जुबाँ आवाम की चाहिए, हिन्दोस्तां की चाहिए अल्फाजों बेजुबाँ है मेरे तब तक: सुशील भीमटा


BY- सुशील भीमटा


लोकतंत्र में क्या बोलनें और जैसे मर्जी मूंह खोलनें की आजादी मीडिया और राजनेताओं को ही है ? क्या आवाम सिर्फ संविधान का गुलाम है ? जरा गौर कीजिये और खुद से सवाल कीजिये। आज मीडिया स्क्रीन से देश के राजनीतिक दलों का प्रचार करता है और बोलनें के अधिकार का बेख़ौफ़ इस्तेमाल करता और देश की सुरक्षा जैसे मुद्दों पर भी बवाल पैदा करता नजर आता है।

हाल ही में पुलवामा में हुए आतंकी हमले के बाद ज्यादातर मीडिया देश के हितों को दरकिनार करके राजनीतिक हितों को प्राथमिकता देता सरेआम इस मुद्दे को राजनीतिक रंग देता नजर आ रहा था। विंग कमांडर अभिनंदन दुश्मन की कैद में थे और दूसरी तरफ मीडिया उनकी वापसी पर सरेआम मजमा लगाए देश की सीमा पर पाकिस्तान को कोसता और डरपोक कहता नजर आया। जबकि विंग कमांडर की रिहाई तक नही हुई थी।

ये क्या था सब समझ रहे थे। बोलने के अधिकार की इतनी स्वतंत्रता आज से पहले कभी नही देखी थी कि एक जवान की जान दुश्मन के हाथ मे फसी थी और हमारा मीडिया ऐसे समय मे खामोश तक नही रह पाया क्यों ?

ये सारी बयानबाजी क्या ऐसे विकट समय मे जरूरी थी ? एक कि जान फसी थी और मीडिया राजनीतिक प्रचार में लगी थी। आवाम ना जानें क्यों खामोश है ? किसी भी देश मे मीडिया इसलिए है कि वो आवाम की आवाज को सरकार तक ले जाये और देश मे विकास, अमनों चैन लानें का पैगाम सरकार तक पहुंचाए और सरकार की नीतियों को जनता के समक्ष लाये।

मगर आज ज्यादातर मीडिया सरकार का परिवार और देश का गद्दार है! सारी तैयारी जंग की की जा रही थी। सरेआम सुरक्षा व्यवस्था की प्रदर्शनी लगाई जा रही थी। क्या ये गुनाह नही की की गुप्त सुरक्षा व्यवस्था को सरेआम किया जा रहा था ? आखिर जरूर क्या है क्यों मीडिया को सारी सुरक्षा व्यवस्था की सूचना दी जाती है ?

ये काम सेना का है कि वो सुरक्षा व्यवथा के पुख्ता इंतजामात करे और अपनी योजना को गुप्त रखे ताकि दुश्मन आगाह ना हो पाए। यहां तो जंग मीडिया लडा रहा था। ये कैसा बेलगाम अधिकार है ?

130 करोड़ देशवासियों सिर्फ दर्शक बना दिए गए और 543 जमा मीडिया हीरो बना दिए गए। ये तो लोकतंत्र की परिभाषा नही।
दूसरी ओर हर राजनीतिक दल द्वारा चुनाव से पहले एक वादों से भरा घोषणा पत्र आवाम के सामनें रखा जाता है और अपने रसजनीतिक स्वार्थों के लिए उसे लुभाया जाता है।

सत्ता हथियाते ही इस घोषणा पत्र को कूड़ेदान के हवाले करके हिन्दोस्तान की आवाम को तड़फाया, जाति-धर्म, वर्ग के नाम मे लड़वाया और सूली चढ़ाया जाता है।

क्या ये घोषणा पत्र लोकतंत्र से खिलवाड़ नही है ? जनता अगर सरकार द्वारा की गई घोषणाओं और अपने हक्क के लिए आवाज उठाती है तो उनपर लाठियां को गोलियां बरसाई जाती है और कानूनी डंडे दिखाकर आवाज दबाई जाती है क्यों ? क्या राजनीतिक दलों पर झूठे घोषणा पत्रों पर कानूनी कार्यवाही नही की जानी चाहिए ? या इन घोषणा पत्रों को सर्वोच्च न्यायलय के अधीन नही लाया जाना चाहिए?

