आजाद हिंदुस्तान की समस्याएं- सुशील भीमटा


BY- सुशील भीमटा


जब तक Right of speech और राजनीति की सीमायें तह नहीं की जाती तब तक भूल जाएं अमनों चैन-लोकतंत्र और आजादी के अहसास को? ये दोनों आवाम का हल्क पकड़े हुए है। हिंदुस्तान को मीडिया और राजनीति खुली सांस नही लेनें देगी। आज सवाल और जवाब शब्दों का खेल है। मीडिया और राजनीति जनता को दिखा रहे बन्दर और मद्दारी का खेल है । ऐशो आराम इन दोनों के नाम लोकतंत्र इन दोनों के लिए मंजिल तक पहुंचने के लिए रेल है। आवाम मेरे वतन का ना जानें 70 सालों से किस नींद में सोया और किन खवाबों में खोया है। किसान जल रहा, फुटपात भर रहा, जवान मर रहा, महंगाई का दौर चल रहा, शिक्षा स्वास्थ्य के नाम लूट का दौर चल रहा, नशा माफिया पल रहा युवाओं की ज़िंदगी निगल रहा, हवस का दानव जग रहा, मासूम बेटियों की ज़िदगी निगल रहा, बाबों के ढाबों में दौलत और हवस का नंगा नाच चल रहा, वेश-भूषा और भाषा में विदेशी दौर चल रहा, हमारी सभ्यता संस्कृति निगल रहा, व्यवहार संस्कार पर प्रहार कर रहा। फिर ना जानें ये आवाम मेरे वतन का किस आजादी और किस हिंदुस्तान की बात है कर रहा?

शिक्षा के नाम पर दौलत की लूट है। उनको आवाम को लुटनें की खुली छूट है। ना कोई नियम ना कानून कोई ना शिक्षा संस्थानों में हिन्दुस्तानी होने का पाठ सिखाया जाता है। बस सिर्फ अंग्रेज बनाया जाता और विदेश भिजवाया जाता है। देश के रीति-रिवाजों, संस्कारों को पश्चमी देशों की सभ्यता पर बलि चढ़ाया जाता है। ना वेद ना शस्त्र, ना रीति-रिवाज , ना हिंदी ना हिन्दुत्व ना वेेेश-भूषा ना सभ्य भाषा का कोई पाठ पढ़ाया जाता है। बस दौलत के लालच में माता -पिता, बच्चों को सपनों का महल दिखाया जाता है। साफ शब्दों में कहूँ तो यूँ कहूँगा कि वतन के संस्कारों व्यवहारों की अर्थी सजाकर भारतियता को जलाया जाता है।

स्वास्थ्य के नाम पर मुर्दों को भी कई दिनों तक वेंटिलेटर में रखकर बिल बनाया जाता है। पाँच रूपये की एक गोली को 65 रुँ में मरीज को खिलाया जाता है। ढाई सौ रुपये के एक ष्टन्ट को ढाई लाख में दिल लगाकर दिल धड़काया जाता है। किडनी खुद दान करो सिर्फ बदलने के 5-7 घँटे के काम का 12-13 लाख का बिल थमाया जाता है। मरीज के ठीक होनें की कोई गारंटी नही मगर एक अच्छे खासे जीते परिवार को सड़कों पर भीख मांगने लायक जरूर बनाया जाता है, ये है आजाद भारत? और हमारा लोकतंत्र को दिया गया सियासत दानों का रूप।

दो रोटी के लिए 70 साल की आजादी के बाद भी 30% हिंदुस्तानी मंदिर की सीढ़ियों, सड़क के चौराहों, फुटपाथों, अनाथालयों, वैश्यालयों और पेट की आग बुझानें के लिए आत्म सम्मान और शरीर को बेचता नजर आता है। जब मूलभत सुविधाएं रोटी कपड़ा शिक्षा और स्वास्थ्य ही बेलगाम और कमर तोड़नें वाली है फिर कैसी आजादी? चाँद पर पहुँच गए मगर पेट की भूख और फुटपातों और बेरहम हाथों से आजादी नही मिली आज भी।

