BY-RAVISH KUMAR
हिन्दुस्तान टाइम्स के विनीत सचदेव ने एक भांडाफोड़ किया है। सरकार दावा करती है कि मेक इन इंडिया के तहत मोबाइल फोन का आयात कम हो गया है और अब भारत में ही निर्माण होने लगा है। यह झांसा दिया जाने लगा कि मोबाइल फोन भारत में बनने से रोज़गार पैदा हो रहा है। जबकि मोबाइल फोन यहां बन नहीं रहा है। असेंबल हो रहा है।
चीन से पार्ट-पुर्ज़ा लाकर जोड़ा जाता है। जहां तरह-तरह के पार्ट-पुर्ज़े बनेंगे, रोज़गार वहां पैदा होगा या तुरपई करने वालों के यहां होगा? अगर आप इतना भी नहीं समझ सकते हैं तो आपका कुछ नहीं हो सकता। सवाल है कि जो नहीं हुआ है उसके नाम पर मूर्ख बनाने का यह धंधा कब तक चलेगा।
विनीत सचदेव की रिपोर्ट के अनुसार भारत ने 2014 में चीन से 6.3 अरब डॉलर का मोबाइल आयात किया था जो 2017 में घट गया और 3.3 अरब डॉलर का ही आयात हुआ। आपको लगेगा कि यह तो बड़ी कामयाबी है। लेकिन दूसरे आंकड़े बताते हैं कि मोबाइल का पार्ट पुर्ज़ा का आयात काफी बढ़ गया है। बना बनाया नहीं आ रहा है लेकिन जहां 2014 में पार्ट-पुर्ज़ा का आयात 1.3 अरब डॉलर का ही हुआ था वो अब 2017 में 9.4 अरब डॉलर का हो गया है।
इस तरह 2014 से 2017 के बीच मोबाइल और मोबाइल पार्ट-पुर्ज़ा का कुल आयात 7.6 अरब डॉलर से बढ़कर 12.7 अरब डॉलर हो गया। भारत में हो क्या रहा है, फैक्ट्री की छत डालकर असेंबलिंग हो रही है जिसका कोई लाभ नहीं होता। अगर यही कल-पुर्ज़े यहां बनते तो कई प्रकार के छोटे-छोटे रोज़गार पैदा होते। मगर यह तो हो नहीं रहा है इसलिए इस मामले में मेक इन इंडिया झांसा है। यह आंकड़ा है। आप चेक कर सकते हैं।
पांच रुपये की कटौती इसलिए की गई थी ताकि चुनावों के बीच पेट्रोल 100 रुपये लीटर न हो जाए। अब फिर से पेट्रोल की कीमत 90 रुपये लीटर पहुंच गई है और कई जगह पहुंचने लगी है। दो हफ्ते भी इस कटौती का शोर नहीं टिका। भारतीय बाज़ार से विदेशी फोर्टफोलियो निवेशकों ने (FPI) 3.64 अरब डॉलर निकाल लिया है।
यह सिर्फ अक्तूबर का आंकड़ा है जो अभी बीता नहीं है। जबकि पिछले साल 3.1 अरब डॉलर का निवेश आया था। HSBC का अध्ययन बताता है कि एक डॉलर 76 रुपये तक का हो सकता है। पहले HSBC ने कहा था कि इस साल के अंत तक 73 रुपया हो जाएगा लेकिन अब 76 रुपये हो जाने का अनुमान है। 2019 तक इसके 79 हो जाने के आसार हैं।
इस साल भारत की मुद्रा दुनिया की सबसे ख़राब प्रदर्शन करने वाली चार मुद्राओं में शामिल है। जेटली यह नहीं बता रहे हैं कि मज़बूत नेता और एक दल की बहुमत की सरकार होने के बाद भी आर्थिक हालत पांच साल ख़राब क्यों रही लेकिन अभी से डराने लगे है कि गठबंधन की सरकार आएगी तो भारत की आर्थिक स्थिति ख़राब हो जाएगी। क्या अभी के लिए गठबंधन की सरकार दोषी है?
