कुपोषण के अंधेरे में गुम होता बाल जीवन


BYजगदीश बाली


मुट्ठी भर दाने को तरसता बालजीवन:  कुछ रोज़ पहले मैंंने देखा कि एक नन्हा सा बच्चा अपनी माँ के साथ नज़दीक के प्राइवेट स्कूल जा रहा है। मां-बेटॆ के सथ-साथ उनका छोटा सा कुत्ता भी दुम हिलाता हुआ चल रहा था। बच्चा बिसकिट खाता हुआ चल रहा था। वह एक बिसकिट खुद खाता और बीच-बीच में एक बिसकिट कुत्ते को भी देता।

उसे ऐसा करते देख मुझे खयाल आया इस वर्ष जुलाई में दिल्ली के मंडावली में घटी उस दुखद घटना की जिसमें तीन बच्चियों की कथित तौर पर भूख व कुपोषण के कारण मौत हो गयी थी। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में डॉक्टरों ने बताया कि उन्हें काफी समय से खाना नहीं मिला था।

ये घटना देश की राजधानी दिल्ली की है जहां पिछले 71 सालों से आज़ाद भारत की सत्ता व सियासत के बड़े-बड़े औधेदार देश के विकास का ब्लूप्रिंट बनाते हैं। अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि देश के अन्य राज्य जैसे मध्यप्रदेश, झारखंड, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, महारष्ट्र, हरिय़ाणा, पंजाब, आसाम, राजस्थान, गुजरात अदि की स्थिति तो बहुत गंभीर्र होगी। ऐसी परिस्थिति को देखते हुए मुझे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियां याद आईं:

श्वानों को मिलते दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं
माँ की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।

विडंबना है कि हमारे देश में एक वर्ग तो स्थूलता से जूझ रहा है, वहीं दूसरी ओर करोड़ों बच्चे रोटी न मिलने की वजह से अस्थिपिंजर मात्र लगते हैं। जहां रोजाना लाखों टन भोजन कचरे में ज़ाया कर दिया जाता है, वहीं करोड़ों बच्चे भोजन न मिलने से कुपोषित रह कर जीने के लिए मज़बूर हैं।

जिस देश में लगभग 21 मिलियन टन गेहूं गल-सड़ जाता है, उसी देश में अनगिनत बच्चों का जीवन मुट्ठी भर दाने के लिए तरसते-तरसते समाप्त हो जाता है। जहां कुपोषण एक भीषण समस्या है, वहां भोजन की बर्बादी मानवीय संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।

वैसे तो कुपोषण एक वैश्विक समस्या है, परन्तु भारत में बाल कुपोषण की स्थिति बहुत गंभीर है। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल में पुरुलिया और महाराष्ट्र के नंदूरबार जैसे जिलों में हर दूसरा बच्चा कुपोषित है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि भारत में हर साल कुपोषण के कारण मरने वाले पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों की संख्या 10 लाख से भी ज्यादा है।

दक्षिण एशिया में भारत कुपोषण के मामले में सबसे बुरी हालत में है। कुपोषण का मतलब है आयु और शरीर के अनुरूप पर्याप्त शारीरिक विकास न होना। एक स्तर के बाद यह मानसिक विकास की प्रक्रिया को भी बाधित कर देता है। यदि बहुत छोटे बच्चों, खासतौर से जन्म से लेकर 5 वर्ष की आयु तक के बच्चों को पर्याप्त पोषण आहार न मिले तो उनमें कुपोषण की समस्या जन्म ले लेती है। परिणाम स्वरूप बच्चे छोटी-छोटी बिमारियों से ग्रसित हो जाते हैं।

भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के 38 फीसदी बच्चे अपनी आयु के मुताबिक कम लंबे हैं। 21 फीसदी का वजन अत्यधिक कम है। ज़ाहिर है बाल कुपोषण देश में व्याप्त गरीबी और भुखमरी की वजह से पनपी हुई महामारी है।

इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टिट्यूट (आई.एफ़.पी.आर.आई) की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में भूख एक गंभीर समस्या है। 119 देशों के वैश्विक भूख सूचकांक (जी.एच.आई.) में भारत 103वें पायदान पर है और जी.एच.आई. की गंभीर श्रेणी में है। 2017 में भारत 100वें, 2016 में 97वे, 2015 में 80वे और 2014 में 55वें स्थान स्थान पर था।

