जाति जता दी, साधु ने: रवि भटनागर


BY- THE FIRE TEAM


प्रभु जन, यह चुनावी दंगल है, विशुद्ध भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत। इस देश में सभी जाति धर्म के लोग, खुल कर जीने मरने में साथ रहते हैं, बस, चुनावों के अलावा।

सभी जातियाँ और बिरादरियां भी खूब विचरती हैं, इक दूजे के साथ साथ, या इक दूजे से अनजान, हर गली मोहल्ले और शहर शहर बस, मुये इन चुनावों के अलावा।

चुनावों में संभ्रांत से नेतागण सबको जाग्रत कर देते हैं, और दो महिने की खेमेबाज़ी में सबकी हैसियत और औकात समझा दी जाती है। वहीं सुप्रीम कोर्ट का हुकुम, कि ‘ दि हिंदुइज़्म इस ए वे ऑफ लाइफ ‘ वाला कथन, जिसमें इस देश के सभी भारतीयों को समाहित माना गया है, पर्दे के पीछे छिप जाता है। इस दौरान, पहले धर्मों और जातियों का वर्गीकरण होता है, फिर, धर्मों में व्याप्त जातियों का जुगाड़।

अखंड भारत, वसुधैव कुटुम्बकम के कैनवास पर, हिंदु राष्ट्र ढूढंने की कवायद भी दिखाई देने लगती है। चुनाव हर बार, जुड़ते भारत को तार तार करने की अनचाही कोशिश सी लगती है। मुद्दे शटर में बंद हो जाते हैं, और कस्में वायदे बेकायदा हो कर गटर में छिप जाते हैं।

जिसने महाभारत नहीं देखी, वह इन लोकसभा चुनावों से उसे, काफ़ी हद तक महसूस तो कर ही सकता है। यहाँ , लाशें ही तो नहीं गिर रहीं, पर चेहरे और चरित्र तो धड़ाधड़ गिराये जा रहे हैं, टपकाये जा रहे हैं। गालियों, जूतों थप्पड़ों और चाटों की बौछारें झेलना आसान है क्या ?

लोकसभा- 2019 के चुनावों जैसा फ्री स्टाइल दंगल, न पहले कभी देखा, न भविष्य में कभी देखने को मिलेगा। कब, कौन किसको लंगडी मार दे, और कब कौन किसी में टंगड़ी अड़ा दे, पता ही नहीं चल पा रहा।

इतनी तादाद, और इतनी फुर्ती से नेताओं का पाले बदलने का अनुभव भी अनूठा ही है। एसी गतिविधियों के पीछे कितने नोट हैं और कितनी खोट, चाचा चौधरी होते तो बता देते।

सालों से दलों के प्रवक्ता रहे महानुभाव कभी भी, टीवी चैनलों में अपनी नेम प्लेट बदल के बैठे दिखाई दे सकते हैं।

जैसे जैसे चुनावी दंगल ख़ुराफाती होते जा रहे हैं और अपनी हदें पार करते जा रहे हैं, चुनाव आयोग ज़िम्मेदारियों को पूरा करने में असफल दिख रहा है।

अपनी विश्वसनीयता खोते हुये वह असहाय भी हो चुका है। आचार संहिता को तो दलों ने अपने अपने दफ्तरों की कील पर टांग कर, उस पर अपनी ही टोपियाँ ही टाँग रखी हैं।

अजब पेचीदगियां हैं, अल्प संख्यक समुदाय के लिये कुछ कहा जाये, तो तुष्टिकरण, और अगर बहु संख्यकों के हित या मान्यताओं का ज़िक्र हो जाये तो, हो गया ध्रुवीकरण।

देश के नेता, राजनीतिक पंडित और चुनावी विशेषज्ञ, अपनी हर बहस में धर्म और जातियों के समीकरण ही ढूंढते दिखाई देते हैं।

ऐसा लगता है कि,मतदाता अब अपनी सोचने की क्षमता को पूर्ण विराम दे कर, भाव विहीन हो चुके हैं। भ्रमित और हालात से डरा मतदाता अविवेकी हो जाये तो अच्छी सरकार दे पाने में सक्षम हो ही नहीं सकता।

मतदाता, सही मायने में अगर श्रेष्ठ सांसद चुन सकें, तो लोक सभा में जीते हुये सभी सांसद, अपने विवेक से श्रेष्ठ सरकार भी बना लेंगे और प्रधानमंत्री भी।

हर जागरुक मतदाता, योग्यतम सांसद चुनवाने में ही अपना योगदान दे, यही उसकी ज़िम्मेदारी भी है,और यही उससे अपेक्षा भी की जाती है।


रवि भटनागर गुरुग्राम

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