BY– सुशील भीमटा
लोकतंत्र को परिभाषित तो किया गया जरूर लोगों से, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा मगर वास्तविकता कुछ और नजर आती है। ये जन-जन जानता और दिल से मानता है कि देश के कर्णधारों की बहुत सी तादाद इसके चिथड़े करती नजर आती है।
देश की जनता उनकी बेरहमी के आगे लाचार बेबस अपनी तबाही का मंजर देखती आंहें भरती कटती-मरती, जलती सूली चड़ती, लुटती, घुटती, भूख प्यास से मरती-तड़पती नजर आती है।
लोकतंत्र के पन्नों को सड़कों पर बिखेरते ये कर्णधार बेखौफ बेलगाम पांच सितारा होटलों और ऐशो आराम में डूबे देश के हालत को नजर अंदाज करते नजर आतें हैं।
आज धर्म जाति के नाम पर पानी की तरह लहू बहता नजर आता है। आज हर शहर, हर गली में भूख प्यास से बिलखता, मरता, तड़पता गरीब फुटपातों पर मरता नजर आता है।
आज नारी की आबरू हर गली मोहल्ले में देहबाजारों में सरेआम लुटती नजर आती है। आज धर्म जाति की आंड में मंदिरों-मस्जिदों में देह बाजार की मंडी लगी नजर आती है। राम-रहीम आसाराम जैसों की विरासत संभालती भीड़ नजर आती है।
आज किसान बागवान की लाचारी, कर्जदारी, मुनाफाखोरी, और साहूकारों की बेलगामी गांव-गाँव सूली चड़ती नजर आती है। आज हिंदू, मुसलमान, दलित पीड़ित की देश में सड़कों पर वैशियत से कटी लाशें नजर आती हैं।
आज घर-घर संस्कारों की लाशें ढोते माता-पिता की लाचारी बेबसी उन्हें दिन रात रुलाती है, बेटी की लुटती है आबरू और बेटों की नशे में डूबी ज़िन्दगी नजर आती है। आज वीरों की राजनीतिक मनसूबों पर बलि चढ़ती देशभक्ति नजर आती है। आज वीरों की वतनपरस्ती राजनीतिक शिकंजे में फंसी लाचार नजर आती है।
आज वीरों की माँयें, जीवन संगिनियां आये दिन रोती, सिन्दूर मिटाती नजर आती हैं। आज चारों ओर दहशतगर्दों की भीड़ नजर आती है। आज देश में मंजर इस तरह छाया है कि चाकू, ख़ंजर, लाठी, डंडों, गोलियों से दहशतगर्दी और कर्णधारों के पिठुओं के हाथों अपने हक्क की लड़ाई लड़ती जनता मरती लहुलुहान होती नजर आती है।
क्यों कानून की कलम कर्णधारों से खौफ खाती नजर आती है? कलम दौलत और शक्ति के सामने गिरवी नजर आती है। फिर बचा ही क्या? जो देश में लोकतंत्र का नारा लगाएं। आज वीरों की शहादत शर्मसार होती नजर आती है आज भगत सिंह, सुखदेव, चन्र्दशेखर , राजगुरु, सुभाषचंद्र जैसे वीरों को जन्म देने वाली माँयें बेबस लाचार नजर आती हैं।
आज वतन परस्तों की कमी और वतन की जनता गहरी नींद सोई नजर आती है। तभी तो दोस्तों चंद कर्णधारों द्वारा बेख़ौफ़ लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाई जाती हैं।
बेलगाम है इसीलिए शेहतान है वो, तभी तो वतन से वफा नहीं करते। जागो वतनवालों वतनपरस्ती के आगे कभी ऐसे बेवफा टिका नहीं करते, ये गलती है हमारी जो खामोशी अपना ली हमनें वर्ना ऐसे बेदर्द ज्यादा जीया नही करते।
कमी संविधान की शमशान बना गई जाति-धर्म, वर्ग में बांटकर जमीं लहुलुहान बना गई, जनता को अपाहिज और कर्णधारों की शांन बना गई।
काश अटल जी, इंदिरा जी, मनमोहन सिंह जी, चौधरी देवीलाल, शांता कुमार जी, आडवाणी जी, अरुण यादव, ठाकुर रामलाल, वीरभद्र सिंह जी, रोहित ठाकुर, राजिन्द्र राणा, बलबीर वर्मा, सुभाष मंगलेट, राकेश सिंघा, सुखविंदर सुखू , उमरेंद्र सिंह और भी बहुत हैं,, इन जैसी शख्सियतों से विधानसभा लोकसभा भर जाये दुआ करो और लोकतंत्र की साँसे लौट आये।
लेखक स्वतंत्र विचारक हैं औऱ हिमाचल प्रदेश में रहते हैं।