BY- रवि भटनागर
आतंकी हमले, सर्जिकल स्टाइक, पुलवामा का आतंकी हमला, और, फिर हुई सैन्य कार्यवाही की सार्थकता कितनी है ? पाकिस्तान से युद्ध जैसी स्थितियाँ, कुछ वर्षों के अंतराल से बनती ही क्यों हैं ? यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहेगा, बहुत समय तक।
सीमा पार से बेखौ़फ हो कर आतंकी बारूद और हथियार लाकर कभी भी कहीं पर भी आतंकी हमलों को अंजाम दे देते हैं। इसमें उनकी सरकार का सीधा हाथ किस हद तक रहता है, और कितने वे मजबूर रहते हैं यह भी एक लंबी बहस का विषय है। पर हम और हमारी सरकारें एसी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते। इत्तेफाक से ज़बानें दोनों देशों के पास काफी लम्बी हैं।
भारतीय जनता पार्टी अपने दम ख़म से चुनाव जीत कर, 2014 से सरकार चला रही है। उस दल को सहयोग देते रहने वाली मुख्य संस्थायें, एक हद तक, हिंदुत्व की विचार धारा से प्रेरित हैं और उन सबके अपने उद्देश्य, प्राथमिकतायें और अपेक्षाएं हैं। पर राजनीतिक दल सत्ता में हो तो उसे हर हाल में संविधान के प्रति वचन बद्ध रहना व दिखना भी ज़रूरी है।
इस धर्मनिर्पेक्ष देश में बीस प्रतिशत से अधिक आबादी अल्प संख्यकों की है, जिसमें से मुख्य आबादी लगभग चौदह प्रतिशत से अधिक मुस्लिम समुदाय की है। ऐसे में जब भी ऐसी सरकार सत्ता में आती है, तो डर का माहौल बढ़ जाता है और आतंकी हमलों सीमाओं पर गोलीबारी घुसपैंठ और शहादत की घटनायें भी बढ़ती जाती हैं। और इससे दोनों धर्मों की ही विघटन कारी ताकतों को बल मिलता है।
बढ़ती हुई घटनाएं दोनो ही धर्मों के उग्र वर्ग को उत्तेजित करती हैं, कानून व्यवस्था पर असर होता है और वैमनस्य बढ़ता हुआ दिखाई देता है। सोशल और डेडिकेटेड मीडिया स्थितियों को काफी हद तक और भी बिगाड़ते रहते हैं। अखंड भारत की कल्पना और सर्व धर्म सम्भाव की विचारधारा के साथ हमारे व्यवहारों में धर्म को लेकर उग्रता और नफरत का कोई स्थान होना नहीं चाहिए पर है।
हमारे देश में ही सुधार वादी और उदार वादी विचार धारा को विस्तार देने वाले नागरिकों की संख्या भी बहुत अधिक हैं। और यही इस देश की आज के माहौल में विशेष धरोहर भी है। हमें, पिछले सैंकड़ों वर्षो में साथ रह कर एक दूसरे से सामंजस्य बैठाना आ चुका है। मतभेद भी सुलझ जाते हैं इच्छा शक्ति से। पर अगर ज़हर फैलाया ही जाये तो एक ही धर्म के और परिवार के भी रिश्ते बिखर सकते हैं।
इस देश का वास्तविक विकास तभी संभव है जब हम सामाजिक असमानता के कारणों को दूर करने पर अपनी पूरी ऊर्जा लगायें। हर हाल में आवश्यक और बेहतरीन शिक्षा देने की पूरी वचन बद्धता हो। रोज़गार के भरपूर अवसर पैदा किये जायें। बेहतरीन स्वास्थ्य सेवा की व्यवस्थाएं हों। भृष्टाचार को समाप्त करने के पूरे प्रयास हों। किसानों और ग़रीब मज़दूरों की आर्थिक अवस्था बेहतर हो सके और कानून व्यवस्था सुदृढ़ हो।
जो राजनीतिक दल, धर्म, जाति या क्षेत्रीयता के आधार पर, नागरिकों की लामबंदी कर, अपनी अलग राजनीति करते रहे हैं। वे, कभी भी उस वर्ग या समुदाय का भला कर ही नहीं पाये। इस देश के संविधान की व्यवस्था ही एसी है, केवल वही दल समाज का सामूहिक भला करने की क्षमता रखते हैं, जो किन्ही सीमाओं से बंधते नहीं और अपनी राष्ट्रीय पहचान रखते हैं।
चुनावों की घोषणा हो चुकी है। यह सही समय है, कि सभी दलों के नेतागण अपने व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठ कर अपनी वचनबद्धताओं पर पुनर्विचार करें। कहीं उनके माथे पर किसी विशेष जाति या धर्म का लेबल तो नहीं चिपक गया है ? कहीं वे अपना स्वंय का ही नेतृत्व गुण खोकर किसी की गोदी में बैठे से तो नहीं दिख रहे हैं ?
हर दल में ही सुलझे शिक्षित और सामाजिक सरोकारों से संबंध रखने वाले अनेकों क़ाबिल सदस्य हैं। उन्हें सोचना होगा कि कहीं वे ग़लत जगह रह कर अपनी ऊर्जा को नष्ट तो नहीं कर रहे। यह सही समय है, जब वह अपने और देश के हित में बेहतर ज़मीन तलाशें।
वहीं, दूसरी तरफ मतदाता हैं। उन्हें पूर्वाग्रहों से दूर हो अपनी व्यक्तिगत राय में धर्म, समुदाय, जाति और राजनीतिक दलों के दबाव से ऊपर उठना होगा। उन्हें, प्रत्याशियों की का़बलियत को ही मुख्य रूप से जाँचना और परखना भी होगा। मतदाता का यह निर्णायक कदम, सभी दलों को मजबूर कर देगा कि वे नाक़ाबिल और तिकड़मी सदस्यों को अपना प्रत्याशी न बनायें।
अगर फिर भी विभिन्न राजनीतिक दल अच्छा प्रत्याशी चुनने में नाकाम रहें तो बेहतर है कि मतदाता किसी क़ाबिल निर्दलीय प्रत्याशी को ही अपना मत देकर विजयी बनायें। ये बिगड़ी व्यवस्थाएं ऐसे ही सुधरेंगी। विकल्प तो हैं और बेहतर भी हैं पर चाबी मतदाता के ही पास है।
रवि भटनागर, गुरुग्राम