नज़रिया : दिवाली मनाइए पर्यावरण भी बचाइए,पटाखे भी चलाइए


BYसंजीव शर्मा 


दिवाली का पटाखों से क्या सम्बन्ध है इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता। वास्तव में पटाखों का इतिहास उतना आसान नहीं है जितना पटाखों को जलाना। लेकिन जब भी दिवाली आती है तब पटाखों पर प्रतिबंध की बात जरूर मुखर हो जाती है।

खासकर 2015 की उस याचिका के बाद से जब सुप्रीम कोर्ट में तीन नवजात शिशुओं की तरफ से पटाखों पर प्रतिबंध की मांग की गुहार लगाई गयी थी। इन शिशुओं के नाम थे अर्जुन गोपाल, आरव भंडारी और ज़ोया राव भसीन। ये अब चार साल के होंगे।

हो सकता है इनका मन भी इस दिवाली पटाखे चलाने को मचल रहा हो लेकिन इनके परिजनों द्वारा इनके नाम पर डाली गई उसी याचिका पर इस बार सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट ने दिवाली पर पटाखे प्रतिबंधित तो नहीं किये लेकिन बंधित जरूर कर दिए हैं।

अब पटाखे दिवाली (या ऐसे किसी दूसरे त्योहार) पर रात 8 से 10 बजे के बीच ही जलाए जा सकेंगे। क्रिसमस और नए साल के मौकों पर ये समय एक घंटे का है जो रात के 11.45 से लेकर 12.45 तक होगा। सुप्रीम कोर्ट ने देश में ग्रीन पटाखे चलाये जाने की बात भी कही है।

इस तरह से पटाखे तो प्रतिबंधित होने से बच गए लेकिन बहस ज्यों की त्यों खड़ी है। बहस इस बात की कि क्या दिवाली पर पटाखे छोड़ा जाना सही है या नहीं? जो लोग इसके विरोध में हैं उनका यही सबसे बड़ा तर्क रहता है कि दिवाली का पटाखों से कोई सम्बन्ध नहीं है। दिवाली रौशनी से, सम्बन्ध रखने वाला त्योहार है जो कालांतर में आतिशबाजी और पटाखों से जुड़ गया।

सिख धर्म में भी बंदी छोड़ दिवस को लेकर यह उल्लेख मिलता है लेकिन उसमें भी यह प्रामाणिक नहीं है कि तब पटाखे ही चलाए गए होंगे क्योंकि देश में आज हम जिसे पटाखे या आतिशबाजी कहते हैं वो चीज़ें 1940 के बाद ही आईं।

हां यह जरूर हो सकता है कि ऐसे मौकों पर बंदूकें या तोपें दागी गई हों जिन्होंने कालान्तर में पटाखों का स्थान ले लिया हो। अगर ऐसा है तो फिर यह जश्न तो पहले से ही स्वसीमित है, बन्दूक/तोप से पटाखे पर जो आ गया।लेकिन चलिए इस बहाने पटाखों के इतिहास पर ही नज़र डाल लेते हैं

कितना पुराना है पटाखों का इतिहास ?

विभिन्न उपलब्ध लेखों का अध्ययन करने के बाद हमने यह पाया है कि भारत में पटाखों का आगमन मुग़ल काल माना जाता है। हालाँकि यह भी पूर्ण रूप से स्थापित तथ्य नहीं है। उससे पहले कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी ऐसे किसी चूर्ण का उल्लेख है जिसे आप बारूद कह सकते हैं।

ऐसे में इसे सही माना जा सकता है कि पटाखों का आविष्कार बारूद के प्रयोगों की परिणति है। वैसे आपको बता दें कि दुनिया में बारूद 1270 में (या उससे पहले ढूँढा जा चुका था) सीरिया के रसायनशास्त्री हसन अल रम्माह ने 1270 में अपनी किताब में इसका उल्लेख किया था।

खैर भारत में जब 1526 में काबुल के तैमूरी शासक ज़हीर उद्दीन मोहम्मद बाबर की सेना ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोधी की एक बहुत बड़ी सेना को युद्ध में परास्त किया तब बारूद का रूप सामने आया था। यही वो पहली लड़ाई थी जिसमें अपने देश में आधिकारिक रूप से बारूद का प्रयोग पहली बार हुआ था।

