषा
तथा परंंपराओं से दासता के प्रतीकों को मिटा रहे हैं और सेंगोल को वापस ला रहे हैं, और कहां ये सेकुलर वाले मॉब और लिंचिंग जैसे विदेशी वाक्यांशों की मिलावट कर हमारी भाषा को अशुद्ध कर रहे हैं, उसका चरित्र खराब कर रहे हैं.
अगर गोभक्तों की मॉब और इंसानों की लिंचिंग में वाकई कोई कनेक्शन है, तो फिर वो क्या है, जो सैनी साहब के ही राज में आर्यन मिश्रा के साथ हुआ है.
अब इससे तो सैनी साहब की पुलिस तक जोर लगाकर इंकार नहीं कर पा रही है कि अनिल कौशिक की जिस टोली ने आर्यन को दो-दो गोलियां मारी थीं, वह गोरक्षकों की टोली थी.
इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है कि आर्यन और उसके साथियों की कार का तीस किलोमीटर तक पीछा कर, बाकायदा गोलियां चलायी गयीं.
पर अंगरेजी वाली मॉब यानी गिरोह का मामला अगर मान भी लिया जाए, तब भी इसमें लिंचिंग तो दूर-दूर तक नहीं है. इसमें भीड़ तो है ही नहीं, गोरक्षकों की भी भीड़ नहीं.
बस छोटी-सी टोली है फिर बंदूक भले ही गैर-कानूनी हो, पर बंदूक से भी कोई लिंचिंग होती है क्या? और इसमें भावनाएं भड़कने की तो छोड़िए, भावनाओं का तो कोई स्कोप ही नहीं था.