BY– रवि भटनागर
उन दिनों मेरी छोटी बहिन रश्मि मानव स्थली स्कूल ग्रुप के नये वीरेंद्रग्राम होस्टल गुडगांव में हॉस्टल वार्डन थी। उसे भी एक नवंबर 84 की दोपहर में आये आदेश के अनुसार हॉस्टल के सारे बच्चों को ही बस से उनके ही साऊथ एक्सटेंशन नई दिल्ली के हॉस्टल लाना पड़ा। उन बच्चों में शायद चार या पाँच सिख बच्चे थे। ख़ुशकिस्मती से सब साउथ एक्स्टेंशन के हॉस्टल तो पहुँच गये पर आस पास दंगाइयों की ख़बरें आती जा रही थीं।
बहिन ने अपने चेयरमैन से सलाह कर के छोटे बच्चों के बाल खोल कर चोटियाँ बनाईं और वस्त्र बदल कर उन्हें लड़कियों के रुप में ही ख़तरा टल जाने तक रखा। एक सिख बच्चा बडी़ उम्र का था उसको लेकर चिन्ता हुई उसके घर वालों व चेयरमैन से सलाह कर उसकी रज़ामंदी ले कर बच्चों से ही उसके बाल छोटे करवाने पड़े।
दिन में कई कई बार दंगाइ यहाँ-वहाँ से निकलते रहते थे। एसे सभी बच्चों के अभिभावकों को भी। हॉस्टल आने को मना कर उन्हें भरोसा दिलाया कि बच्चे वहाँ सुरक्षित रहेंगे वे अपने को हिफाज़त से रखें। खतरा टल जाने के बाद जब सिख परिवार बच्चों से मिलने आये तो भाव विव्हल हो बहिन रश्मि को बहुत सी दुआएं दे गये।
वे सभी बच्चे अब 40-50 वर्ष के हो चुके होंगे व सफलता से ज़िंदगी बसर कर रहे होंगे। शायद वे अब तो धर्मांधता से परहेज़ करते होंगे। इंसानियत पर उनका नज़रिया भी बेहतर हुआ होगा।
मेरा ऑफिस उन दिनों मरीना होटल बिल्डिंग, कनॉट प्लेस में था। जब राष्ट्रीय शोक के बाद पहले दिन ऑफिस पँहुचा तो ज्ञात हुआ कि हमारे ऑफिस के ही लॉ आफीसर, सरदार हरदेव सिंह जी जो मेरे मित्र भी थे और सिख समुदाय से थे उनकी कोई ख़बर नहीं आ रही थी।
वे एक कोर्ट केस के सिलसिले में हमारे लीगल ऐडवाइज़र के साथ कानपुर गये हुये थे। लीगल एडवाइज़र ने ही वापस लौटकर बताया कि सिंह साहब वापसी पर ट्रेन में आतंकी भीड़ के स्टेशन पर आने के बाद से ही लापता हो गये। मेरे पूरे ऑफिस में शोकाकुल स्टाफ के सदस्य नाउम्मीदियों के बावजूद भी एक आशा पाले थे।
लगभग एक सप्ताह बाद ही वो खुशख़बरी साक्षात उन्हें अपने सामने पा कर मिली। वे एक सदमे में ही थे। पर उन्हें बचाने में सबसे ज़्यादा सहयोग कानपुर के ही स्टेशन मास्टर से मिला था। इन्सानियत का जज़्बा कभी कभार भटक तो सकता है पर रहेगा तो अमर ही।
इसी से संबंधित एक अजीब हादसा मेरे साथ भी हुआ। घटनाएं तो रोकी जा चुकीं थी पर आपस में भरोसा क़ायम नहीं हो पाया था। एसे ही एक शनिवार को मैं ऑफिस से घर जाने के लिये चार्टर्ड बस के बजाय डीटीसी की बस में चढ़ गया।
भीड़ में एक जानकार ने अपनी ही सीट पर तिरछा होकर बैठने का आग्रह किया। मेरे पास भारी ब्रीफकेस था जो बहुत ज़रूरी दस्तावेजों से भरा था। इस बस में ऊपर सामान रखने का प्रावधान था जो कि आम बसों में नहीं होता मैंने ब्रीफकेस वहीं ऊपर रख दिया। मेरा अपना चश्मा भी उसी में रखा था और धूप का चश्मा मैंने पहना हुआ था।
अचानक ही राजा गार्डन की रेड लाइट पर कुछ सवारियां उतरी। मैंने एहतियातन अपने ब्रीफकेस पर नज़र मारी तो चौंक गया। वो वहाँ नहीं था। मैंने जब ज़रा ज़ोर से अपनी बात कही तो वहीं खड़े एक सज्जन ने बताया कि एक सरदार जी ब्रीफकेस लेकर उतरे थे।
अन्य दो ब्रीफकेस में से एक का तो मालिक मिल गया, दूसरा लावारिस था। सहयात्रियों ने नतीजा निकाला कि लावारिस ब्रीफकेस वही सरदार जी बदल के ले गये हैं। ख़तरे के शक में बस को रुकवाया गया। आधे यात्री तो डर कर उतर गये।