इतिहासकार लिखते हैं कि जब 1526 में काबुल के सुल्तान बाबर ने दिल्ली के सुल्तान पर हमला किया तो उसकी बारूदी तोपों की आवाज़ सुनकर भारतीय सैनिकों के छक्के छूट गए। जबकि बाबर की तुलना में लोधी की सेना तीन गुना ज्यादा थी।

माना जाता है कि अगर उससे पहले भारत में मंदिरों और शहरों में त्यौहारों आदि पर पटाख़़े फोड़ने की परम्परा रही होती तो शायद लोधी के वीर सिपाही तेज़ आवाज़ से इतना न डरते। मुग़ल काल के दस्तावेजों में शामिल दारा शिकोह की शादी के एक उपलब्ध चित्र में भी लोग पटाखे जलाते दिख रहे हैं।

लेकिन आयोध्या में राम आगमन पर कभी पटाखे चलाने जैसा उल्लेखन नहीं मिला, वहाँ घी के दिए जलाने का ही विवरण मिलता है। दिलचस्प ढंग से राम के ससुराल यानी मिथिला /जनकपुरी, जो अब नेपाल में है वहाँ वर्तमान में पटाखे जलाने पर प्रतिबंध है।

खैर मुगलों के साथ जब यह चीज़ भारत आयी तो सम्भवतया बाद में लोगों ने दिवाली और फिर कालांतर में शादी-ब्याह और ख़ुशी जाहिर करने के अन्य आयोजनों पर पटाखे जलाने शुरू कर दिए होंगे। दिलचस्प ढंग से 1667 में औरंगजेब ने दिवाली पर सार्वजनिक रूप से दीयों और पटाखों के प्रयोग पर पाबंदी लगा दी थी। यानी तब तक यह सब भारतीयों की शान से जुड़ गयी होगी।

मुगलों के बाद, अंग्रेजों ने एक्स्प्लोसिव एक्ट पारित किया। इसमें पटाखों के लिए इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल को बेचने और पटाखे बनाने पर पाबंदी लगा दी गई। बाद में जब 1940 में इस एक्ट में संशोधन हुआ तो उसी साल तमिलनाडु के शिवकाशी में पहली आधिकारिक पटाखा फैक्ट्री की शुरुआत हुई। इसे नादर ब्रदर्स के नाम से शुरू किया गया था। उसके बाद इस उद्योग ने आतिशबाजी की तरह विस्तार लिया। और अब जबसे बाल मजदूरी और पर्यावरण को लकेर उंच-नीच शुरू हुई है यह उद्योग ढलान पर है।

बड़ा सवाल : कब आएंगे ग्रीन पटाखे?

सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेशों में ग्रीन पटाखों का भी उल्लेख किया है। हकीकत यह है कि ग्रीन पटाखे अभी देश में उपलब्ध नहीं है। वे सिर्फ प्रायोगिक अवस्था में ही हैं।

राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) इनपर शोध कर रहा है। नीरी ने चार तरह के ग्रीन पटाखे बनाए हैं। पानी पैदा करने वाले पटाखे, सुगंध एरोमा क्रैकर्स, कम एल्यूमीनियम पैदा करने वाले पटाखे और काम सल्फर और नाइट्रोजन पैदा करने वाले पटाखे।

ग्रीन पटाखों में इस्तेमाल होने वाले मसाले बहुत हद तक सामान्य पटाखों से अलग होते हैं। नीरी ने कुछ ऐसे फ़ॉर्मूले बनाए हैं जो हानिकारक गैस कम पैदा करेंगे। लेकिन इस सबके बावजूद सच्चाई यही है कि ग्रीन पटाखे बाज़ार में आने में अभी समय लेंगे।

तब तक आपको पटाखों और पर्यावरण के बीच संतुलन खुद बनाना होगा ताकि त्यौहार का मजा भी मिले और वातावरण भी खराब न हो। शायद यही सुप्रीम कोर्ट की मंशा भी है तभी तो उसने पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया। वैसे आप अधिक से अधिक पेड़ लगाकर/बचाकर भी पटाखों वाली दिवाली और पर्यावरण दोनों बचा सकते हैं।

नोट- यह लेख मूलतः संजीव शर्मा द्वारा फेसबुक पर प्रकाशित किया गया है।

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