BY–पुण्य प्रसून
नये बरस का आगाज सवालो के साथ हो रहा है। ऐसे सवाल जो अतीत को खंगाल रहे है और भविष्य का ताना-बाना अतीत के साये में ही बुन रहे है। देश लूट या टूट के मझधार में आकर फंसा हुआ है।
देश संसदीय राजनीतिक बिसात में मंडल-कमंडल की थ्योरी को पलटने के लिये तैयार बैठा है। देश के सामने आर्थिक चुनौतियां 1991 के आर्थिक सुधार को चुनौती देते हुये नई लकीर खिंचने को तैयार है।
देश प्रधानमंत्री पद की गरिमा और ताकत को लेकर नई परिभाषा गढने को तैयार है। और बदलाव के दौर से गुजरते हिन्दुस्तान की रगो में पहली बार भविष्य को गढने के लिये अतीत को ही स्वर्णिम मान कर दौड़ रहा है।
ध्यान दे तो बरस बीतते – बीतते एक्सीडेंटल प्राइम मनिस्टर मनमोहन सिंह की राजनीति और अर्थशास्त्र को उस सियासत के केन्द्र पर खड़ा कर गया जो सियासत आज सर्वोच्च ताकत रखती है।
सिलसिलेवार तरीके से 2019 में उलझते हालातो को समझे तो देश के सामने पहली सबसे बडी चुनौती भ्रष्टाचार की लूट और सामाजिक तौर पर देश की टूट के बीच से किसी को एक को चुनने की है।
काग्रेसी सत्ता 2014 में इसलिये खत्म हुई क्योकि घोटालो की फेरहसित देश के सामने इस संकट को उभार रही थी कि उसका भविष्य अंधकार में है।
पर 2018 के बीतते – बीतते देश के सामने भ्रष्ट्रचार की लूट से कही बडी लकीर सामाजिक तौर पर देश की टूट ही चुनौती बन खडी हो गई।
संविधान से नागरिक होने के अधिकार वोटर की ताकत तले इस तरह दब गये कि देश के 17 करोड मुस्लिम नागरिक की जरुरत सत्ता को है ही नहीं इसका खुला एहसास लोकतंत्र के गीत गाकर सत्ता भी कराने से नहीं चुकी।
नागरिक के समान अधिकार भी वोटर की ताकत तले कैसे दब जाते है इसे 14 करोड़ दलित आबादी के खुल कर महसूस किया यानी संविधान के आधार पर खड़े लोकतांत्रिक देश में नागरिक शब्द गायब हो गया
और वोटर शब्द हावी हो गया, जिसे 2019 में इसे कौन पाटेगा ये कोई नहीं जानता। 2019 की दूसरी चुनौती 27 बरस पहले अपनाये गये आर्थिक सुधार के विकल्प के तौर पर
राजनीतिक सत्ता पाने के लिये अर्थवयवस्था के पूरे ढांचे को ही बदलने की है। और ये चुनौती उस लोकतंत्रिक सत्ता से उभरी है जिसमें नागरिक , संविधान, और लोकतंत्र भी सत्ता बगैर महत्वहीन है।
यानी किसान का संकट, मजदूर की बेबसी , महिलाओ के अधिकार, बेरोजगारी और सामाजिक टूटन सरीखे हर मुद्दे सत्ता पाने या ना गंवाने की बिसात पर इतने छोटे हो चुके है कि-
भविष्य का रास्ता सिर्फ सत्ता पाने से इसलिये जा जुड़ा है क्योकि 2018 का पाठ अलोकतांत्रिक होकर खुद को लोकतांत्रिक बताने से जा जुड़ा।
यानी देश बचेगा तो ही मुद्दे संभलेगें। और देश बचाने की चाबी सिर्फ राजनीतिक सत्ता के पास होती है। यानी सत्ता के सामने संविधान की बिसात पर लोकतंत्र का हर पाया बेमानी है।
और लोकतंत्र के हर पाये के संवैधानिक अधिकारो को बचाने के लिये राजनितक सत्ता होनी चाहिये। 2019 में देश के सामने ये चुनौती है कि लोकतंत्र के किस नैरेटिव को वह पंसद करती है।
क्योकि मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र की राह पर मोदी सत्ता है और संघ परिवार के स्वदेशी, खेती, किसानी और मजदूर की राह पर काग्रेस है।
नौरेटिव साफ है काग्रेस ने मनमोहन सिंह के इक्नामी का रास्ता छोडा है लेकिन पोस्टर ब्याय मनमोहन सिंह को ही रखा है। तो दूसरी तरफ मोदी सत्ता अर्थवयवस्था के
उस चक्रव्यूह में जा फंसी है जहाँ खजाना खाली है पर वोटरो पर लुटाने की मजबूरी है। यानी राजकोषिय घाटे को नजरअंदाज कर सत्ता को बरकरार रखने के लिये ग्रामीण भारत के लिये लुटाने की मजबूरी है।
इस कडी में सबसे महत्वपूर्ण और आखरी चुनौती है सत्ता के लिये बनती 2019 की वह बिसात जो 2014 की तुलना में 360 डिग्री में घुम चुकी है। इसकी परते एक्सीडेटल प्राइम मनीस्टर मनमोहन सिंह से ही निकली है।
मनमोहन सिंह या नरेन्द्र मोदी , दोनो दो ध्रूव की तरह राजनीतिक बिसात बता रहे है । क्योकि एक तरफ एक्सडेटल पीएम मनमोहन सिंह को लेकर उस थ्योरी का उभरना है
जहाँ पीएम होकर भी मनमोहन सिंह काग्रेस पार्टी के सामने कुछ भी नहीं थे। यानी हर निर्णय काग्रेस पार्टी-संगठन चला रही सोनिया और राहुल गांधी थे।
तो दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी की थ्योरी है जहाँ पीएम के सामने ना पार्टी का कोई महत्व है ना ही सांसदो का और ना ही कैबिनेट मनीस्टरो का।
तो अपने ही वोटरो से कट चुके बीजेपी सांसद या मंत्री की भूमिका 2019 में होगी क्या ये भी सवाल है। यानी एक तरफ सत्ता और पार्टी का बैलेंस है तो दूसरी तरफ सत्ता का एकाधिकार है।
तो 2018 बीतते- बीतते ये संदेश भी दे चुका है कि 2019 के चुनाव में बीजेपी ही नहीं संघ परिवार के सामने भी ये चुनौती है कि उसे सत्ता गंवानी है या बीजेपी को बचाना है।
गडकरी की आवाज इसी की प्रतिध्वनी है तो दूसरी तरफ सोशल इंजिनियरिंग की जो थ्योरी काग्रेस से निकल कर बीजेपी में समायी अब वह भी आखरी सांस ले रही है।
क्षत्रपो के सामने खुद को बचाने के लिये बीजेपी के खिलाफ एकजूट होकर काग्रेस की जमीन को मजबूत करना भी है। और आखिर तक मोदी सत्ता से जुड़कर अपनी जमीन को खत्म करना भी है।
यानी चाहे अनचाहे मोदी काल ने 2019 के लिये एक ऐसी लकीर खींच दी है जहाँ लोकतंत्र का मतलब भी देश को समझना है और संविधान को भी परिभाषित करना है।
इक्नामी को भी संभालना है और राजनीतिक सत्ता को भी जन-सरोकार से जोड़ना है ।