नजर घुमा के देखो हर तरफ रोती बिलखती भीड़ है, चीखो पुकार है किसानों, जवानों, देश के आवाम के घरों में किलकारियां, बीमारियां, कर्जदारियां, भुखमरी, वैशियत का सरमाया और तबाही का साया है। आवाम तो वहीं पड़ा है जहां 70 साल पहले था बदला इतना जरूर की लूट के तरीके सलीके में बदल गए और बड़ी साख वाले और देश के कर्णधार जनता का हक निगलकर फुटपाथों से महलों में बसर कर गए। जी हां यही है आम भारतीय के लिए आजादी के मायने। हम पहले मुगलों और अंग्रेजों के गुलाम थे। अब कर्णधारों और बड़े औधेदारों और मालदारों और रसूखदारों के गुलाम है। शायद इन चंद लोगों ने गुलाम रहकर अपनों पर राज करना सीख लिया और वतन के आवाम को सविधान की जंजीरों में जकड़ कर कैद कर लिया? वतन की हस्ती को तोतों की बस्ती बनाकर छोड़ दिया। रटे रटाये शब्द बोलते आये हम कि संविधान में ऐसा लिखा है क्यों? किसनें लिखा है एक इंसान नें ही ना तो क्या दूसरा कोई उसे बदल नही सकता?
हम आये दिन राजनितिक सम्मेलनों और रैलियो के लिए लाखों की भीड़ में जमा होते हैं और राजनेताओं की खातिर आपा खोतें हैं। तो क्या खुद को इस गुलामी से छुड़ाने के लिए आंदोलन नही किया जा सकता? देश के सर्वोच्च न्यायलय और राष्ट्रपति को नही जगाया जा सकता? जी ये सब मुमकिन है, और मुमकिन तभी है जब हम खुद की सोच को आजाद करें और अपनी अधिकारों और सुरक्षा की बात करें। आवाम को जगाना और देश की मीडिया और राजनीति पर सीमाओं की लगाम लगाना जरूर है आजादी के एहसास के लिए। इसके लिए सर्वोच्च न्यायलय को जगाना होगा। एक नया सविधान बनाना होगा। अभी आजादी अधूरी है हिंदुस्तान कि आवाम के लिए? आजाद है तो देश के कर्णधार, मालदार, रसूखदार और तड़ीपार?
आजाद है तो देश का मीडिया जीसे चाहे उस सड़क छाप को हीरो बना दे। चाहे तो हीरो को जीरो बना दे। जुबाँ की आजादी देश की बर्बादी बयाँ कर रही है।

कानून आज भी आम जनता के लिए खौफ है। क्योंकि कानून के रक्षक सुलझाते नहीं। भटकाते डरातें है। पुलिस से डरता है आवाम, अदालतों में इंसाफ मांगने के लिए मुकदमों की पेरवी के लिए फीस देना और सालों-साल चलती अदालतों में मुकदमों की सुनवाई और झूठी गवाही सुख-समृद्धि तो छीन लेती है। साथ ही साथ जमीन -जायदाद तक बिकवा देती है। कर्जदारी किसानों को सूली चढ़ा देती है। जो आदालत गया उसका कल क्या होगा ये तो पता नही? मगर मुकदमा लड़नें वालो की फीस तो तय है। क्योंकि फीस देना भी कानून में वर्णित है – कितनी किस मुकदमें की फीस देनीं है वो तय नही शह है। फिर कोई कैसे और क्यों अपना कानूनी हक कम करे या छोड़े? आखिर मुकदमें की पेरवी और दलील देनें वालों को ये हक भी तो कानून नें दिया है।

भारतीय संविधान का गुणगान है

थोड़ा इसको बदलो तो हर समस्या का समाधान है

वर्ना आजादी कहां

ये तो रोता-बिलखता लाचार बेबस हिंदुस्तान है

हल्क में अटकी जान है।

सुशील भीमटा

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