कंडक्टर और एक युवा ने हिम्मत दिखाई व ब्रीफकेस खोलते ही दो क़दम पीछे हट गये। खाली से ब्रीफकेस में दो चार काग़ज़ के साथ ही एक काग़ज़ में लिपटा गोला सा रखा था। मेरे दिमाग़ में तो मेरे ज़रूरी दस्तावेज ही घूम रहे पर नज़र इस सारी कार्यवाही पर टिकी थी। कंडक्टर ने ड्राइवर से कहा कि बस को पुलिस स्टेशन ले चले।
बस तो चल दी पर कंडक्टर की बेचैनी कम नहीं हुई। उसने किसी से पेन लेकर गोले पर लिपटी काग़ज़ की परतों को हटाना शुरू किया। कुछ ही पल में सब ठहाका मार कर हँस दिये। वो एक साधारण सा स्टील का खाने का डब्बा था जो खाली ही था। पुलिस स्टेशन के बजाय अब बस अपने ही रूट पर चल दी। मुझे कहा गया कि मैं अब इस ब्रीफकेस को लेकर ही सब्र कर लूं।
मैं हैरान परेशान विकास पुरी में अपने घर पहुँचा। दस्तावेजों के जाने की चिंता आंखों पर रंगीन चश्मे का रंग, दिन ढलते-ढलते और भी गहराते जा रहे थे। उस ब्रीफकेस को कई बारी खोला और बंद किया।
अंततः उसकी ही एक जेब में एक पुराना इनलैंड कवर दिखा पलट कर देखते ही आशा जगी। उस कवर पर विश्णु गार्डन का एक पता लिखा था। वह भी सिख बहुल कॉलोनी थी। देर शाम लगभग आठ बजे मेरे भाई के आते ही हम एक मोटर बाइक पर विश्णु गार्डन की तरफ चल पड़े।
भाई ही चला रहा था मैं तो रात को रंगीन चश्मा पहने हुये परेशान ही था। कॉलोनी में घुसते ही हमारी साँसें अटकने लगीं। चारों तरफ ही पीले पटके बाँधे हुये युवा सिख चहल पहल कर रहे थे। हिम्मत कर एक से लोकेशन पूछ कर सही पते पर पहुँच कर कॉलबैल बजा दी।
डर और अपने दस्तावेजों के सलामत मिल पाने के मिले जुले भाव मेरे रंगीन चश्में ने छुपा रक्खे थे। दरवाज़ा खुलते ही ठेठ पंजाबी में सुना, “आओ जी पटनाग्गर जी आजाओ उप्पर ई आ जाओ “।
उनकी ठहाके वाली आवाज मुझे असहज बना रही थी। पहली मंजिल पर जाते ही उनकी बैठक थी। जाते ही बैठने का इशारा कर बोले, ” दस्सो जी की लओगे शिकंजी या लस्सी जी “। मैने भी पंजाबी में ही जवाब देते हुए कहा, बड़ी मेरबानी जी पैंला मेरा ब्रीफकेस दे दो जी मैं अपणा चश्मा बदलणा है जी।
उनका पूरा परिवार वहीं था सब ही बड़े हँसमुख लग रहे थे। वो फिर ठहाके के साथ उठे और मेरा ब्रीफकेस मेरे हाथ में थमा दिया। मैंने भी सबसे पहले अपना चश्मा बदल कर उन सब को निहारा। तभी सिंह साहब ने खुलासा किया कि वे रेड लाइट पर उतरने की जल्दी में ग़लती से दूसरा ब्रीफकेस लेकर उतर गये।
जब तक गलती समझ में आई तब तक बस जा चुकी थी। घर जाकर उन्होंने उसे खोला और काग़ज़ात देख कर उनका महत्व समझ गये। अब मैने हिन्दी में ही कहा कि सिंह साहब अगर मुझे आपका इनलैंड कवर न मिलता तो मेरा बहुत नुकसान हो जाता। वे बोले आप नहीं आते दो चार दिन तो मैं आपके घर आ जाता।
ज़िंदगी भर का बैर थोड़ी है जी। जो हो गया सो हो गया। मीठा सा नीबू पानी पी कर लौट तो आया पर देर रात तक यही सोचता रहा कि जो हो गया सो हो गया अब तो आगे बढ़ें। जो हुआ नहीं होता तो बेहतर था। पर फिर भी।
कुल मिलाकर भारत में जब कभी भी किन्हीं भी कारणों से धार्मिक उन्माद भड़के हैं या दंगे हुये हैं इंसानियत के जज़्बे ने हमेशा जान और माल के नुकसान को कम ही किया होगा।
यही जज़्बा है कि हम बावजूद अनेकों मतभेदों के देश को जोड़े हुये हैं। पर समाज को बेहतर कल देने की ज़िम्मेदारी सभी धर्मों, संप्रदायों और उनके शीर्षस्थ नेतृत्वों की है। सरकार की अपनी सीमाएं तो हैं पर उसक निष्पक्ष रहना और निष्पक्ष ही दिखाई देते रहना भी नितांत आवश्यक है।
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लेेेखक स्वतंत्र विचारक हैं तथा गुरुग्राम में रहते हैं।