जनता अगर आंदोलन करे अपने हक के लिए तो कानूनी डंडा और अगर नेता अपने घोषणा पत्र से मुकर जाए तो कोई कानून नही। सरेआम टीवी पर घोषणाएं की जाती है कालाधन विदेश से लाया जाएगा हर हिन्दोस्तानी के हिस्से में 15-15 लाख आयेगा। मगर अंजाम क्या कि देश का ही धन नीरव मोदी, माल्या जैसे रसूखदार लूट गए और देश मे नोटबन्दी करवाई गई।

कालाधन तो बाहर नही आया मगर सैंकड़ो लोग मारे गए और जनता पर लाठियां बरसाई गई। फिर गरीब अनपढ़ लोगों पर ऑन लाईन और नेट बैंकिंग की गाज गिराई गई। जिस देश की 70 फीसदी आबादी गांव में बसती है और 26 % आबादी अनपढ़ है और पानी बिजली स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं तक उपलब्ध नही है उस देश मे ऐसी बेंकिग प्रणाली कैसे सम्भव है ?

अभी नेट शहरों में सही काम नही करता जनाब ने गांव में नेट चलाने की सोच देश पर थोंप दी और जनता आफत में झोंक दी। आराम इससे भी नही मिला कि जीरो बैलेंस के खाते खुलवा दिए और आज अगर आपके खाते में मिनिमम बैलेंस नही है तो आप से बैंक द्वारा जुर्माना बसूला जा रहा है और साथ ही खाता बनाये रखने के लिए सर्विस चार्ज और चार से अधिक बार आदान-प्रदान करने पर चार्जिज काटे जातें हैं।

क्या अपने ही बनाई नीतियों नियमो को उलंगन और जनता से ऐसे ठगी कानूनी अपराध के दायरे में नही लाया जाना चाहिए ? कैसा लोकतंत्र ? कैसा कानून ? सोचिये हम कहां खड़े हैं और कहां पडे है! नेता हमारी जान लेनें पर अड़े हैं।

ये सब निरवमोदी और विजय माल्या जैसे रसूखदारों और राजनेताओं और उनके परिवारों की ऐश परस्ती के लिए किया जाता रहा है। 70 सालो से हमें यूँ ही अलग अलग तरीकों से लूटा और कुटा जा रहा है। ये सिर्फ एक आज का उदहारण था सिर्फ तरीके सलीके बदले हैं लूट के बाकि लूट तो 70 सालों से यूं ही की जा रही है।

अगर कालाधन नोटबन्दी से बाहर आया होता तो अर्थव्यवस्था में कुछ सुधार हुआ होता ,कुछ मंहगाई कम हुई होती। मगर यहां तो रिजर्ब बैंक ऑफ इंडिया द्वारा आपातकालीन स्थिति के लिए रखी जमा पूंजी में से भी 28 हजार करोड़ रु सरकार द्वारा सिर्फ चुनाव के घाव भरनें के लिए छीन लिए गए।

बोला कुछ किया कुछ क्या ये गुन्हा नही ? क्या ये देश की आवाम से धोका नही ? क्या संविधान में प्रावधान वक्त और देश की पुकार नही कि कम से कम घोषणाओं और घोषणा पत्रों को भी कानून के दायरे में लाया जाए और देश को इन धोखेबाजों से बचाया जाए ? जी हां लाजमीं है कि इस बेलगाम, बे-ईमान सियासत को कानूनी लगाम लगाई जाए।

दूसरी ओर देश के मीडिया को राजनीतिक मैदान सजानें संवारने, एक दूसरे पर कीचड़ उछालने की और देश की सुरक्षा व्यवस्था और सुरक्षा सम्बंधी मुद्दों में दखलंदाजी की कानूनी तौर पर रोक लगाई जाए! ये बेलगाम जुबाँ अंगारे उगलती और राजनीति के शाही पालनें में झूलती, आवाम के हक्क को भूलती, दौलत के नशे में झूमती नजर आती है।

ये सवाल आवाम का है, संविधान के सामनें आपाहिज हिन्दोस्तान का है। मीडिया देश का चौथा स्तम्भ है मगर कुछ नें कलम गिरवी रख दी और वतन जलनें लगा जो मुझे ख़लनें लगा कुछ सवाल, वतन में मचता बवाल , मीडिया और राजनेताओं द्वारा ओढ़ी सविधानिक अधिकार की अभेद खाल कहूं या ढाल चुभने लगी है और ये जहम में उठे सवाल जहम से जुबां तक आये और कलम की जुबाँ से अल्फाज बनाकर पन्नों पर बयां कर डाले मैंनें।

एक आग्रह हिन्दोस्तान की आवाम से—

मेरी अल्फाजों को वतन की जुबाँ दो,
अपनी पीढ़ियों को एक नया हिन्दोस्तान दो!

सियासत और प्रचारक को कानूनी लगाम दो,
अपने ज़िंदा होनें,वतनपरस्ती की पहचान दो!

सविधान में जो लिखित बेबाकी का विधान है ,
उसका भी एक कानूनी संशोधन प्रावधान है!

हाथों से ही है लिखा हमने,खुदा की तो मर्जी नही’
जागो ये बेलगामी जो लिखी 543की है अर्जी कहीं!

सुशील भीमटा

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