हिन्दू बिजनेस लाइन की रिपोर्ट है कि इस साल पांच महीने तक सुधार के बाद सितबंर माह में निर्यात घट गया है। पिछले साल सितंबर महीने के निर्यात की तुलना में इस साल के सितंबर में 2.15 प्रतिशत निर्यात कम हुआ है। कहा गया था कि रुपये का दाम गिरेगा तो निर्यात बढ़ेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब कहा जा रहा है कि यह कोई बड़ी बात नहीं है, अक्तूबर में सुधार दिख जाएगा।
न्यूज़क्लिक की प्रणेता झा की रिपोर्ट है कि सिर्फ एक साल के भीतर ONGC का कैश रिज़र्व एक साल में 92 प्रतिशत कम हो गया। 2016-17 की तुलना में 2017-18 में 92 प्रतिशत की कमी आ गई है। ONGC को मजबूर किया गया कि कर्ज़ में डूबे गुजरात राज्य पेट्रोलियम निगम (GSPC) को उबारे और HPCL में हिस्सेदारी ख़रीदे। कभी ONGC कर्ज़मुक्त संगठन के अलावा भारत की सबसे अधिक मुनाफा कमाने वाली कंपनी थी।
इसके पास सबसे अधिक नगदी थी। पिछले चार सालों में इस कंपनी का खज़ाना ख़ाली होते चला जा रहा है। यही हाल LIC का है। जल्दी ही जीवन बीमा के लाखों कर्मचारी सड़क पर आएंगे और आंदोलन के कवरेज़ के लिए मीडिया खोजेंगे।
टाइम्स आफ इंडिया की नागपुर से ख़बर है कि महाराष्ट्र सरकार ने यवतमाल में अनिल अंबानी की कंपनी को सीमेंट फैक्ट्री लगाने के लिए 467.5 एकड़ रिज़र्व वन क्षेत्र देने का फैसला कर लिया है। अखबार का कहना है अनिल अंबानी की कंपनी ने सीमेंट फैक्ट्री सेट-अप करने की शुरूआत 2009 में की थी जब कांग्रेस की सरकार की थी।
अब इस कंपनी के लिए वन क्षेत्र की शर्तों में बदलाव कर यह फैसला हुआ है। आप इलाहाबाद को प्रयाद किए जाने से ख़ुश रहिए। अनिल अंबानी जी 467 एकड़ वन क्षेत्र की रिज़र्व ज़मीन मिलने पर ख़ुश होंगे।
हिन्दी अख़बारों में यह सब नहीं मिलेगा। आप हिन्दी अख़बारों को ग़ौर से पढ़ा करें। चैनलों को भी ध्यान से देखिए। एक नागरिक और एक पाठक के रूप में आपकी हत्या की जा रही है। हिन्दी के अख़बार भारत के लोकतंत्र की हत्या कर रहे हैं। जब सूचनाएं कतर दी जाएंगी तो लोकतंत्र के पर भी कतर जाएंगे। इतना तो समझिए। क्या हिन्दी अखबारों में काबिल पत्रकार नहीं हैं? बिल्कुल हैं। मगर उन्हें लिखने नहीं दिया जा रहा है।
हिन्दी के अख़बारी संपादक केवल तीज त्योहार का विश्लेषण कर निकल जा रहे हैं। आप खुद भी विश्लेषण कीजिए। ख़बरें इस तरह लिखी होंगी कि कुछ समझ नहीं आएगा। सूचनाएं नहीं होंगी। क्या आप हिन्दी अखबारों को भारत का लोकतंत्र बर्बाद करने की अनुमति दे सकते हैं ?
यह लेख मूलतः रवीश कुमार के फेसबुक पेज पर प्रकाशित हुआ है।