BY-THE FIRE TEAM
प्राप्त सुचना के अनुसार एमनेस्टी इंटरनेशनल ने म्यांमार की सर्वोच्च नेता आंग सान सू की से अपना सर्वोच्च सम्मान ‘एंबेसडर ऑफ़ कॉन्शियंस अवॉर्ड‘ वापस ले लिया है.
आपको बता दें कि नोबेल पुरस्कार विजेता सू की को साल 2009 में इस सम्मान से नवाज़ा गया था, ये वो वक़्त था जब सू ची अपने घर में नज़रबंद थीं.
Amnesty International has announced that it has withdrawn its highest honour, the Ambassador of Conscience Award, from State Counsellor of Myanmar Aung San Suu Kyi. (file pic) pic.twitter.com/cx8KeEwOwI
— ANI (@ANI) November 12, 2018
इस समबन्ध में मानवाधिकार के लिए काम करने वाली संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल का कहना है कि रोहिंग्या अल्पसंख्यकों के मामले में उनकी चुप्पी बेहद निराश करने वाली रही है.
ये पहला मौका नहीं है जब 73 वर्षीय सू की से कोई सम्मान वापस लिया गया है. एमनेस्टी इंटरनेशनल के सेक्रेटरी जनरल कुमी नाइडू ने म्यांमार की नेता को एक ख़त लिखकर इस संबंध में जानकारी दी.
इसके मुताबिक़, “हम बेहद निराश हैं कि अब आप उम्मीद और साहस का प्रतीक नहीं दिखतीं. न आप मानवाधिकारों की रक्षा में अडिग नज़र आती हैं. “
“रोहिंग्या अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हुए अत्याचारों के प्रति उनके रुख़ को देखते हुए इस बात की बेहद कम उम्मीद है कि स्थिति में कुछ सुधार होगा.”
एक समय में इसी संस्था ने उन्हें लोकतंत्र के लिए प्रकाशस्तंभ बताया था. सू ची को नज़रबंदी से रिहा हुए आठ साल हो गए हैं और ये फ़ैसला उनकी रिहाई के आठ साल पूरे होने के दिन ही आया है.
एक क्रूर सैन्य तानाशाही के ख़िलाफ़ और लोकतंत्र की रक्षा के लिए 15 साल तक नज़रबंद रहने वाली सू ची को एमनेस्टी इंटरनेशनल ने 1989 में “राजनैतिक बंदी” घोषित किया था.
इसके ठीक 20 साल बाद संस्था ने उन्हें अपने सर्वोच्च सम्मान से नवाज़ा. इससे पहले नेल्सन मंडेला को ये सम्मान दिया गया था.
अब, संस्था का कहना है कि वो अपना दिया हुआ सम्मान वापस ले रहे हैं क्योंकि उन्हें नहीं लगता है कि वो इस सम्मान के लिए आवश्यक योग्यता के साथ न्याय कर पा रही हैं.
संयुक्त राष्ट्र के जांचकर्ताओं ने अपने निष्कर्ष में कहा कि सैनिकों द्वारा रोहिंग्या अल्पसंख्यकों पर होने वाले अत्याचारों के ख़िलाफ़ वो अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने में नाकाम रही हैं.
सू की साल 2016 में सत्ता में आईं, हालांकि उन पर अंतरराष्ट्रीय दबाव हमेशा रहा. जिसमें से एक दबाव एमनेस्टी इंटरनेशनल की तरफ़ से भी था कि रोहिंग्या अल्पसंख्यकों पर सेना के अत्याचार का उन्हें विरोध करना चाहिए, लेकिन सू ची ने इस मामले में चुप्पी ही साधे रखी.