आखिर किसका है ये किसान?


BYरवि भटनागर


शब्दों या आंकड़ों में किस हद तक बाँध सकते हैं हम किसानों की दुर्दशा और पीडा को? सारी राजनीतिक पार्टियां, किसानों से अपनी खास रिश्तेदारी का बखान करते नहीं थकतीं। लाखों नेता अपने जन्म से ही किसान या ग़रीब होने पर गर्व भी करते हैं और भावुक भी हो जाते हैं। कितना नाटकीय होता है यह। राजनेता, दावों के जवाब में वादे परोस देते हैं, बार बार।

वादों के टोकरों से पेट नहीं भरते हैं,
बेबस किसान यहाँ सैकड़ों मरते हैं,
सरकारों, व्यापारी के बीच फंसे बैठे हैं
सूखों की मार तले, घास फूस चरते हैं।

” दो बीघा ज़मीन ” के कथानक से ऊपर ही नहीं उठ पाये किसान आज तक। शहरों से लगे गांव, तो कस्बों और शहरों की बहस में पिस रहे हैं। जमीनों की सौदेबाजी ने एकरूपता लूट ली है। रहन सहन में आसमान और खाई का सा फर्क आ गया है।

1969 में जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ तो उद्देश्य बहुत बड़ा था। सामाजिक और आर्थिक न्याय देने की ओर एक साहसिक कदम। छोटे किसान, घरेलू उद्योग, पशुपालन, ग्राम उत्थान की अनेक योजनाओं को काग़जों पर उतारा गया। कैसे ये क्रांतिकारी प्रारूप और उसका अमल किसानों के पतन का ही कारण बना, इसका भी एक लंबा इतिहास है।

कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते पर अब जो कह रहा हूँ उतना भर समझ ही लीजे। इन योजनाओं ने जिन भी वर्गों का स्तर ऊँचा उठाया उनमें किसान मज़दूर और लघु उद्योगी कहीं नहीं थे, असली लाभार्थी बने सर्व श्री ( कुछ या अधिकतर ), ग्राम सचिव, पंच, सरपंच , बीडीओ, बैंक अधिकारी, विभिन्न स़स्थाओं के अधिकारी, खाद- बीज- उपकरणों के व्यापारी, थोक विक्रेता, पशु विक्रेता और बिचौलिये। किसानों को यही कहा जाता रहा कि भाई उधार तो माफ हो ही जायेगा। मूल में अज्ञानता और अंगूठों की निशानदेही रही।

आज तक किसान और लघु उद्योगों के ऋणों के नाम पर दी गई रकम अगर भ्रष्टता से बची होती दो देश की दशा और दिशा कुछ और होती। सारे दोष, केवल सरकारों पर मँढ़ कर हम मुक्त तो हो जाते हैं पर अपने आस पास भी देखें ज़रा ध्यान से।

शायद कई ऐसे मिल जाए जो किसानों की बदौलत रईस बन कर हमारे बीच विचर रहे हों या अपनी हैसियत से कहीं अधिक रहन सहन के सुख भोग रहे हों। बच्चों को उच्च शिक्षा के लिये महंगे संस्थानों में पढ़ाने भी भेजा हो। या उन्हीं में से कई शायद धनवान, उद्योगपति या नेता बन हमारा नेतृत्व भी कर रहे हों, शहरों की शोभा बढ़ा रहे हों। उनकी अगली पीढ़ी भी तो अपने पुरखों के कर्मों से मुग्ध, मंगल कार्योँ में व्यस्त रह रही होगी।।

पहचानना मुश्किल तो नहीं है, पर सत्यता उजागर और प्रामाणिक करना बहुत मुश्किल होगा।

लेखक स्वतंत्र विचारक हैं और गुरुग्राम में रहते हैं।

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