रिपोर्ट के मुताबिक भारत की रैंकिंग पड़ोसी देश चीन, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका और बांग्लादेश से पीछे है। केवल पाकिस्तान और अफगानिस्तान दो देश हैं जो एशिया में भारत से पीछे हैं।

कुपोषण जन्म के बाद ही नहीं, बल्कि पहले भी शुरू होता है। यदि भुखमरी और गरीबी के चलते मां कुपोषित होगी, तो बच्चा भी कुपोषण का शिकार होगा। कुपोषण के कारण वृध्दि बाधिता, मृत्यु, कम दक्षता और कम आईक्यू जैसी समस्याएं आ जाती हैं।

कुपोषित बच्चे घटी हुई सीखने की क्षमता के कारण पिछ्ड़ जाता है और अकसर स्कूल में टिक नहीं पाता। स्कूल से बाहर वे सामाजिक उपेक्षा व शोषण के शिकार हो जाते हैं। इस कारण बड़ी संख्या में बच्चे बाल श्रमिक बन जाते हैं और बाल वैश्यावृत्ति के लिए भी मज़बूर हो जाते हैं।

कई बार भूख मिटाने के लिए रोटी की तलाश में बालजीवन गुनाह के रास्ते पर भी चल पड़ता है। कुपोषण देश के लिए चिंता का विषय बन गया है। ये समस्या इतनी गंभीर है कि विश्व बैंक ने इसकी तुलना ब्लेक डेथ नामक महामारी से की है जिसने 18 वीं सदी में यूरोप की जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को अपना शिकार बनाया था। हालांकि 1975 में बच्चों को कुपोषण से बचाने के लिए बाल विकास परियोजना व आंगनवाड़ी परियोजनाएं शुरू की गयी थी, परंतु इन्हें प्राथमिकता की दृष्टि से नहीं देखा गया।

स्थिति की गंभीरता को देखते हुए देश में राष्ट्रीय पोषण अभियान की शुरुआत भी की गयी है। हंगर फाउंडेशन और एसीएफ इंडिया ने मिल कर ’जनरेशनल न्यूट्रिशन प्रोग्राम’ की शुरुआत की है। परन्तु कुपोषण की लड़ाई तब तक नहीं जीती जा सकती है, जब तक कि सरकार इसे मुख्य ऐजैंडे में शामिल नहीं करती।

ये प्रत्येक नागरिक का नैतिक कर्तव्य है कि वो सुनिश्चित करे कि हमारे बच्चों का बचपन सुरक्षित रहे। गरीब कुपोषित बच्चों के लिए हमारे मन में संवेदना होनी चाहिए।

बच्चे देश के भविष्य के फ़ोटो होते हैं जिन्हें विकसित हो कर देश का आदर्श नागरिक बनना होता है। बचपन खेलने-कूदने, मौज-मस्ती, शारीरिक व दिमागी विकास का समय होता है। परन्तु कुपोषण एक ऐसा दुष्चक्र है जो इस बचपन को निगल लेता है।

कुपोषण के चंगुल में बच्चे अपनी मां के गर्भ में ही फंस जाते हैं। उनका अंधकारमय भविष्य दुनिया में जन्म लेने से पहले ही तय हो जाता है। गरीबी और भुखमरी की काली स्याही से उनकी नियति में खिलने से पहले ही मुरझाना लिख दिया जाता है।

जब किसी देश का बचपन कुपोषण से जूझ रहा हो, तो हम कैसे एक संपन्न भविष्य व मज़बूत राष्ट्र का दावा कर सकते हैं। सत्य है भूख मौत से भी बड़ी होती है, सुबह मिटाते हैं, परन्तु शाम को फिर सताने चली आती है। जब भूख का सवाल खड़ा होता है, तो सब उपदेश धरे के धरे रह जाते हैं। फ़िर तो सिर्फ़ रोटी चाहिए, चाहे जैसे भी हो।

गोपाल दास नीरज जी ने कहा है:
तन की हवस मन को गुनाहगार बना देती है, बाग़ के बाग़ को बिमार बना देती है,
भूखे पेटों को देशभक्ति सिखाने वालो, भूख इन्सान को गद्दार बना देती है।


लेखक स्वतंत्र विचारक हैं तथा हिमाचल प्रदेश में रहते हैं।

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